नाम सुमिर मन बावरे-(जगजीवन)
1—संन्यास लेने पर गहरे ध्यान में प्रवेश और लोगों—द्वारा पागल समझा जाना।
2—विरह की असह्य पीड़ा से साधक की तड़पन।
3—’शेष प्रश्न क्या है?
4—मेरे जीवन में क्यों कष्ट हैं?
5—संसार की कीचड़ से कैसे मुक्त हुआ जाए?
6—भगवान की बातें सुनकर प्रेम और मस्ती का नशा चढ़ जाना।
पहला प्रश्न :
भगवान, जबसे मैंने संन्यास लिया है तबसे रंग ही बदल गया है। मैं आपका हाथ अपने हाथ में महसूस करती हूं। कभी—कभी ध्यान की अवस्था में पूरे शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं, शरीर उड़ाने भरने लगता है और आंसुओ की झड़ी लग जाती है।
मेरी यह हालत देखकर लोग मुझे पागल कहते हैं। उन्हें कैसे समझाऊं कि इन गैरिक वस्त्रों में बहुत खुशियों के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, पागल ही अच्छे हैं।
कृष्णा भारती, संन्यास का रंग शुरू तो बाहर से ही होता है लेकिन अंत तो तभी है जब भीतर भी रंग जाए। और जो बाहर से रंगने को राजी है उन्होंने नियंत्रण दिया, उन्होंने द्वार खोले। उन्होंने सूचन दिया कि अब हम भीतर से रंगने को भी राजी हैं। यह रंग गुलाल, यह गैरिक आया धीरे— धीरे व्याप्त होगी, गहन होगी। और एक घड़ी ऐसी आएगी—बाहर और भीतर एक ही रंग हो जाएगा। जब बाहर और भीतर में कोई भेद न रह जाए तभी जानना कि वास्तविक संन्यास घटित हुआ। वही घड़ी करीब आ रही है।
और जब भी ऐसी घड़ी करीब आएगी, लोग पागल कहेंगे। क्योंकि लोग तर्क से जीते हैं, गणित से जीते हैं, हिसाब—किताब रखते हैं। बाहर बाहर होना चाहिए, भीतर भीतर होना चाहिए। शरीर, शरीर; आत्मा, आत्मा। बुद्धि, बुद्धि;हृदय, हृदय। वे विभाजन करके रखते हैं; हर चीज को खंडों में बांटकर रखते हैं।
संन्यास का अर्थ ही है समग्रता। बाहर को भीतर में डूबा देंगे, भीतर को बाहर फैला देंगे। बुद्ध को अलग— थलग न रहने देंगे, हृदय में मिला लेंगे। भाव और विचार एक साथ नाचे। देह और आत्मा में रंचमात्र भी भेद न रह जाए। पदार्थ और परमात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हो जाएं। सब द्वंद्व मिटें। द्वंद्वातीत का जन्म हो। अद्वैत उमगे।
लेकिन अद्वैत तो निश्चित ही पागलपन जैसा मालूम होगा। क्योंकि अद्वैत का अर्थ हुआ : बुद्धि ने जितनी सीमाएं खींची थीं, तुमने सब पोंछ डालीं। बुद्धि ने भेद खड़े किए थे,तुमने सब मिटा दिए। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। माया और ब्रह्म दो नहीं हैं। दो का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
लेकिन जीवन का सारा व्यवहार दो के स्वीकार पर खड़ा है। इसलिए जब भी किसी के जीवन से दो का भाव गिरेगा, लोग पागल कहेंगे। लोग ठीक ही कहते हैं; उससे पीड़ा भी मत लेना; उससे दंश मत पाना। लोग अपनी तरफ से ठीक ही कहते हैं। उनकी बात को लेकर उनके अनुसार चलने की चेष्टा भी मत करना, क्योंकि वह अब संभव नहीं होगा। यह रंग चढ़े तो फिर उतरता नहीं।
बाहर के दीये तो बुझ जाते हैं। तेल चुक जाता है,बाती चुक जाती है, दीये टूट जाते हैं; भीतर का दीया बुझता नहीं। बिन बाती बिन तेल। न तो वहां तेल है जो चुक जाए, न बाती है जो जल जाए, न दीया है जो टूट जाए। भीतर शाश्वत धारा है प्रकाश की। वहां प्रतिपल दीवाली है और प्रतिपल होली है। वहां तो पहुंच ही वे पाते हैं जो पागल होने को ही नहीं, बिल्कुल मिट जाने को राजी हैं। मुझसे वो कहते हैं परवाने को देखा तुमने देख यूं जलते हैं इस तरह से दम देते हैं देखा है परवाने को शमा पर जल जाते हैं? वही संन्यास का ढंग है।
मुझसे वो कहते हैं परवाने को देखा तुमने देख यूं जलते हैं इस तरह से दम देते हैं जब परवाना शमा के साथ एक हो जाता है, जब हमारी छोटी—सी ज्योति उस विराट ज्योति में लीन हो जाती है, जब हम उसी के रंग में रंग जाते हैं। कबीर ने कहा न! ‘लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।’ उसे देखने जो जाएंगे, उस जैसे ही हो जाएंगे। उसे देखते ही देखनेवाले में और दिखाई पड़ने वाले में भेद नहीं रह जाता।
यह गैरिक रंग तो प्रतीक है। प्रतीक है बहुत—सी बातों का। सुबह के उगते सूरज का। जब आकाश पर प्राची में लालिमा छा जाती है, वैसे ही तुम्हारे भीतर का प्रकाश जब उगता है तो तुम्हारे अंतराकाश पर प्राची में लाली छा जातीहै।
वही रंग उतर रहा है। अहोभाव से, आनंद से दोनों बाहें फैलाओ और जो आ रहा है उसे भेंट लो। जरा भी संकोच मत करना। लोकलाज मत करना। जरा भी लज्जा मत करना। हटा दो सब घूंघट। गिरा दो सब पर्दे। उस परम से तो कोई निर्वस्त्र ही मिलता है, जहां कोई अड़चन नहीं रह जाती।
और उससे मिलना मिटना है। उससे मिलकर कौन जिया, कौन बचा? इसलिए रास्ता तो पागलों का है ही;हुशियारो का नहीं। हुशियार तो धन इकट्ठा करते हैं, पद इकट्ठा करते हैं, प्रतिष्ठा कमाते हैं। पागल परमात्मा की तरफ जाते हैं।
फानी को या जुनूं है या तेरी आरजू है
कल नाम लेके तेरा दीवानवार रोया
या तो पागल रोते हैं या उसके प्रेमी रोते हैं।
फानी को या जुनू है या तेरी आरजू है
या तो उसकी अभीप्सा पैदा हो जाए या कोई पागल हो जाए। सच में तो दोनों एक ही बात के दो नाम हैं।
मैं साधारण पागलों की बात नहीं कर रहा हूं,असाधारण पागलों की बात कर रहा हूं, मस्तों की बात कर रहा हूं। साधारण पागल तो वह है जो बुद्धि से नीचे गिर गया। असाधारण पागल वह है जो बुद्धि से ऊपर उठ गया। दोनों से बुद्धि छूट जाती है। मगर जो बुद्धि से नीचे गिर गया उसका तो संसार भी गया, परमात्मा कहां मिला? उसके तो हाथ में जो था वह भी खो गया। मिलने की तो कोई बात नहीं है। जो बुद्धि से ऊपर उठता है उसका भी संसार खो जाता है लेकिन संसार का मालिक मिल जाता है। और जिसको मालिक मिल गया उसको तो सारा साम्राज्य मिला ही हुआ है।
लोग हंसेंगे भी। लोग मखौल भी उड़ाके। लोग पागल भी कहेंगे। ऐसा उन्होंने सदा किया है। यह उनकी पुरानी आदत है, कुछ नई नहीं।
दिल के तअईं आतिशे—हिज्रां से बचाया न गया
घर जला सामने और हमसे बुझाया न गया
जब तुम अपने घर को जलते हुए देखोगे तो दूसरे तुम्हें पागल तो कहेंगे ही कि खड़े—खड़े देखते क्या हो? बुझाते नहीं? उन्हें क्या पता कि बूंद मिट रही है और सागर हो रहा है। उन्हें क्या पता कि बीज टूट रहा है और वृक्ष का जन्म हो रहा है, उन्हें क्या पता कि सूली के पीछे सिंहासन है। सूली ऊपर सेज पिया की। उन्हें तो सूली दिखाई पड़ रही है।
