कल संध्या मनुष्य के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कही। मैंने कहा कि मनुष्य एक यंत्र है, लेकिन इसका हमें कोई स्मरण नहीं है। मनुष्य का जीवन एक जाग्रत जीवन नहीं है, बल्कि सोया हुआ जीवन है, इसका भी हमें कोई स्मरण नहीं है। इस संबंध में कुछ प्रश्न पूछे गए हैं, उनकी मैं पहले चर्चा करूंगा, फिर कुछ और दूसरे प्रश्न हैं, उनकी आपसे बात करूंगा।
यह पूछा गया हैः मैं मनुष्य को यंत्र क्यों कह रहा हूं?
एक छोटी सी कहानी से आपको यह समझाना चाहूंगा।
एक सुबह एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। उन्होंने उस गांव के लोगों को समझाना शुरू किया; सामने ही एक व्यक्ति बैठ कर अपने पैर का अंगूठा हिलाए जा रहा था, बुद्ध ने बोलना बंद करके उस व्यक्ति को कहाः मेरे मित्र, तुम्हारा अंगूठा क्यों हिलता है? तुम्हारा यह पैर क्यों हिलता है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, यह पूछा कि तुम्हारा पैर क्यों हिलता है, उसके पैर का हिलना बंद हो गया। और उस व्यक्ति ने कहा, जहां तक मेरा सवाल है, मुझे इसका स्मरण भी नहीं था कि मेरा पैर हिल रहा है! आपने कहा, मुझे स्मरण आया और मेरा पैर रुक गया।
मुझे खयाल भी नहीं था, बोध भी नहीं था कि मेरा पैर हिल रहा है। बुद्ध ने कहा, तुम्हारा पैर है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं? तो तुम आदमी हो या यंत्र हो?
यंत्र हम उसे कहते हैं, जिसे अपनी गति का कोई बोध नहीं है। यंत्र हम उसे कहते हैं, जिसे अपनी गति का कोई बोध नहीं है। उसमें गति हो रही है, लेकिन उसे कुछ पता नहीं है। उसे कोई होश नहीं है, उस गति का। मनुष्य को मैंने यंत्र कहा इसलिए कि जो कुछ हममें हो रहा है न तो हमें उसका पता है कि वह क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, और न ही हम उसके मालिक हैं कि हम चाहें तो वह हो, और हम चाहें तो वह न हो। कोई भी यंत्र अपना मालिक नहीं होता। आदमी भी अपना मालिक नहीं है। इसलिए उसे मैंने यंत्र कहा। आपके भीतर जब भय पैदा होता है, फीयर पैदा होता है, तब आप उसे पैदा करते हैं? या कि आप उसके मालिक होते हैं? या कि आप चाहें तो उसे पैदा न होने दें? या जब आप चाहें तब भय को पैदा कर लें? कुछ भी आपके हाथ में नहीं है। आप अपने ही हाथ में नहीं हैं। कितनी बार नहीं ऐसा मौका आता है कि हम कहते हैं, मेरे बावजूद यह हो गया, इंस्पाइट ऑफ मी। कितनी बार नहीं हम यह कहते हैं कि मैं तो नहीं चाहता था, फिर भी यह हो गया। अगर आप ही नहीं चाहते थे और आपके भीतर कुछ हो जाता है, इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ आप अपने मालिक नहीं हैं। कोई यंत्र अपना मालिक नहीं होता। लेकिन मनुष्य तो अपना मालिक होगा। उसके जीवन में, उसके विचार में, उसके भाव में, वह स्वामी होगा, उसका अधिकार होगा। और यह स्वामित्व, यह मालकियत तभी उपलब्ध हो सकती है, जब उसे अपने जीवन की सारी क्रियाओं का बोध हो, अवेयरनेस हो। वह उसे जानता हो, पहचानता हो। न तो हम पहचानते हैं और न हम मालिक हैं।
