भगवती सीता की शक्ति तथा पराक्रम
एक बार भगवान् श्रीराम जब सपरिवार सभा में विराज रहे थे, विभीषण बड़ी विकलतापूर्वक अपनी स्त्री तथा चार मन्त्रियों के साथ दौड़े आये और बार-बार साँस लेते हुए कहने लगे -‘राजीवनयन राम! मुझे बचाइये, बचाइये।
कुम्भकर्ण के पुत्र मूलकासुर नामक राक्षस ने, जिसे मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण कुम्भकर्ण ने वन में छुड़वा दिया था, पर मधुमक्खियों ने जिसे पाल लिया था, तरुण होकर तपस्या के द्वारा ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनके बल से गर्वित होकर बड़ा भारी ऊधम मचा रखा है।
उसे आपके द्वारा लंका विजय तथा मुझे राज्य-प्रदान की बात मालूम हुई तो पाताल वासियों के साथ दौड़ा हुआ लंका पहुँचा और मुझ पर धावा बोल दिया। जैसे-तैसे मैं उसके साथ छः: महीने तक युद्ध करता रहा। गत रात्रि में मैं अपने पुत्र, ‘ मन्त्रियों तथा स्त्री के साथ किसी प्रकार सुरंग से भागकर यहाँ पहुँचा हूँ। उसने कहा कि “पहले भेदिया विभीषण को मारकर फिर पितृहन्ता राम को भी मार डालूँगा। सो राघव! वह आपके पास भी आता ही होगा।
इसलिये ऐसी स्थिति में आप जो उचित समझते हों, वह तुरंत कीजिये।’ भक्तवत्सल भगवान् श्रीराम के पास उस समय यद्यपि बहुत-से अन्य आवश्यक कार्य भी थे, तथापि भक्त की करुण कथा सुनकर उन्होंने अपने पुत्र लव, कुश तथा लक्ष्मण आदि भाइयों एवं सारी वानरी सेना को तुरंत तैयार किया और पुष्पकयान पर चढ़कर झट लंका की ओर चल पड़े।
मूलकासुर को राघवेन्द्र के आने की बात मालूम हुई तो वह भी अपनी सेना लेकर लड़ने के लिये लंका के बाहर आया। बड़ा भारी तुमुल युद्ध छिड़ गया। सात दिनों तक घोर युद्ध होता रहा। बड़ी कठिन समस्या उत्पन्न हो गयी। अयोध्या से सुमन्त्र आदि सभी मन्त्री भी आ पहुँचे।
हनुमान जी बराबर संजीवनी लाकर वानरों, भालुओं तथा मानुषी सेना को जिलाते ही रहे; पर युद्ध का परिणाम उलटा ही दीखता रहा। भगवान् चिन्ता में कल्पवृक्षे के नीचे बैठे थे। मूलकासुर अभिचार-होम के लिये गुप्तगुहा में गया था। विभीषण भगवान से उसकी गुप्त चेष्टा बतला रहे थे। तब तक ब्रह्माजी वहाँ आये और कहने लगे –
‘रघुनन्दन ! इसे मैंने स्त्री के हाथ मरने का वरदान दिया है। इसके साथ ही एक बात और है, उसे भी सुन लीजिये।
एक दिन इसने मुनियों के बीच शोक से व्याकुल होकर “चण्डी सीता के कारण मेरा कुल नष्ट हुआ’ ऐसा वाक्य कहा। इस पर एक मुनि ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दे दिया -‘ दुष्ट! तूने जिसे चण्डी कहा है, वही सीता तुझे जान से मार डालेंगी।
मुनि का इतना कहना था कि वह दुष्टात्मा उन्हें खा गया। अब क्या था, शेष सब मुनि लोग चुपचाप उसके डर के मारे धीरे से वहाँ से खिसक गये। इसलिये अब उसकी कोई औषध नहीं है। अब तो केवल सीता ही इसके वध में समर्थ हो सकती हैं। ऐसी दशा में रघुनन्दन! आप उन्हें ही यहाँ बुलाकर इसका तुरंत वध कराने की चेष्टा करें। यही इसके वध का एकमात्र उपाय है।’
