मट्छि नामके एक ब्राह्मण थे। उन्होंने धनोपार्जनके लिये बहुत यत्र किया; पर सफलता न मिली। अन्तमें थोड़े-से बचे-खुचे धनसे उन्होंने भार सहने योग्य दो बछड़े खरीदे। एक दिन सधानेके लिये वे उन्हें जोतकर लिये जा रहे थे। रास्तेमें एक ऊँट बैठा था। वे उसे बीचमें करके एकदम दौड़ गये। जब वे उसकी गर्दनके पास पहुँचे, तब ऊँटको बड़ा बुरा लगा और वहाँ खड़ा होकर उनके दोनों बछड़ोंको गर्दनपर लटकाये बड़े जोरसे दौड़ने लगा। इस प्रकार मड्धिने जब अपने बछड़ोंको मरते देखा, तब उन्हें बड़ा कष्ट तथा वैराग्य हो गया और वे कहने लगे –‘ मनुष्य कैसा भी चतुर क्यों न हो यदि उसके भाग्यमें नहीं होता तो प्रयत्न करनेपर भी उसे धन नहीं मिल सकता। पहले अनेकों असफलताओंके बाद भी मैं धनोपार्जनकी चेष्टामें लगा ही था, पर विधाताने इन बछड़ोंके बहाने मेरे सारे प्रयत्रको मिट्टीमें मिला दिया। इस समय काकतालीय न्यायसे ही यह ऊँट मेरे बछड़ोंको लटकाये इधर-उधर दौड़ रहा है। यह दैवकी ही लीला है। यदि कोई पुरुषार्थ सफल होता दिखायी देता है तो विचारनेपर वह भी दैवका ही किया जान पड़ता है। इसलिये जिसे सुखकी इच्छा हो, उसे बैराग्यका ही आश्रय लेना चाहिये। अहो! शुकदेव मुनिने क्या ही, अच्छा कहा है–‘जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओंको पा लेता है तथा जो उनका सर्वथा त्याग कर देता है, उन दोनोंमें त्यागनेवाला ही श्रेष्ठ है।’