दिल के तअईं आतिशे—हिज्रां से बचाया न गया
घर जला सामने और हमसे बुझाया न गया
ये गैरिक वस्त्र अग्नि के प्रतीक भी हैं। कबीर ने कहा, ‘कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारे आपना चले हमारे साथ।’किस घर में आग लगानी है? अहंकार के घर में आग लगानी है। यह आशियां दिखता है कि आशियां है; यह कारागृह है, यह कैद है। यह तो जल ही जाए तो तुम मुक्त हो जाओ। यह तो राख हो जाए तो सारा आकाश तुम्हारा हो जाए।
लेकिन लोग पागल कहें तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसे वे घर समझते हैं उसे तुम जलाने चल पड़े। और जिसे वे यश समझते हैं उसे तुमने दो कौड़ी का माना।
मार रहता है उसको आखिरकार
इश्क को जिससे प्यार होता है
प्रेम के रास्ते पर तो मृत्यु अहोभाग्य है। लेकिन जिन्होंने प्रेम जाना ही नहीं उन अभागों को तो मृत्यु मृत्यु ही है। फिर प्रेम के रास्ते पर घटे कि घृणा के रास्ते पर घटे, उन्हें कुछ भेद मालूम नहीं होता। वे तो इतना ही जानते हैं : खाओ, पियो,मौज करो। मौत आ गई, सब छिन जाएगा। उन्हें पता नहीं है कि एक ऐसी भी मौत है कि क्षुद्र छिनता है और विराट मिलता है। एक ऐसी भी मौत है जो महाजीवन का द्वार है।
पर उन पर दया करना। उन पर नाराज भी मत होना। उनसे विवाद भी मत करना। क्योंकि कृष्ण, वे विवाद समझेंगे भी नहीं।
पूछा है : ‘जबसे मैंने संन्यास लिया है तब से रंग ही बदल गया है।’बदल ही जाना चाहिए। संन्यास लो तो बदलेगा ही।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कपड़ों का रंग बदलने से क्या होगा? यह तो बाहर की बात है। भीतर से तो हम आपके संन्यासी हैं ही। मैं उनकी आंखों में देखता हूं, न वे बाहर से हैं न वे भीतर से। भीतर की बात तो सिर्फ इसलिए उठा रहे हैं ताकि बाहर से बच जाएं। मैं उनसे कहता हूं, ईमान से कहते हो भीतर से संन्यासी हो? या केवल बातचीत कर रहे हो, बहाना खोज रहे हो? अभी बाहर से संन्यासी होने की भी हिम्मत नहीं है लेकिन आदमी बड़ा चालबाज है। बड़ी ऊंची बातें उठाता है। छोटी—मोटी बातों को तो करना ही क्या है! बड़ी—बड़ी बातें करता है। फिर भीतर की बात तो ऐसी है कि किसी को दिखाई पड़ती नहीं।
जो कहता है कि मैं भीतर से संन्यासी हूं, बाहर से लेने से क्या होगा, उसे भी जब प्यास लगती है तो बाहर से पानी पीता है। यह नहीं कहता है कि भीतर की प्यास को बाहर के पानी से क्यों बुझाए? भीतर की भूख को बाहर के भोजन से क्यों बुझाए? भीतर के प्रेम को बाहर के प्रेमी से क्यों बुझाए?तब बाहर का पानी, बाहर का भोजन, बाहर का प्रेम, बाहर की श्वास—सब स्वीकार है। लेकिन जब संन्यास की बात उठे तो वह कहता है, बाहर से क्या जरूरत? भीतर तो मैं संन्यासी ही हूं। जब सर्दी लगती है तो बाहर से कोट पहन लेते हो, कपड़े पहन लेते हो। तब नहीं कहते कि सर्दी तो भीतर लग रही है,बाहर से क्या जरूरत? भीतर तो मैं संन्यासी ही हूं। जब सर्दी लगती है तो बाहर से कोट पहन लेते हो, कपड़े पहन लेते हो। तब नहीं कहते कि सर्दी तो भीतर लग रही है, बाहर कोट पहनने से क्या होगा?
बाहर और भीतर का फासला कहां है? जो अभी बाहर है, अभी भीतर हो जाएगा। और जो अभी भीतर है,अभी बाहर हो जाएगा। बाहर और भीतर में प्रतिपल लेन—देन है। जो श्वास भीतर जा रही है, अभी भीतर है, क्षणभर बाद बाहर हो गई। और जो अभी बाहर थी, क्षण भर बाद भीतर हो गई। वृक्ष पर फल लगा है, अभी बाहर है; फिर तुमने भोजन कर लिया, फल को पचा गए, खून—मांस—मज्जा बन गया। अब तुम्हारे भीतर है। उसी से तुम्हारी हड्डी बनेगी, उसी से तुम्हारा मांस बनेगा, उसी से तुम्हारा रक्त बनेगा। इतना ही नहीं,उसी से तुम्हारी बुद्धि के तंतु बनेंगे, जिनसे तुम सोचोगे—विचारोगे, गणित करते हो, विज्ञान शोधोगे, काव्य लिखोगे। वह जो अभी बाहर वृक्ष पर लटका हुआ फल था, कल तुम्हारे भीतर से कविता बनकर उमगेगा, गीत बनकर उठेगा। वही फल सितार छेड़ेगा, संगीत जगाएगा।
और जो अभी तुम्हारे भीतर है, कल मर जाओगे,जमीन में गड़ा दिए जाओगे। तुम्हारी लाश पर कोई वृक्ष उगेगा। तुम्हारी मांस—मज्जा फिर फल बन जाएगी, खाद बन जाएगी। क्या बाहर क्या भीतर? बाहर भीतर का अंग है, भीतर बाहर का अंग है।
झूठी चालबाजियों, झूठे तर्को में, तर्काभासों में अपने को मत उलझाना।
कृष्ण, तूने हिम्मत की। संन्यास लिया बाहर से। अब भीतर से भी घट रहा है। अब फल पचने लगा। अब फल तेरा रक्त—मांस मज्जा बनने लगा।
‘आपका हाथ अपने में महसूस करती है —संन्यास का यही अर्थ है कि मैं हाथ देने को तैयार हूं, तुम ले लो।’कभी—कभी ध्यान की अवस्था में पूरे शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं।’ रोमांच होगा। जब आनंद बरसेगा, रोएं—राएं मगन हो जाएंगे। रोआ—रोआ नाचेगा। स्फुरणा होगी, उसे दबाना मत। क्योंकि दबाना सिखाया गया है।
हमारा जीवन का जो ढंग है अब तक, वह ऐसा है कि दब—दबकर जियो। न तो खुलकर हंसना, न खुलकर रोना, न खुलकर नाचना। तुम्हारी देह कुछ बातें भूल ही गई है। तुम्हारा मन कुछ बातें विस्मरण ही कर गया है। न रोएं कभी, न नाचे कभी, न हंसे कभी। पंगु हो गए हो। और परमात्मा की तरफ जाने के लिए यह अनिवार्य कदम है।
इसलिए जब रोएं खड़े हो जाएं, रोमांच हो,आहलादित हो जाना। प्रार्थना करीब है। परमात्मा पास है,इसलिए रोएं खड़े हो गए होंगे। देखते हो, वृक्षों के पत्ते हिलते हैं, उसका अर्थ हवाएं आ गई। वृक्ष के पत्ते हिलने लगे। जब रोमांच हो तो समझना कि परमात्मा बहुत करीब से गुजर रहा है। उसका चुंबक बहुत करीब है। उसी के चुंबकीय आकर्षण में रोएं खड़े हो गए हैं, रोमांच हुआ है। सौभाग्य समझना।
‘शरीर उड़ाने भरने लगता है।’ भरेगा ही। भरना चाहिए। जैसे—जैसे तुम्हारा अंतर्जीवन निखरेगा, रंगेगा, जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर होली का उत्सव होगा और दीवाली के दीये जलेंगे, तुम निर्भार होओगे वैसे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण अब तुम्हें बांध न रख सकेगा। अब तुम पंख फैलाओगे। अब तुम्हारे डैने आकाश को नापने के लिए चलने के लिए तैयार होने लगेंगे।
