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मन माना अर्थ – mind means meaning Dharmik kahani

मन माना अर्थ

मन माने वो अर्थ कर, करते भारी भूल।
तर्क कुल्टाण जब चले, नष्ट होय जड़मूल॥
एक शहर में एक पंडितजी रामायण की कथा कह रहे थे। जिस समय महाराज जनक का प्रसंग आया तो कथा श्रोताओं में एक ईसाई व्यक्ति भी बेठे हुए थे। वे फौरन खड़े होकर बोले- पंडितजी आप जिस राजा जनक की कथा में चर्चा कर रहे हो, वह राजा जनक तो ईसाई मत के थे और वे ईसा पर ईमान रखते थे।
मन माना अर्थ - mind means meaning Dharmik kahani

पंडितजी उसकी बात सुनकर आश्चर्य चकित रह गये और उससे बोले–तुम यह बात किस आधार पर कह रहे हो। क्योंकि उस समय तो हजरत ईसा का जन्म भी नहीं हुआ था और न इस संसार में ईसाई मत का जन्म हुआ था। ईसाई महोदय बोले- पंडितजी मैं सिद्ध कर सकता हूं कि राजा जनक ईसाई थे।पंडितजी बोले- अच्छा आप सिद्ध कीजिए कि राजा जनक कैसे ईसाई थे?

ईसाई महोदय ने पंडितजी से पूछा कि क्या आप तुलसी कृत रामायण को मानते हैं? पंडितजी ने उत्तर दिया- हाँ मैं मानता हू।
इस पर ईसाई महोदय ने कहा -रामायण में साफ लिखा
कि-
सर समीप गिरिजा घर सोहा। 
वरनी .जाय देख मन  मोहा॥ 
अर्थात्‌ सर ( तालाब के किनारे ) ऐसा सुन्दर, गिरिजा घर बना हुआ है, जिसकी सुन्दरता देखकर प्रत्येक का मन मोहित हो जाता है।
नोट-यहां पर गिरिजा सीताजी को कहा गया है जबकि ईसार्ई महोदय ने गिरिजा का अर्थ गिरिजाघर लगा लिया।
पंडितजी फौरन बोले- वाह भाई वाह! ईसाई महोदय तुमने तो कमाल ही कर दिया । ईसाई बोला- पंडितजी इसमें कमाल की क्‍या बात है? मैंने तो तुलसी कृत रामायण को एक चौपाई से सिद्ध कर दिया कि राजा जनक ईसाई मत के मानने वाले थे। पंडित जी ने ईसाई महोदय से पूछा -तुमने इस चौपाई को पढ़ने का ठेका तो नहीं ले रखा है। तुम्हें आगे की चोपाई जरूर पढ़नी होंगी। पंडितजी और ईसाई महोदय की बड़ी देर तक तू तू मैं मैं होती रही। जनता ने भी ईसाई महोदय से कहा- पंडितजी ठीक कह रहे हैं। तुम आगे की और चौपाई क्‍यों नहीं बोलते। यदि तुमने आगे की चौपाई नहीं पढ़ी तो हम तुम्हें सबक सिखा देंगे।
 ईसाई बोला-क्या मैंने जो चौपाई कही है वह रामायण में नहीं है और क्‍या इस चौपाई से राजा जनक ईसाई मत के सिद्ध नहीं होते। पंडितजी बीच में ही बोल पड़े ठीक है, चौपाई तो रामायण की ही है परन्तु इस चौपाई से राजा जनक ईसाई मत के थे, यह सिद्ध नहीं होता। ईसाई महोदय ने कहा तो फिर आप ही इस चौपाई के आगे पीछे की चौपाइयां पढ़कर हमारे अकाट्य वाक्य का खण्डन करिये कि जनक ईसाई मत के नहीं थे। पंडितजी ने कहा -तेरी ऐसी की तैसी। अगर तू इसी चौपाई को मानता है तो अभी देख तुझे उत्तर देता हू-
 सर समीप गिरिजाघर सोहा, वरनी न जाय देख मन मोहा।
 
जै जै जै गिरियगज किशोरी, जय महेश मुख चन्द्र चकोरी। 
जय गज बदन खड़ा नन माता, जगत जननि दामिन दुतिदाता॥
पंडितजी जोर से बोले, ईसाई महोदय- आगेन्या को अर्थ लगाता है, तो तुम्हारा ईसा औरत बन जाता है। पंडितजी की इस युक्ति को सुनकर सारी जनता खिल खिलाकर हंस पड़ी और ईसाई महोदय वहां से भागते नजर आये।
निष्कर्ष -प्राय: देखा जाता है कि आजकल के नवीन मतों के मतवाले हिन्दुओं के सदग्रन्थों में से कोई न कोई प्रमाण अपने मत को सिद्ध करने के लिए अर्थ का अनर्थ कर भोली भाली हिन्दू जनता को धोखा देकर अपने मायावी जाल में फँसा कर अपने मत की उन्नति करने में संलग्न हैं।
ऐसी बुद्धि के मतवालों को जब तक मुक्ति द्वारा मुंह तोड़ उत्तर नहीं दिया जाता । तब तक इनका मुंह बंद नहीं हो सकता।
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