Kabir ke Shabd
लाई रे तन मन धन बाज़ी जी।।
चौसर मांडी सच्चे पीव से रे, तन मन धन बाज़ी ला।
हारूँ तो मैं अपने पीव की रे, जीतूं तो पिया मेरा आए रे।।
चार जनी घर एक है रे, वर्ण-२ के लोग।
मनसा वाचा कर्मणा रे, प्रीत निभाइयो म्हारी ओड़ रे।।
लख चोरासी घूम के रे, पौह पे अटकी सार।
जो इब कै पौह ना पड़े रे, फेर चौरासी में आए रे।।
कह कबीरा धर्मिदास से रे, जीती बाज़ी मत हार।
जो इब के बाज़ी जीत ले रे, सोई सुहागण नार।।