‘शरीर उड़ाने भरने लगता है, आंसुओ की झड़ी लग जाती है।’ये आंसू परम आनंद के आंसू हैं। रोकना मत, पोंछना मत, सम्हालना मत। तुम्हारे पैर डगमगाने लगें तो समझना कि मंदिर बहुत करीब है। उसके मंदिर में कौन सम्हल। हुआ पहुंचा है? उसके मंदिर में लोग डगमगाते हुए ही पहुंचते हैं।
कुछ हो रहा है। कुछ गहरा हो रहा है।
ऐ दोस्त, मेरे सीने की धड़कन को देखना
वो चीज तो नहीं है मुहब्बत कहें जिसे
वही चीज है! दिल जोर से धड़क रहा है। रोमांच हुआ है। आंखें गागर की तरह आंसुओ को बहा रही हैं। शरीर उड़ान भरने को आतुर हो रहा है।
डर भी लगेगा। भय भी होगा। क्योंकि हमें सदा कहा गया है कि आंसू दुःख के लक्षण हैं। सौ प्रतिशत बात गलत है। आंसुओ का दुःख से कुछ लेना—देना नहीं है। कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। आंसू तो अतिरेक के लक्षण हैं। न दुःख के, न सुख के, न प्रीति के, न क्रोध के, न घृणा के—अतिरेक के। जब भी कोई भाव अतिरेक से हो जाता है, सम्हालना मुश्किल हो जाता है तो आंसू उसे बहाकर बाहर ले जाने लगते हैं। लोगों के मन में आंसू दुःख के पर्यायवाची हो गए हैं क्योंकि उन्होंने एक ही चीज अतिरेक से जानी है—दुःख। और तो उन्होंने अतिरेक से कुछ जाना नहीं। इसलिए दुःख और आंसुओ का साहचर्य हो गया है। जब तुम आनंद में भी अतिरेक जानोगे तो आनंद के भी आंसू बहेंगे।
लोग क्रोध में भी रोने लगते हैं। स्त्रियां अक्सर क्रोध में रोने लगती हैं। क्रोध का अतिरेक हो जाता है। करुणा में भी लोग रोते हैं। प्रेम में भी लोग रोते हैं। और घृणा में भी। इतना स्मरण रखना कि आंसू तो जो भी तुम्हारे भीतर सम्हालने के बाहर हो जाता है, उसको तुमसे बाहर ले जाते हैं। जैसे घड़ा भर गया और ऊपर से बहने लगा। बस ऊपर से बहने का लक्षण है।
अश्क आंख से, दिल हाथ से, जी तन से चला जाए
ए वाए—मुसीबत! कोई किस—किसको सम्हाले
अब सम्हालना ही मत। क्योंकि सहालना घातक है। और सम्हालने की आदतें पुरानी हैं। सम्हालों तो सम्हाल सकोगे। रोको तो रोक सकोगे। हर चीज का दमन किया जा सकता है। लोग आनंद तक का दमन कर लेते हैं।
कुछ दिन हुए, चेतना मेरे पास सांझ मिलने आयी थी। उसके माथे पर मैंने हाथ रखा। देखा, अतिरेक से उसके भीतर आनंद उठा, पर जैसे अनजाने, जैसे मूर्च्छा में उसने अपना ओंठ काट लिया। वह भी मैं देख रहा—उसने अपना ओंठ काट लिया अपने दांतों में ओंठ भींच लिया। वह दबा रही है, वह घबड़ा गई है। इतना आनंद प्रकट करना पागलपन होगा। शायद सोचकर उसने किया भी नहीं यह। ओंठ को दांतों के बीच दबा लेना, दबाने का एक ढंग है। एक गहन अवसर चूका। कोई चीज उठी उठी हो रही थी, दबा दी गई।
होश रखो। जब कुछ बहना चाहे तो बहने दो। घबड़ाहट इतनी भी हो सकती है कि बहुत बार ऐसा लगे, किस झंझट में पड़ गए! छोड़े। इस उपद्रव से हट जाएं।
मजाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत न एक बार हुई
खयाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत तो बार—बार आया
और कई बार ऐसा आएगा, छोड़ो यह प्रेम की झंझट,यह प्रार्थना की झंझट।
खयाल—ए—तर्क—मुहब्बत तो बार—बार आया
बहुत बार खयाल आया कि प्रेम का त्याग ही कर दें,हालांकि यह हो नहीं सकता।
मजाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत न एक बार हुई लेकिन प्रेम का त्याग एक बार भी न हो सका। और फिर प्रेम जब प्रभु की तरफ बहता हो तब तो उसके त्याग का कोई उपाय नहीं है। आज ओंठ काट लोगे, कब तक काटते रहोगे?प्रभु और और जोर से आएगा। मेघ और घने होकर बरसेंगे। बाढ़ आएगी और बहा ले जाएगी। एक बार तुमने द्वार खोल दिया बाढ़ लिए तो बंद कर लेने का उपाय नहीं है।
और लोग पागल कहेंगे। कृष्णा, लोग कहेंगे कि बचो। इस स्थान से बचो। इस तरह के लोगों से बचो। मेरा नाम तक लेने में मित्रों को डर लगने लगता है। दूसरों से बात करते वक्त मेरा नाम नहीं लेते। यह सब भय छोड़ो। जो तुम्हें हुआ है उसे संक्रामक बनाओ। जो आंसू तुम्हें बह रहे हैं, औरों को भी बहे। और जो रोमांच तुम्हें हो रहा है, औरों को भी हो। जो उड़ान तुम्हारे भीतर भी जग रही है, वह औरों के भीतर भी जगे। जाओ! उन्हें पागल कहने दो लेकिन तुम अपने आनंद को बांटो। तुम अपने गीत को बांटो। सौ को बांटो तो शायद एकाध सुन लेगा। एक ने भी सुन लिया तो बहुत।
कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छुपाएं।
हमने तुम्हें चाहा है हजारों में कहेंगे
जाओ और कहो और पुकारो। और जब तुम्हारे भीतर कुछ होने लगे तो बांटना। क्योंकि बांटने से बढ़ता है। रोकना मत; रोकने से मरता है। रोकने से सड़ता है। कितने ही स्वच्छ जल की धार क्यों न हो…….।
कल मैं एक सूफी कहानी पढ़ता था। एक गरीब खानाबदोश तीर्थयात्रा से वापस लौट रहा था। रास्ते में उसे एक मरूद्यान में, भयंकर रेगिस्तान के बीच एक छोटे—से मरूद्यान में पानी का इतना मीठा झरना मिला कि उसने अपनी चमड़े की बोतल में जल भर लिया। सोचा, अपने सम्राट को भेंट करूंगा। इतना प्यारा, इतना स्वच्छ उसने जल देखा नहीं था। और इतनी मिठास थी उस जल में।
भर लिया अपनी चमड़े की बोतल में और पहला काम उसने यही किया, राजधानी पहुंचा तो जाकर राजा के द्वार पर दस्तक दी। कहा, कुछ भेंट लाया हूं सम्राट के लिए। बुलाया गया। उसने बड़ी तारीफ की उस झरने की और कहा, यह जल लाया हूं। इतना मीठा जल शायद ही आपने जीवन में पिया हो। सम्राट ने थोड़ा—सा जल लेकर पिया, खूब प्रसन्न हुआ,आनंदित हुआ। उस गरीब की झोली सोने की अशर्फियों से भर दी। उसे विदा किया।
दरबारियों ने भी कहा कि थोड़ा हम भी चखकर देखें। सम्राट ने कहा, रुको; पहले उसे जाने दो। जब वह चला गया तब सम्राट ने कहा, भूलकर मत पीना। बिल्कुल जहर हो गया है। लेकिन उस गरीब आदमी के प्रेम को देखो। जब उसने भरा होगा तो मीठा रहा होगा। लेकिन चमड़े की बोतल में, महीनों बीत गए उस जल को भरे हुए। वह बिल्कुल सड़ चुका है। जहरीला हो गया है। घातक भी हो सकता है। इसलिए मैंने एक ही घूंट पिया। और फिर मैंने बोतल सम्हालकर रख ली। उसके सामने मैं तुम्हें यह जल नहीं देना चाहता था क्योंकि मुझे भरोसा नहीं था तुममें इतनी समझ होगी कि तुम उसके सामने ही कह न दोगे कि यह जहर है। भूलकर भी इसे पीना मत।
