Kabir Ke Shabd |
कबीर के शब्द
कांसी जी के बासी रे सत्तगुरु, कांसी जी हम बासी।
जात जुलाहा नाम कबीरा, जग में रहें उदासी।।
पांच पचीसों वश में कीन्हा, कीन्हा महल में वासी।
मान बड़ाई तजो ईर्ष्या, तब फेटे अविनासी।।
हिन्दू तुर्क दोनों से न्यारो, कर्म भर्म कियो नासी।
मुक्त खेत तज गए मगहर को, ऐसे दृढ़ विश्वासी।।
धरती गड़ा ना अग्नि जला ना, पड़ा ना यम की फांसी।
सीधे ही सत्तलोक सिधारे, पहुंचे सुन्न आकाशी।।
सुर नर मुनिजन पीर ओलिया, जन्में मरें सन्यासी।
धर्मराज कोए बिरला पहुंचे, होता मन अविनाशी।।