वर्षा के दिन थे वृष्टि प्रारम्भ हो गयी थी । आयोदधौम्य ऋषि ने अपने शिष्य आरुणि को आदेश दिया- जाकर धान के खेत की मेड़ बॉध दो । पानी खेत से बाहर न जाने पाय।
आरुणि खेत पर पहुँचे। मेड़ टूट गयी थी और बड़े वेग से खेत का जल बाहर जा रहा था। बहुत प्रयत्न किया आरुणि ने किंतु वे मेड़ बांधने में सफल न हो सके। जल का वेग इतना था कि वे जो मिट्टी मेड़ बांधने को रख लें, उसे प्रवाह बहा ले जाता। जब मेड़ बॉधने का प्रयत्न सफल न हुआ, तब स्वयं आरुणि टूटी मेड़ के स्थान पर आड़े होकर लेट गये। उनके शरीर से पानी का प्रवाह रुक गया।
पानी के भीतर पड़े आरुणि का शरीर अकड़ गया। जों कें और दूसरे जल जन्तु उन्हें काट रहे थे। परंतु वे स्थिर पड़े रहे । हिलने का नाम भी उन्होंने नहीं लिया। पूरी रात्रि वे वैसे ही स्थिर रहे। इधर रात्रि में अँधेरा होने पर धौम्य ऋपि को चिन्ता हुई। उन्होंने अन्य शिष्यों से पूछा-आरुणि कहाँ है ? शिष्यों ने बताया-आपने उन्हें खेत की मेड़ बाँधने भेजा तब से वे लौटे नहीं।
पूरी रात्रि ऋषि सो नहीं सके। सवेरा होते ही शिष्य के साथ खेत के समीप जाकर पुकारने लगे बेटा आरुणि ! कहाँ हो तुम ?
मूर्छित प्राय आरुणि को गुरुदेव को स्वर सुनायी पडा। उन्होंने वहीं से उत्तर दिया-भगवन् ! मैं यहाँ जल का वेग रोके पड़ा हूँ। ऋषि शीघ्रता पूर्वक वहाँ पहुँचे। आरुणि को उन्होंने उठ्ने का आदेश दिया। जैसे ही आरुणि उठे, ऋषि ने उन्हें हृदय से लगा लिया और बोले-वत्स। तुम क्यारी को विदीर्ण करके उठे हो अत. आज से तुम्हारी नाम उद्दालक होगा। सत्र वैद तथा धर्म शास्त्र तुम्हारे अन्त करण में स्वयं प्रकाशित हो जायेंगे ! लोक में और परलोक में भी तुम्हारा मङ्गल होगा। गुरुकृपा से आरुणि समस्त शास्त्रों के विद्वान् हो गये। वे उद्दालक ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हैं ।