जगत् की दृष्टि मेँ कोई किसी भी हालत में निर्दोष नहीं है।
पहले समय की बात हैं । किसी देश के एक छोटे से गाँव में एक व्यक्ति रहता था। उसके पास एक गधा था। वह उसे बेचना चाहता था । अपने लड़के को साथ लेकर वह निकटस्थ बाजार में गधा बेचने के लिये चल पडा। पिता गधे के पीठ पर था और लड़का पैदल चल रहा था।
वे कुछ दूर गये थे कि तीन व्यक्ति मिले । उन मे से एक ने कहा कि यह कैसा बाप हैँ, अपने तो सवार है गधे की पीठ पर और लडका पैदल चल रहा है कँकरीले रास्ते पर। पिता गधे पर से उतर पड़ा। और लडका बैठ गया।
कुछ दूर गये थे कि दो महिलाएँ मिली। कैसा पुत्र है । बूढे बाप को पैदल ले जा रहा है और स्वयं सवारी पर विराजमान है। उनमें से एक ने व्यंग किया!
पिता ने पुत्र से कहा कि सबको समान रूप से प्रसन्न रखना बहुत कठिन है। चलो, हम दोनों ही पैदल चलें। दोनो पैदल चलने लगे। आगे बढ़ने पर कुछ लोगो ने कहा कि कितने मूर्ख हैं दोनों साथ में ह्नष्ट-पुष्ट सवारी होने पर भी दोनों पैदल जा रहे हैं । पिता-पुत्र दोनों गधे पर सवार हो गये। पर दो-चार कदम आगे बढ़ने पर किसी ने कहा कि कितने निर्दय हैं दोनों इतने भारी संडै-मुसंडै बेचारे दुबले पतले गधे पर लदे जा रहे हैं। दोनों तत्काल उतर पड़े और सोचा कि गधे को कंधे पर रखकर ले चलना चाहिये। बाजार थोडी ही दूर रह गया था। उन्होंने पेड़ की एक डाली तोडी और उसके सहारे गधे को रस्सी से बाँधकर कंधे पर लटका लिया।
बाजार में प्रवेश करते ही लोग कह कहा मारकर हँस पड़े। देखो न, कितने मूर्ख हैं दोनों कहाँ तो इन्हें गधे की पीठ पर सवार होकर आना चाहिये और कहॉ ये उसे स्वयं अपने कंधे पर ढो रहे हैं। लोगो ने मजाक उड़ाया।
बूढे व्यक्ति की समझ में सारी बात आ गयी !
हम लोगों ने सबको प्रसत्र करना चाहा, इसलिये किसी को भी प्रसत्र न कर सके। सबसे अच्छी बात यह हैँ कि ज़गत् के लोगों की आलोचना पर ध्यान न दे; क्योंकि जगत् तो एक-न-एक दोष निकालेगा ही। जगत् की दृष्टि मेँ कोई किसी भी हालत में निर्दोष नहीं है। अत: सुने सब की, पर करे वही जो मन को ठीक लगे। जिस कार्यं के लिये आत्मा सदैव प्रेरणा प्रदान करे वही हमारा कर्तव्य है । पिता ने पुत्र को सीख दी।