Kabir Ke Shabd |
कबीर के शब्द
कबीर नाम सुमिरन
मेरी चाही ना करो, मै मुर्ख अंजान।
तेरी चाही में पृभु, मेरा है कल्याण।।
कबीर कमाई अपनी,कभी ना निष्फल जाए।
सात समन्द आड़ा पड़े, मिले अगाडी आए।।
जाग जीव सुमिरन कर हरि को, भोर भई है भाई रे।
सुमिरन बिना संग नहीं कोई, हंस अकेला जाइ रे।।
जिन के नाम निशान है, तिन अटकावै कौन।
पुरुष खजाना पाईया, मिट गया आवा गौण।।
कहा भरोसा देह का, विनश जाए छन माहीं।
सांस-सांस सुमिरन करो और जतन कछु नाहीं।।
मथुरा कांसी द्वारका, हरिद्वार जगन्नाथ।
साध संगत हरि भजन बिन, कछु ना आवे हाथ।।
यंत्र मंत्र सब झूठ हैं, मत भरमो जग कोए।
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस ना होइ।।
हल हाँके हरि को भजे, श्रद्धा माफिक देय।
इतने में हरि ना मिले, मुजरा हम से लेय।।
उद्धम कर उदर भरे,मुख सुं जापे नाम ।
ऐसा मौका ना मिले, तो करोड़ों खर्चो दाम।।
कबीर निर्भय नाम जप,जब लग दीवे बाती।
तेल घटे बाती बुझे, तब सोवेगा दिन राती।।
माला भजूं ना कर जपूं, जिभ्या कहूँ ना राम।
सुमिरन मेरा हरि करे, मै पाया विश्राम।।
दादू अपनी हद्द में, सब कोई लेवे नाउँ।
जो लागे बे हद्द से, तिन की मैं बलि जाऊं।।
सुमरन का सांसा रहा, पछतावा मन माहीं।
दादू मीठा राम रस,सजदा पिया नाहीं।।
दादू जैसा नाम था, तैसा लीन्हा नाहीं।
हौंस रही ये जीव में, पछतावा मन माहीं।।
सुमरन ऐसा कीजिए, दूजा लखे ना कौए।
होंठ न फरखत देखिए, प्रेम राखिए गोए।।
गुप्त अकाम निरन्तर, ध्यान सहित सानंद।
आदर जुत जप से तुरत,पावे परमानंद।।
नाम जो रत्ती एक है,पाप जो रत्ती हज़ार।
आध रत्ती घट संचरै, जार करै सब छार।।
राम नाम निज ओषधि,सद्गुरु दई बताए।
औषध खा रु पथ रहै, ता को बेदन नाएं।।
सपने हूँ ब्रराए कै, धोखेहुँ निकसे नाम।
वा के पग की पगतरी, मेरे तँ को चाम।।
मैं मेरे की जेवड़ी, गल बंध्यो संसार।
दास कबीर क्यों बंधे, जाको नाम आधार।।
मुख सुं भजे सो मानवी,दिल से भजे सो देव।
जिव सुं जपे सो जोत में,रज्जब साँची सेव।।
प्रीत पराई न होत है, जो उत्तम से लाग।
सो बरसां जल में रहे, पत्थर न छोड़े आग।।
खुशरो दरिया प्रेम का,जा की उलटी धार।
जो उभरा सो डूबग्या, जो डूब सो पार।।
मीठा बोलन निव चलन, पर अवगुण ढंक लेन।
पाँचों चंगा नानका,हरि भज हाथां देन।।
कोई दिन दुर्दिन नहीं,कोई नहीं शुभ योग।
अपने-अपने कर्म फल, भोग रहे सब लोग।।
धरती फाटे मेघ मिले, कपड़ा फाटे डोर।
तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहीं ठोर।।
सलिल मोह की धार में,बह गए गहर गम्भीर।
सूक्ष्म मछली सुरत है चढ़िहैं उलटे नीर।।
कंचन तजना सहज है,सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या, तजना दुर्लभ यह।।
चाह चुहड़ी रामदास, सब नीचों में नीच।
तूँ तो केवल ब्रह्म था, चाह न होती बीच।।
कबीर मनवा एक है, भावे जहां लगा।
भावे हरि की भक्ति कर, भावे विषय कमा।।
मन पंछी तब लग उड़े, विषय वासना माहीं।
प्रेम बाज की झपट में, जब लग आवे नाहीं।।
शूम सदा ही उद्धरे, दाता जाए नर्क।
कह कबीर ये साख सुन, मत कोई जाओ सरक।।
जो विषया सन्तन तजि, मूढ़ ताहिं लिपटाय।
ज्यों नर डारत वमन कर, श्वान स्वाद सों खाए।।
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग।
ते मंदिर ख़ाली पड़े, बैठण लागे काग।।
खालक बसे खलक में,खलक बसे रब माहीं।
मंदा किस नूं आखीऐ, जांसिस बिन कोई नाहीं।।
रक्त छोड़ पय को गहे, ज्यूँ रे गऊ को बच्छ।
ओगुण छोड़ गुण को गहे, ऐसो साध को लच्छ।।
तृष्णा अग्नि प्रलय किया, तृप्त कबहुँ ना होय।
सुर नर मुनि और रंक जन, भस्म करत हैं सोय।।
ना सुख काजी पंडतां, ना सुख भूप भया।
सुख सहजैं ही आवसी,तृष्णा रोग गयां।।
काग पढायो पिंजरे, पढ़ गयो चारों वेद।
समझायो समझे नहीं, रह्यो ढेढ को ढेढ।।
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता,कुछ संशय कुछ ज्ञान।
घर का रहा ना घाट का, ज्यूँ धोबी का श्वान।।
तेरे अंदर साँच जो, बाहर नहीं जमाव
जानन हारा जानि है,अंतर गति का भाव।।
रज्जब रोष न कीजिए, कोई कहे क्यों ही।
हंस कर उत्तर दीजिए, हाँ बाबा जी यों ही।।
जग में गुण ही है बड़ा, करो गुणी का मान।
साठ साल का गुण रहित, शिशु से छोटा जान।।
जो तूँ चेला देह का, देह नर्क की खान।
जो तूँ चेला शब्द का , शब्द ब्रह्म कर मान।।
मुर्दे को हरि देत है, लकड़ी कपड़ो आग।
जीवित नर चिंता करे, उन का बड़ा अभाग।।
रोहिताश्व रिपु रोग ऋण, बाकि नर मत छोड़।
जिन के बाकी ये रहे, तिन की श्री हत खोड़।।
मार्ग चलता जो गिरे, ता को नाही दौष।
कहे कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़े कोस।।
तुलसी पूर्व पाप तैं, हरि चर्चा न सुहात।
जैसे ज्वर के जोर से, भूख विदा हो जात।।
मजाल क्या है जिव की, जो राम नाम लेवे।
पाप देवे थापकी, तो मूंडो फोड़ देवे।।