स्वच्छ से स्वच्छ जल भी जब झरनों में नहीं बहता तो जहरीला हो जाता है। तुम्हारे आंसू अगर तुम्हारे आंख के झरनों से न बहे, तुम्हारे शरीर में जहर होकर रहेंगे। तुम्हारे रोएं अगर आनंद में नाचना चाहते थे, न नाचे तो तुम्हारे भीतर वही ऊर्जा जहर बन जाएगी।
इस जगत् में लोग इतने कडुवे क्यों हो गए हैं?इसीलिए हो गए हैं। इतना तिक्त स्वाद हो गया है लोगों में। शब्द बोलते हैं तो उनके शब्दों में जहर है। गीत भी गाएं तो उनके गीतों में गालियों की धुन होती है। सब जहरीला हो गया है। क्योंकि जीवन एक कला भूल गया है—बांटने की, देने की,लुटाने की। लुटाओ! ‘दोनों हाथ उलीचिए यही सज्जन को काम।
‘लोग पागल कहें, ठीक ही कहते हैं। बुरा न मानना। जो पागल कहे उसको भी बांटना। कौन जाने! तुम्हें पागल कहने में भी तुम्हारे प्रति उसका आकर्षण ही कारण हो। कौन जाने! तुम्हें पागल कहकर वह अपनी सिर्फ सुरक्षा कर रहा हो।
दूसरा प्रश्न :
प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है। अब तो आप कुछ करें।
जिंदगी जब अजाब होती है
आशिकी कामयाब होती है
जब जीवन इतनी पीड़ा से भर जाए कि तुम सह न सको, तभी प्रेम का फूल खिलता है।जिंदगी जब अजाब होती है—मुसीबत ही मुसीबत हो जाती है, विरह की अग्नि धूं— धूंकर जलती है। आशिकी कामयाब होती है— ‘तभी प्रेम सफल होता है। जल्दी पानी मत छिड़ककर आग को बुझा देना। यह आग ऐसी नहीं है कि बुझाओ, यह आग ऐसी है कि बढ़ाओ। यह आग ऐसी नहीं है कि जलधारा को पुकारो, यह आग ऐसी है कि कहो हवाओं से कि आओ। आधियो आओ,इस आग को और भड़काओ। यह आग ऐसी जले कि आग ही आग रह जाए और तुम न बचो।
तुम कहते हो, ‘प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है।’मैं जानता हूं। लेकिन जब तक तुम हो तब तक पीड़ा रहेगी। किसको असह्य है? अभी तुम थोड़े दूर खड़े हो इसलिए आंच लग रही है। जब तुम न बचोगे, फिर कैसे असह्य होगी?किसको असह्य होगी?
और यह पीड़ा ऐसी नहीं है कि बुझाई जा सके। लगाए लगती नहीं, बुझाए बुझती नहीं। न लगाए लगे, न बुझाए बुझे। कोई चेष्टा करके लगाना चाहे तो लगती नहीं और कोई चेष्टा करके बुझाना चाहे तो बुझती नहीं। तुम धन्यभागी हो। यह प्रभु का प्रसाद है। झुको। सिर आंखों पर लो। स्वीकार करो। तुम चुने गए। मैं जानता हूं, कहना भी मुश्किल है। कठिनाई ऐसी भी नहीं कि शब्दों में व्यक्त की जा सके।
गमे—हिज्र का या रब किस जब। से माजरा कहिए
न कहिए गर तो क्या कहिए, अगर कहिए तो क्या कहिए
कहते भी नहीं बन पड़ता। जबान लड़खड़ाती है। बड़े—बड़े ज्ञानी तुतलाते हैं। बड़े—बड़े ज्ञानी छोटे बच्चों जैसा बोलने लगते हैं। सूझ—बूझ खो जाती है।
असह्य मालूम होती है क्योंकि तुम अपने को बचाना चाह रहे हो। और जब तक तुम अपने को बचाना चाह रहे हो तब तक असह्य मालूम होगी। अब तो छलांग लगा जाओ इसमें। सती हो जाओ। उतर ही जाओ इस अग्नि में। और उतरकर तुम पाओगे, आग में खिला फूल कमल का। जल में खिलते कमल के फूल तो देखे हैं। आग में खिला कमल का फूल कब देखोगे? जल में खिले कमल के फूल क्षण भर को खिलते हैं, फिर मुरझा जाते हैं। मिट्टी से उठते हैं, मिट्टी में मुरझा जाते हैं; मृण्मय हैं। आग में जला फूल, आग में उठा फूल, लपटों से बना फूल शाश्वत है।
जब आग में ही जन्मा है तो अब कैसे मिटेगा? अब तो मिटने का कोई उपाय न रहा। अब तो इसे कौन मिटाएगा?कौन चिता इसे नष्ट कर सकेगी? अब तो यह अमृत है।
जब तक यह न हो जाए तब तक विरह की पीड़ा जितने आनंद से झेल सको उतना अच्छा है; क्योंकि उतने ही जल्दी रात कट जाएगी और सुबह होगी।
मुझमें और शमअ में होती थीं ये बातें शब भर
आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे
लंबी है विरह की रात्रि।
मुझमें और शमअ में होती थीं ये बातें शब भर
आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे
आज की रात बच जाएं तो सुबह देखने का मौका मिले। और यह रात लंबी है। लेकिन इस रात की लंबाई तुम पर निर्भर है। यह छोटी—सी हो सकती है। यह बहुत लंबी भी हो सकती है। यह जन्मों—जन्मों तक फैल सकती है अगर कुनकुनी—कुनकुनी हो। और अगर कुनकुनी न हो, त्वरा से जले, प्रचंड हो, एक क्षण में पूरी हो सकती है। अभी सुबह हो सकती है। यहीं सुबह हो सकती है। कल तो दूर, एक क्षण के लिए भी टालना आवश्यक नहीं। मगर फिर साहस चाहिए—जुआरी का साहस, जो सब दाव पर लगा दे। इकट्ठा दाव पर लगा दे।
कौन देता है साथ गम की रात का शमअ भी आखिर भड़ककर रह गई और आखिर में तो आदमी बिल्कुल अकेला रह जाता है। सब छूट जाते हैं—संगी और साथी, प्रियजन,अपने—पराए। सब छूट जाते हैं। और जैसे—जैसे संगी—साथी छूटने लगते हैं वैसे—वैसे प्रगाढ़ होने लगता है विरह। वैसे—वैसे भाला छिदने लगता है छाती में। वैसे—वैसे पीड़ा और गहरे जाने लगती है। जब तक आरपार ही न हो जाए यह तीर, तब तक कठिनाई रहेगी।
ऐसी तो प्रार्थना भूलकर मत करना कि यह तीर निकाल लो क्योंकि यही तीर तो एकमात्र आशा है। ऐसी प्रार्थना करना कि प्रभु, इसे पूरा ही उतर जाने दो। जल्दी करो। मुझे मिटा ही दो।
हाय ये मजबूइरयां, महरूमियां,नाकामियां
इश्क आखिर इश्क है, तुम क्या करो हम क्या करें
कोई भी कुछ कर न सकेगा। इसका कोई इलाज थोड़े ही है! तुम मुझसे पूछते हो: ‘प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है। अब तो आप कुछ करें।’इश्क आखिर इश्क है, तुम क्या करो,हम क्या करें कोई कुछ कर नहीं सकता। इलाज इसका होता नहीं। यह बीमारी बीमारी नहीं है, यह तो परम स्वास्थ्य की शुरुआत है। यह तुम्हें बीमारी जैसी लगती है क्योंकि तुमने इसे कभी जाना नहीं।
एक राजा रात भर नाच—गाने में रहा, जैसी उसकी रोज की आदत थी। डटकर शराब चली, जैसी उसकी रोज की आदत थी। फिर उसे नींद नहीं आ रही थी तो उठकर बगीचे में आ गया। ब्रह्ममुहूर्त…… पहली दफा जीवन में ब्रह्ममुहूर्त में उठा और बगीचे में आ गया। ठंडी और ताजी हवाएं। मलय—पवन सुवासित! उसने अपने पहरेदार को पूछा, यह बदबू कैसी? यह दुर्गंध कहां से आ रही है? अब जिनको शराब में ही सुगंध मालूम पड़ती रही हो, उनको अगर सुबह के मलय—समीर में दुर्गंध मालूम पड़े, तो आश्चर्य तो नहीं। उस पहरेदार ने कहा,मालिक, यह सुबह की ताजी हवा है। यह दुर्गंध नहीं है।