इतना कहकर ब्रह्माजी चले गये। भगवान् श्रीराम ने भी तुरंत हनुमानजी और विनतानन्दन गरुड को सीता को पुष्पकयान से सुरक्षित ले आने के लिये भेजा। इधर पराम्बा भगवती जनकनन्दिनी सीता की बड़ी विचित्र दशा थी।
उन्हें श्री राघवेन्द्र रामचन्द्र के विरह में एक क्षणभर भी चैन नहीं थी। वे बार-बार प्रासाद-शिखर पर चढ़कर देखतीं कि कहीं दक्षिण से पुष्पक पर प्रभु तो नहीं पधार रहे हैं। वहाँ से निराश होकर वे पुनः द्राक्षामण्डप के नीचे शीतलता की आशा में चली जातीं।
कभी वे प्रभु की विजय के लिये तुलसी, शिव प्रतिमा, पीपल आदि की प्रदक्षिणा करतीं और कभी ब्राह्मणों से मन्युसूक्त का पाठ करातीं। कभी वे दुर्गा की पूजा करके यह माँगतीं कि विजयी श्रीराम शीघ्र लौटें और कभी ब्राह्मणों से शतरुद्रिय का जप करातीं। नींद तो उन्हें कभी आती ही न थी। वे दुनियाभर के देवी-देवताओं की मनौती मनातीं तथा सारे भोगों और श्रृड्रारों से विरत रहतीं।
इसी प्रकार युग के समान उनके दिन जा रहे थे कि गरुड और हनुमानजी उनके पास पहुँचे। पति के संदेश को सुनकर सीता तुरंत चल दीं और ललड्ड में पहुँचकर उन्होंने कल्पवृक्ष के नीचे प्रभु का दर्शन किया। प्रभु ने उनके दौर्बल्य का कारण पूछा। पराम्बा ने लजाते हुए हँसकर कहा – ‘स्वामिन!
यह केवल आपके अभाव में हुआ है। आपके बिना न नींद आती है न भूख लगती है। मैं आपकी वियोगिनी, बस, योगिनी की तरह रात-दिन बलातू् आपके ध्यान में पड़ी रही। बाह्य शरीर में क्या हुआ है, इसका मुझे कोई ज्ञान नहीं।’
तत्पश्चात् प्रभु ने मूलकासुर के पराक्रमादि की बात कही। फिर तो क्या था, भगवती को क्रोध आ गया। उनके शरीर से एक दूसरी तामसी शक्ति निकल पड़ी, उसका स्वर बड़ा भयानक था। वह लड्ढडा की ओर चली। तब तक वानरों ने भगवान के संकेत से गुहा में पहुँचकर मूलकासुर को अभिचार से उपरत किया।
वह दौड़ता हुआ इनके पीछे चला तो उसका मुकुट गिर पड़ा। तथापि वह रणक्षेत्र में आ गया। छाया सीता को देखकर उसने कहा – “तू भाग जा। मैं स्त्रियों पर पुरुषार्थ नहीं दिखाता।’ पर छाया ने कहा – ‘मैं तुम्हारी मृत्यु चण्डी हूँ। तूने मेरे पक्षपाती ब्राह्मण कों मार डाला था, अब मैं तुम्हें मारकर उसका ऋण चुकाऊँ।
इतना कहकर उसने मूलकपर पाँच बाण चलाये। मूलक ने भी बाण चलाना शुरू किया। अन्त में चण्डिकास्त्र चलाकर छाया ने मूलकासुर का सिर उड़ा दिया। वह लड्ढडा के दरवाजे पर जा गिरा। राक्षस हाहाकार करते हुए भाग खड़े हुए।
छाया लौटकर सीता के बदन में प्रवेश कर गयी। तत्पश्चात् विभीषण ने प्रभु को पूरी लड्ढा दिखायी, क्योंकि पिता वचन के कारण पहली बार वे लंका में न जा सके थे। सीताजी ने उन्हें अपना वासस्थल अशोकवन दिखाया। कुछ देर तक वे प्रभु का हाथ पकड़कर उस वाटिका में घूमीं भी। फिर कुछ दिनों तक लंका में रहकर वे सीता तथा लव-कुशादि के साथ पुष्पकयान से अयोध्या लौट आये।