तुमने तो जीवन में अब तक जो जाना है वह बीमारी थी, रोग था। अब पहली बार स्वास्थ्य का अवतरण हो रहा है। तुम्हें तो डर लगेगा कि यह कौन—सी बीमारी चली आ रही है?अपरिचित, अनजान! और इसका कोई इलाज भी नहीं। कोई चिकित्सक कुछ भी न कर सकेगा।
नानक बीमार पड़े, चिकित्सक बुलाए गए। नानक की नाड़ी पर चिकित्सक ने हाथ रखा। नानक हंसने लगे। और नानक ने कहा कि देखो नाड़ी, तुम्हारे देखने की इच्छा है तो। और औषधि भी दोगे तो पी लूंगा। मगर यह बीमारी ऐसी है कि इसका कोई इलाज नहीं। तुम्हारे हाथ में नहीं।
घर के लोग परेशान थे क्योंकि नानक दुबले होते जाते। सोते भी नहीं, ठीक से भोजन भी नहीं करते। न मालूम कौन—सी धुन चढ़ी है! रात—रात बैठे रोते हैं। एक रात बहुत देर तक रोते रहे। मां ने कहा कि अब सो भी जाओ। रोने से सार क्या है? लेकिन नानक ने कहा कि जिद बंधी है एक किसी से। सुनती हो? दूर एक पपीहा कह रहा है: पी कहां? पी कहां? इससे जिद बंधी है, कि जब तक यह चुप न होगा, मैं भी चुप नहीं हो सकता। मैं भी अपने प्यारे को पुकार रहा हूं : पी कहां? और पपीहा नहीं हार रहा है तो मैं हार जाऊं! इस प्रतियोगिता में मैं हारनेवाला नहीं हूं; रहूं कि जाऊं।
पी कहां? प्यारे की खोज पर जो निकला है उसकी जिंदगी यहां तो अस्तव्यस्त होने लगेगी। इस अस्तव्यस्तता को लोग तो यही समझेंगे कि बीमारी है। तुम भी पहले यही समझोगे कि यह क्या हो गया? भले—चंगे थे, यह सब कैसे बिगड़ गया? मगर मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं, यह सुबह की खबर है। मलय—पवन आता है। तुम्हें थोड़े अनुभव से धीरे— धीरे सुवास का पता चलेगा।
और जल्दी भी मत करो। यह भी मत सोचो कि इतनी देर क्यों हो रही है? प्रतीक्षा प्रार्थना का प्राण है। और जो इंतजार में आनंदित नहीं है उसके इंतजार में कमी है और उसका इंतजार पूरा नहीं होगा।
तुझको पा लेने में यह बेताब कैफियत कहां
जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट गई
पानेवालों ने कहा है कि तुझे पाया, सब ठीक, मगर वह मजा नहीं जो तेरी खोज में था, तेरे इंतजार में था, तेरी प्रतीक्षा में था। वह ललक, वह पुलक! वे आकांक्षाओ—अभीप्साओ की लपटें।
तुझको पा लेने में यह बेताब कैफियत कहां
जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट गई
असली जिंदगी तो तब पता चलती है कि वे जो खोज के दिन थे, बड़े प्यारे थे। मंजिल तो प्यारी है ही, मगर यात्रा भी कुछ कम प्यारी नहीं; शायद ज्यादा ही प्यारी है। क्योंकि उसी यात्रा—पथ से तो हम मंजिल तक पहुंचते हैं।
जो मंजिल तक ले आती है उसको भी सौभाग्य की तरह स्वीकार करो। यही विरह की अग्नि, यही असह्य पीड़ा तुम्हें मंदिर तक ले आएगी। ये रास्ते के काटे… एक—एक काटा हजार—हजार फूल बनकर खिलेगा। ये रास्ते की मुसीबतें… एक—एक मुसीबत हजार—हजार अमृत के घट बनेगी।
चलते चलो। रोते चलो। पुकारते चलो। हारो मत।’हारिए न हिम्मत, बिसरिए न राम।’
तीसरा प्रश्न :
सिर्फ हमारे ही देश के नहीं, किसी भी देश के पुरखा ‘शेष प्रश्न’ का जवाब नहीं दे गए हैं। दे गए हों, ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि तब तो फिर सृष्टि ही रुक जाती है।
भगवान, विख्यात कथाकार शरदचंद्र चटोपाध्याय की इस उक्ति पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
मैत्रेय, एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं है; और तो सब प्रश्नों के उत्तर हैं। उस एक ही प्रश्न को शेषप्रश्न कहा जाता है। वह प्रश्न है परमात्मा के संबंध में या आत्मा के संबंध में या अस्तित्व के संबंध में। और ये तीनों एक ही बात के तीन नाम हैं।
अस्तित्व क्या है, क्यों है, इसका कोई उत्तर नहीं है। इसका उत्तर हो भी नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि आदमी ने खोजा नहीं है इसलिए उत्तर नहीं है। नहीं, उत्तर होने की संभावना ही नहीं है। उत्तर का न होना प्रश्न के स्वभाव का हिस्सा है। अगर कोई कारण बता भी दे कि अस्तित्व इसलिए है तो फिर प्रश्न खड़ा हो जाएगा। उस कारण के संबंध में कि वह कारण क्यों है? एक प्रश्न तो सदा शेष रहेगा ही।
कोई कह दे कि अस्तित्व को ईश्वर ने बनाया तो तुम पूछोगे, ईश्वर को किसने बनाया? अंतहीन श्रृंखला है। फिर तुम और ईश्वर खोजते चले जाओ। मगर अंततः प्रश्न तो खड़ा ही रहेगा। हर उत्तर के पीछे प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा रहेगा: इसको किसने बनाया?
इसे ही शरदचंद्र ने शेषप्रश्न कहा है। यह शेष ही रहेगा।
हम छोटी—छोटी बातों के उत्तर पा सकते हैं। खंडों के संबंध में उत्तर पा सकते हैं, समग्र के संबंध में उत्तर नहीं पा सकते क्योंकि हम भी उस समग्र के हिस्से हैं। हम उस समग्र के भीतर पैदा हुए और उसी समग्र में लीन हो जाएंगे। हम अपने को इतना पीछे खड़ा नहीं कर सकते कि समग्र हमारे बाद आए, ताकि हम देख सकें कि समग्र कहां से आया, कैसे आया! और न ही हम अपने को बचा सकते हैं, जब समग्र नष्ट हो रहा हो; कि हम दूर खड़े देखते रहें कि समग्र कैसे विलीन होता है! न तो हम पहले दिन हो सकते हैं इस यात्रा में, न अंतिम दिन हो सकते हैं। हम तो मध्य में आते हैं, मध्य में ही विलीन हो जाते हैं। तो हम कैसे उत्तर दे सकेंगे?
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जाना नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में भेद समझ लेना। उत्तर नहीं है,अनुभव है। यह तो नहीं जाना जा सकता कि परमात्मा क्यों है,लेकिन परमात्मा हुआ जा सकता है। और परमात्मा होने के लिए परमात्मा क्यों है, इस उत्तर को जानना जरूरी भी नहीं है।
सागर क्यों है—क्या सागर में डुबकी लगाने के लिए यह जानना जरूरी है? अनिवार्यता है? पानी क्यों है—क्या प्यास को बुझाने के लिए यह जानना जरूरी है? क्या तुम समझते हो, जब लोगों को पता नहीं था कि पानी एच०टू०ओ० से बनता है, तब तक प्यास नहीं बुझती थी? और अभी भी क्या पता चल गया? यह भी पता चल गया कि पानी आक्सीजन और उद्जन से मिलकर बनता है। अब सवाल यह है कि उद्जन कहां से, कैसे बनती है? यह भी पता चल गया कि उद्जन परमाणुओं से बनती है, कि इलेक्ट्रान, न्यूट्रान,पाजिट्रान से बनती है। वे कैसे बनते हैं, वे कहां से आते हैं?
प्रश्न तो खड़ा होता ही चला जाएगा। हर उत्तर के पीछे प्रश्नचिह्न खड़ा रहेगा। एक जगह जाकर हमें थक ही जाना होगा। इसको ही उपनिषदों ने अतिप्रश्न कहा है।
जनक ने एक बहुत बड़ा संयोजन किया, जिसमें देश के सारे पंडित आए विचार—विमर्श के लिए। उसने एक हजार गौएं, सुंदरतम गौएं महल के सामने खड़ी कर दीं। उनके सीगों पर सोना चढ़ा था, हीरे जड़े थे। और उसने कहा, जो भी जीत जाएगा इस विवाद में वही इन गौओं को ले जाएगा।
बहुत लोग आकांक्षी थे विजेता होने के, लेकिन मुश्किल थी विजय। क्योंकि देश पंडितों से भरा था। फिर याज्ञवल्ल आया अपने शिष्यों के साथ। दुपहर हो गई थी, धूप तेज थी, गौएं धूप में खड़ी थीं। याज्ञवल्ल अपने किस्म का अद्भुत आदमी था। उसने अपने शिष्यों से कहा कि खदेड़ो गौओं को और आश्रम ले जाओ। मेरे जैसा आदमी रहा होगा! खदेड़ो गौओं को, आश्रम ले जाओ— कोरेगांव पार्क ले जाओ सबको। पर शिष्यों ने कहा कि कोरेगांव पार्क ले जाएं? अभी आप जीते कहां हैं! उसने कहा, वह हम निपट लेंगे। लेकिन गौएं धूप में खड़े—खड़े थक गई हैं, पसीना—पसीना हो रही हैं। यह मेरी बर्दाश्त के बाहर है। तुम गौएं ले जाओ।
गौएं तो ले जायी गई। और पंडित तो चौंके रह गए। और ज्ञानी तो बड़े हतप्रभ हुए। शिकायत भी की उन्होंने जनक से कि यह तो बड़ा मजा हुआ। अभी विवाद शुरू भी नहीं हुआ है। लेकिन याज्ञवल्ल को अपने बोध का ऐसा भरोसा था। बोध था तो भरोसा था। बाकी पंडित ही पंडित थे वे। याज्ञवल्ल ज्ञानी था। जो जानता था, जानता था। इसमें हार का प्रश्न ही कहां था? और यह भी जानता था कि जो इकट्ठे हैं, तोते हैं।
विवाद हुआ और याज्ञवल्ल करीब—करीब जीत गया। और तभी एक स्त्री खड़ी हो गई—गार्गी। और उसने कहा, औरों के तो प्रश्न सब आपने उत्तर दे दिए, मेरे प्रश्नों के उत्तर भी चाहिए। उसने सरल—सा प्रश्न पूछा। ऊपर से दिखता सरल था लेकिन पीछे जटिल था। वह शेषप्रश्न था।
उसने पूछा कि ‘यह पृथ्वी किस चीज पर ठहरी है?
‘याज्ञवल्म ने कहा, ‘सब कुछ परमात्मा पर ठहरा है।
‘और गार्गी ने पूछा, ‘परमात्मा किस पर ठहरा है?
‘याज्ञवल्म ने कहा, ‘यह अतिप्रश्न है गार्गी।
‘अतिप्रश्न का क्या अर्थ होता है?
अतिप्रश्न का अर्थ होता है, शेषप्रश्न। उसी को शरदचंद्र शेषप्रश्न कहते हैं। याज्ञवल्ल ने कहा, यह अतिप्रश्न है गार्गी। अतिप्रश्न का अर्थ हुआ कि मैं जो भी उत्तर दूंगा, यह उस पर फिर लागू होगा।
यह प्रश्न नहीं है। इसे जानने का उपाय उत्तर नहीं है,इसे जानने का उपाय ध्यान है। मैं उत्तर नहीं दे सकता इसका। कोई उत्तर नहीं दे सकता इसका। कोई शास्त्र न कभी दिया है,न कभी देगा। लेकिन जो स्वयं में डुबकी लगाए वह जान लेता है। यह स्वाद की बात है। प्रश्न की दृष्टि से अतिप्रश्न है, अनुभव की दृष्टि से कोई अड़चन नहीं।
और आश्चर्य की बात तो यही है कि बुद्ध जिसको सोच—सोचकर थक जाए और न खोज पाए, हृदय एक छलांग में जान लेता है। विचार महत् चेष्टा के बाद भी हारता है और भाव बिना चेष्टा के पहुंच जाता है। प्रयत्न से हम और दूर निकलते जाते हैं। निष्प्रयत्न, अप्रयास, असहाय—और प्रसाद बरस जाता है।
चौथा प्रश्न :
मेरे जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं?
किसके जीवन में नहीं हैं?
अपने को ऐसा अलग— थलग मत तोड़ो। अपने को ऐसा विशिष्ट मत मानो कि तुम्हारे ही जीवन में कष्ट ही कष्ट हैं। सभी के जीवन में कष्ट हैं। जीवन कष्ट है।
और जीवन अगर कष्ट न होता तो परमात्मा की खोज ही क्यों होती? जीवन कष्ट है इसीलिए तो परमात्मा की खोज है। यह जीवन कष्ट है इसीलिए तो किसी और जीवन की तलाश है, जहां कष्ट न हों। आश्चर्य यह नहीं है कि जीवन में कष्ट क्यों हैं, आश्चर्य यह है कि इतने कष्ट हैं फिर भी लोग दूसरे जीवन को खोजने नहीं निकलते। सहे जाते हैं, कुटे जाते हैं,पिटे जाते हैं। सौ—सौ जूते खाएं, तमाशा घुसकर देखें। कुछ भी हो जाए, कितनी ही कुटाई—पिटाई हो, मगर वे तमाशा देखते ही चले जाते हैं। दूसरे उनका तमाशा देखते हैं, वे दूसरों का तमाशा देखते हैं। ऐसा पारस्परिक समझौता मालूम पड़ता है कि जब हम पिटे, तुम मजा ले लेना; जब तुम पिटो, हम मजा ले लेंगे। मगर यहां दुःख के अतिरिक्त और है क्या?
तो पहली तो बात, यह तो मत पूछो कि मेरे ही जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? तुम्हारे जीवन में कुछ विशेषता नहीं है। जीवन कष्ट है क्योंकि जीवन हम अंधेरे में जी रहे हैं।
कोई आदमी पूछे कि मैं हर जगह टकरा—टकरा क्यो जाता हूं? कभी टेबल से, कभी कुर्सी से, कभी दीवाल से। तो उसका मतलब हुआ कि कमरे में अंधेरा है। या फिर मतलब हुआ कि अंधेरा भी न हो, प्रकाश हो, तो तुम आंखें बंद किए हो। तुम्हारे लिए अंधेरा है। आंखें बंद हैं इसलिए टकराहट हो रही है। अंधेरा है इसलिए टकराहट हो रही है। आदमी अंधा है इसलिए अड़चन है।
एक झेन कथा : शिष्य गुरु से मिलकर वापस लौटता था। शिष्य अंधा था। सभी शिष्य अंधे होते हैं। अंधे न हों तो शिष्य होने की जरूरत क्या? गुरु आंखवाला, शिष्य अंधा। गुरु ने कहा, जा रहे हो तुम, रात भी हो गई है, यह लालटेन लेकर जाओ। उस अंधे शिष्य ने कहा, लालटेन का मैं क्या करूंगा?व्यर्थ का बोझ क्यों ढोऊं? मैं तो अंधा हूं। मुझे दिखाई पड़ता ही नहीं। लालटेन भी मेरे हाथ में हो तो क्या फायदा! मुझे तो दिन और रात सब बराबर हैं। लेकिन गुरु ने कहा, मेरी सुन, तू लालटेन ले जा। तुझे तो दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन कम से कम दूसरों को तो दिखाई पड़ता रहेगा कि तू लालटेन लिए आ रहा है। तो दूसरे तुझसे टकराने से बच जाएं यह भी क्या कम है?
यह तर्क ऐसा था कि शिष्य कुछ कह न सका। लालटेन लेकर चला, बेमन से ही चला। कोई सार नहीं, फिजूल लालटेन लटकाए चला जा रहा हूं। और एक वजन हो गया। अगर रोशनी न दिखाई पड़ती हो तो लालटेन एक वजन तो है ही। और कोई बीस—पच्चीस कदम ही चला होगा कि एक आदमी आकर उससे टकरा गया। उसने कहा, हद हो गई! एक तो वजन ढो रहा हूं और गुरु ने कहा था वह तर्क भी खंडित हो गया। गुरु ने कहा था कि कम—से—कम दूसरे तुमसे न टकरायेंगे।
क्रोध से उस शिष्य ने पूछा कि महानुभाव, क्या आप भी अंधे हैं? उस आदमी ने कहा, मैं तो अंधा नहीं हूं लेकिन आपकी लालटेन बुझ गई है। अब अंधे आदमी को कैसे पता चले कि उसकी लालटेन बुझ गई है?तुम्हें बहुत बार दीये दिए गए हैं। उपनिषदों ने दिए, वेदों ने दिए, कुरान ने दिए धम्मपद ने दिए।
तुम्हें बहुत बार दीये दिए गए हैं लेकिन वे कभी के बुझ गए हैं। तुम नाहक बुझी लालटेन ढो रहे हो। बोझ भी भारी हो गया है। सदियों का कूड़ा—कबाड़ भी उन पर जम गया है। मगर तुम ढो रहे हो—मदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा। अपने को चलाना मुश्किल है और इन सबको भी चला रहे हो। और हर जगह टकरा रहे हो। जगह—जगह टक्कर! फिर किसी तरह उठाकर अपना सामान बटोरकर फिर चल पड़ते हो।
जीवन में कष्ट न होगा तो और क्या होगा? रोशनी चाहिए। आंख खुली चाहिए। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं रोशनी तो है ही, सिर्फ आंख खोलो। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ तुम्हें आंख बंद करने की आदत पड़ी है। और आंख भी तुम इसलिए बंद किए हो कि आंख बंद करो तो भीतर सुंदर सपने देखने में मजा आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात सपना देखा कि कोई चमत्कारी पुरुष सामने खड़ा है और कहता है, मांग ले भाई। ले, यह एक रुपया ले ले। मुल्ला ने कहा, एक? एक से राजी नहीं होऊंगा। कम से कम सौ। जब मांग ही रहे हैं और जब आप दे ही रहे हैं, और बड़े दिलदार बने हैं तो कम से कम सौ। मगर वह भी आदमी एक ही था। उसने कहा, दो ले ले, तीन ले ले…… ऐसी बड़ी घिसा—पिसी हुई। निन्यानवे पर जाकर बात अटक गई। वह आदमी भी जिद पकड़ गया कि निन्यानवे से एक ज्यादा नहीं। क्योंकि सपने का चक्कर निन्यानवे का चक्कर है। वह भी अटक गया। उसने कहा, निन्यानबे से ज्यादा तो दे ही नहीं सकता। कोई सपना निन्यानवे से ज्यादा नहीं देता। तभी तो सपना जारी रहता है। अगर सौ ही दे दे,सपना ही खतम हो जाए। बात ही पूरी हो गई। निपटारा ही हो गया।
उस आदमी ने भी जिद पकड़ ली कि बस निन्यानवे से एक रत्ती ज्यादा नहीं। लेना हो, ले ले। मगर मुल्ला भी जिद्दी जैसे सभी आदमी जिद्दी होते हैं। मुल्ला ने कहा, मैं तो सौ ही लूंगा। अब हद हो गई तुम्हारी भी कंजूसी की। जब निन्यानवे तक देने को राजी हो गए तो एक रुपए में क्या बिगड़ा जा रहा है? एक रुपटली के पीछे क्यों झंझट कर रहे हो? दे ही दो।
बात इतनी बढ़ गई, जोर—शोर इतना बढ़ गया कि मुल्ला कहे कि सौ और वह आदमी कहे, निन्यानवे। मुल्ला ने इतने जोर से कहा सौ, कि नींद टूट गई। नींद टूट गई तो देखा,कोई नहीं है। पत्नी पास बैठी देख रही है। क्योंकि पत्नियां रात को देखती हैं बैठकर कि पति क्या—क्या कह रहा है। कोई कमला, विमला इत्यादि के नाम तो नहीं ले रहा है। जब इतने जोर—जोर से बात कर रहा है तो कुछ मतलब की बात हो रही है। और संख्या की बात चल रही थी तो वह भी जरा उत्सुक थी। वह भी हिसाब लगाने लगी कि अगर मिल ही जाए इसको निन्यानवे या सौ या जितना भी हो, तो वह जो हार देखा है बाजार में, वह फिर खरीद ही लिया जाए। वह भी नए सपनों में डूबी जा रही थी।
मुल्ला ने आंख खोली, देखा पत्नी बैठी है—वैसे ही घबड़ा गया। और पास के जाने की नौबत आयी जा रही है। मिलना तो दूर रहा। जल्दी से आंख बंद कर ली और बोला,भाई कहां हो? चलो निन्यानवे ही सही। मगर अब इतनी देर तो बहुत देर हो गई। एक दफा आंख खुल गई तो सपने तो नष्ट हो जाते हैं। वह आदमी का पता ही नहीं चला। फिर बहुत उसने आंखें बंद कीं बार—बार और कहा, अट्ठानवे, सत्तानवे,छियानवे… उल्टा लौटने लगा। एक रुपए पर भी वापस आ गया कि चलो, कुछ तो दो।
मगर एक बार आंख खुल गई तो सपना गया। फिर कोई उपाय नहीं। वह आदमी दिखाई ही न पड़े। आखिर मुल्ला अपनी पत्नी से बोला, जरा मेरा चश्मा उठाकर ला। रात भी है,अंधेरा भी, और सज्जन दिखाई भी नहीं पड़ते हैं। लेकिन तुम फिर चश्मे भी लगाओ, तो भी कुछ सार नहीं।
आदमी अंधा नहीं है, सिर्फ आंखें बंद किए है। आंखें बंद करने के पीछे एक न्यस्त स्वार्थ है कि सुंदर—सुंदर सपने देख रहा है। यह भवन बना लें, यह अटारी उठा लें, यह हवेली। ऐसी धन की राशि जोड़ दें। कैसे निन्यानवे सौ हो जाएं, सबकी यही तो मांग है। और निन्यानवे कभी सौ होते नहीं। तनाव जारी रहता है। सपना भरता नहीं। आंख खोलने की हिम्मत नहीं होती किछकहीं आंख खोलूं तो जो हाथ में है वह भी न छिटक जाए।
इसलिए जीवन में कष्ट है। और सबके जीवन में कष्ट है। और एकाध कष्ट नहीं, कष्ट ही कष्ट है। इसीलिए तो लोगों की बात सुनो। बैठे हैं लोग अपना—अपना कष्ट—पुराण लिए। एक—दूसरे को सुना रहे हैं। सुनो कष्ट—पुराण।
एक कष्ट से उपजैं तीन
चौथा कष्ट किए गमगीन
कष्ट एक और है
पहला कष्ट है कि पढे—लिखे
फिक्र खर्च की रही नहीं
पढने में जो खर्च किया
उतने की नौकरी नहीं
दूजा कष्ट नौकरी है
कष्टों से यह भरी है
इसके कष्ट वर्णनातीत
जिसने जाने जिसने करी है
सब जिसका अनुभव करते
कष्ट तीसरा ऐसा है
आते—जाते दुखी करे
सब जानें वह पैसा है
चौथा कष्ट पड़ोसी है
सदा सामने रहता है
हम तो दुख से रह लेते है
वह सुख से क्यों रहता है?
कष्ट एक और है
कष्ट कि रुपया ज्यादा है
आया आफत का मारा
खर्च नहीं कर सकते हम
काला सारा का सारा
कष्ट दूसरा सुविधाएं
सब कुछ मेरे पास है
करने को कुछ नहीं बचा
कष्ट यही अहसास है
कष्ट तीसरा शाम है
रोज—रोज आ जाती है
कैसे इसे बिताएं हम
रोज समस्या आती है
चौथा कष्ट एकरसता
हो आदमी या कि मौसम
कुछ भी नहीं बदलता है
सब न समझ पाएं यह गम
कष्ट एक और है
कष्ट बहुत कुछ करना है
करने दिया न जाता है
निर्णय किसी और का है
बंदा हुकुम बजाता है
कष्ट दूसरा है माखन
मिलता है यह सभी कही
जो उपयोग जानता है
हारेगा वह कभी नहीं
भाषण कष्ट तीसरा है
सुनना जिसे जरूरी है
कह देना कुछ, करना कुछ
छूट यहां पर पूरी है
चौथा कष्ट बड़ा भारी
सहने की है लाचारी
पैदा हुए बाद में हम
उनका पलड़ा है भारी
कष्ट एक और है……
—लेकिन कोई अंत नहीं है। अगर कष्टों की बात करने बैठो तो पुराण शुरू तो हो सकता है लेकिन अंत नहीं होता। और तुम कहते हो कि मेरे जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? सबके जीवन में हैं। लोगों की बातें सुनो, एक—दूसरे को कष्ट सुनाते हैं। कष्टों की ही बात चलती रहती है। कौन कितनी मुसीबत में है! सभी मुसीबत में हैं।
तो जरूर कहीं मौलिक कुछ भूल हो रही है, कहीं कुछ ऐसी बुनियादी भूल हो रही है जो सभी से हो रही है। सभी मूर्च्छित हैं। मूर्च्छा दुःख है और जागृति आनंद है। जागो। चैतन्य को उभासे। सोयी आंखें खोलो।
बुद्धों की सुनो। वे तो कहते हैं, जीवन में सच्चिदानंद है और तुम कहते हो, कष्ट ही कष्ट हैं। तो जरूर वे किसी और जीवन की बात कर रहे हैं, तुम किसी और जीवन की बात कर रहे हो। मैं भी तुमसे कहता हूं, आ नंद के अतिरिक्त जीवन में और कुछ भी नहीं है। जीवन बना ही आनंद की ईंटों से है।
लेकिन तुम कहते हो कष्ट ही कष्ट हैं। जरूर तुम्हारे देखने में कहीं कुछ भूल हो रही है, चूक हो रही है। तुम अंधे हो, आंख बंद किए हो। अंधेरे में टटोलते हो, टकरा—टकरा जाते हो। अंधेरे में कुछ का कुछ समझ लेते हो। फिर टकराओगे न तो क्या होगा?मैंने सुना है एक आदमी रात शराबघर गया। वहां लोग जाते ही इसीलिए हैं कि किसी तरह कष्टों को भूल जाएं। थोड़ी देर के लिए ही सही, नशे में डूब जाएं। खुद डूबेंगे तो कष्ट भी डूब जाएंगे। थोड़ी देर को ही सही, राहत तो मिलेगी। खूब पिया उसने, डटकर पिया उसने।
जब घर से चला था तो खयाल करके चला था कि लौटते वक्त अंधेरा हो जाएगा। रात है अंधेरी, अमावस, तो लालटेन साथ ले गया था। लेकिन खूब डटकर पी गया। चारों खाने चित्त पड़ा था। अब अपनी लालटेन टटोल रहा है। किसी का पैर हाथ में आ जाए, कुर्सी का पाया हाथ में आ जाए,टेबल का पाया हाथ में आए, लालटेन का पता न चले। फिर लालटेन मिल गई। ली लालटेन और चल पड़ा। बाहर निकला ही था, एक भैंस से टकरा गया। फिर एक नाली में गिर पड़ा। फिर एक ट्रक ने धक्का मार दिया। सुबह जब पाया गया तो एक नाली में पड़ा था। उसे उठाकर घर पहुंचाया गया।
दुपहर को शराबघर का मालिक आया और उसने कहा महानुभाव, यह आपकी लालटेन लो। उस आदमी ने कहा, अरे! क्या लालटेन मैं आपके यहां ही भूल आया? मैं तो लेकर चला था। उस शराबघर के मालिक ने कहा, आप जरूर लेकर चले थे, वह मेरे तोते का पिंजरा है। मेरा तोता मुझे वापस करो। यह लालटेन अपनी सम्हालो।
बेहोश आदमी लालटेनों की जगह तोतों के पिंजरे लेकर चले जाते हैं। फिर भैंसों से टकराते हैं। फिर ट्रक का धक्का लग गया, फिर नाली में पड़े। और फिर तुम पूछते हो,जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? जरा गौर से देखो, तुम्हारे हाथ में तोतों के पिंजरे हैं, लालटेन नहीं। तुम खुद ही तोते हो गए हो। तुम खुद ही तोते हो जो पिंजरे में बंद हैं। तुम सिर्फ दोहरा रहे हो—कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबल।
यह दोहराना बंद करो। इस दोहराने से रोशनी नहीं होगी। दीये की बातें करने से दीये नहीं जलते, दीये जलाने पड़ेंगे। ज्योति अपने भीतर उठानी पड़ेगी। और जब तुम्हारे भीतर ज्योति होगी और चारों तरफ प्रकाश पड़ेगा, तुम्हारे कष्ट ऐसे ही तिरोहित हो जाएंगे जैसे कि अंधकार तिरोहित हो जाता है।
जीवन में कष्ट है यह इस बात का सबूत है कि तुम्हारे जीवन में ध्यान का दीया नहीं है। तुम्हारे जीवन में प्रार्थना और प्रेम नहीं है और प्रकाश नहीं है और परमात्मा नहीं है। कष्टों से इंगित लो, इशारा लो, समझो कुछ। कष्ट इतना ही कह रहे हैं: तुम भटक गए हो, राह पर आओ।
मेरे देखे दुःख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म से दूर हट गए हैं। सुख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म से दूर हट गए हैं। सुख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म के पास आ गए हैं। और आनंद लक्षण है कि हम जीवन के धर्म के साथ एकरूप हो गए हैं।
पांचवां प्रश्न : मैं संसार की कीचड़ से मुक्त होना चाहता हूं लेकिन आप तो उसे पलायन कहते हैं। मैं क्या करूं?संसार को कीचड़ कहोगे, वहीं से चूक शुरू हो गई। संसार में खिले कमल तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते? बुद्ध कहां खिले?महावीर कहां खिले? कबीर कहां खिले? ये जो जगजीवन के सूत्रों पर हम विचार कर रहे हैं, ये सूत्र कहां जन्मे? यह जगजीवन का गीत कहां उठा? इसी संसार में। इसी कीचड़ में।
तो कीचड़ को सिर्फ कीचड़ ही मत कहो, इसमें कमल भी होते हैं। कीचड़ कमल की जननी है। सम्मान करो। कीचड़ के बिना कमल कहां? कीचड़ को छोड्कर भाग जाओगे तो फिर कमल कैसे पैदा होगा? कीचड़ का उपयोग करो। कमल कीचड़ की संभावना है। कमल कीचड़ में दबा पड़ा है। खोजो। तलाशो। मिलेगा। मिला है, तुम्हें भी मिलेगा। भागकर कहां जाओगे? और कीचड़ से भाग गए तो कमल से भी भाग गए;याद रखना। सूखोगे, लेकिन जीवन में सुगंध कभी न उठेगी।
इसलिए मैं कहता हूं संसार से भागना भगोड़ाफन है,फलायन है। संसार का उपयोग करो। संसार एक अवसर है—एक महान अवसर। एक चुनौती, जहां प्रतिपल तुम्हें जगाने के लिए कितना आयोजन परमात्मा करता है। किसी के मुंह से गाली आ जाती है तुम्हारे लिए। अगर तुम समझदार हो तो गाली जगाएगी। कोई निंदा कर गया तो निंदा जगाएगी। किसी से टक्कर हो गई तो टक्कर जगाएगी। क्रोध आया, क्रोध से जलन हुई, भीतर घाव बने, छाले उठे तो क्रोध जगाएगा। करुणा उठी, रस बहा तो करुणा जगाएगी। प्रेम उफजेगा,प्रार्थना बनी तो प्रार्थना जगाएगी। यहां दुःख भी जगाएगा, सुख भी जगाएगा। और संसार सुख—दुःख की कीचड़ है। लेकिन इसी सुख—दुःख की कीचड़ में, इसी सुख—दुःख के तनाव में कमल के अपूर्व फूल भी खिलते हैं।
सोख लिया है ग्रीष्म ने सरोवर के जल को किया है कीचड़ और दलदल में घुटनों तक गड़ा हुआ खड़ा मैं भागूंगा नहीं इस सरोवर को छोड़कर कीचड में झरे हुए