एक गांव में एक महिला ने उस गांव में आए हुए एक फकीर के पास अपने बच्चे को ले जाकर मौजूद किया और उस फकीर को कहा कि मेरा यह बच्चा रोज-रोज बिगड़ता जाता है। इसने सारी शिष्टता और सभ्यता छोड़ दी है, इसने सारे नियम तोड़ दिए हैं, हमारे परिवार के। इसे थोड़ा आप भयभीत कर दें, डरा दें, शायद ये ठीक हो जाए। उस फकीर ने इतनी बात सुनी, उसने जोर से आंखें निकाली, हाथ-पैर हिलाए और वह कूद के उस बच्चे के सामने खड़ा हो गया, जैसे उसकी जान ले लेगा। वह बच्चा तो इतना घबड़ा गया कि वह भागा। लेकिन फकीर कूदता ही गया और इतने जोर से चिल्लाया कि बच्चा तो भाग गया, उसकी मां बेहोश होकर गिर पड़ी। और जब उसकी मां बेहोश होकर गिर पड़ी, तो वह फकीर भी निकल भागा। थोड़ी देर बाद जब उस स्त्री को होश आया, तो उसने बैठ कर प्रतीक्षा की कि वह फकीर आ जाए, थोड़ी देर बाद वह फकीर भीतर लौटा। उस स्त्री ने कहा आपने तो हद कर दी, मैंने बच्चे को डराने को कहा था, मुझे डराने को नहीं कहा था।
वह फकीर बोला तू पूछती है, तेरी; माना कि तूने बच्चे को डराने को कहा था, लेकिन जब बच्चे को मैंने डराया, तो मुझे खयाल भी न था, कि तू भी डर जाएगी। तू क्यों डर गई? और जब तू डर गई, और तू बेहोश हो गई, तो मुझे पता भी नहीं था कि मैं भी डर जाऊंगा? तुझे बेहोश देख कर मैं भी डर गया और भाग गया। जब भय ने पकड़ा तो उसने बच्चे को ही नहीं पकड़ा, तुझे भी पकड़ लिया और मुझे भी पकड़ लिया। उस फकीर ने कहा सच्चाई यह है कि मुझमें भी चीजें घटित होती हैं, मैं भी उनका मालिक नहीं हूं, तू भी उनकी मालिक नहीं है, बच्चा भी उनका मालिक नहीं है। भय ने पकड़ लिया, उस पर हमारी कोई मालकियत न रही। और जब तू भी भयभीत हो गई तो मुझे भी खयाल न रहा कि यह क्या हो रहा है? मैं भी घबड़ा गया और मैं भी भयभीत हो गया और भाग गया।
जीवन में हमारे भय, क्रोध, घृणा, हिंसा, प्रेम वे सब घटित हो रहे हैं, उन पर हमारा कोई काबू नहीं है। उनके प्रति काबू होना दूर हमें कोई होश भी नहीं है कि क्या हो रहा है? इसलिए मैंने कहा कि मनुष्य एक यंत्र है। लेकिन यह इसलिए नहीं कहा कि मनुष्य एक यंत्र है, तो बात समाप्त हो जाए, यहां बात समाप्त नहीं होती, यहीं बात शुरू होती है। मनुष्य यंत्र है, यह इसीलिए कह रहा हूं आपसे, किसी मशीन से जाकर यह नहीं कहता हूं कि मशीन! तुम मशीन हो। किसी यंत्र से भी जाकर नहीं कहता हूं कि यंत्र! तुम यंत्र हो। मनुष्य से यह कहा जा सकता है कि तुम यंत्र हो। क्योंकि मनुष्य यदि इस सत्य को समझ ले, तो यंत्र होने के ऊपर भी उठ सकता है। मनुष्य के भीतर यह संभावना है कि वह एक सचेतन आत्मा और व्यक्तित्व बन जाए। लेकिन यह एक संभावना है, यह एक सच्चाई नहीं है। यह हो सकता है, लेकिन यह है नहीं। एक बीज की यह संभावना होती है कि वह वृक्ष बन जाए, लेकिन बीज वृक्ष नहीं है। और अगर कोई बीज भूल से यह समझ ले कि मैं वृक्ष हूं तो फिर वह कभी वृक्ष नहीं बन सकेगा, उसकी संभावना भी समाप्त हो जाएगी। एक बीज को यह जानना ही चाहिए कि मैं बीज हूं, और वृक्ष नहीं। और इस बात को जानने के साथ ही, इस संभावना के द्वार भी खुल सकते हैं कि वह वृक्ष हो जाए।
मनुष्य एक बीज है, चेतना के लिए लेकिन अभी चेतना नहीं। अभी तो यंत्र है। और अगर इस सारी स्थिति को ठीक से समझ ले, यह अपनी सिचुएशन, यह उसकी चित्त की पूरी दशा, अगर उसे पूरी-पूरी स्पष्ट हो जाए तो इसी के स्पष्ट होने के साथ-साथ उसके भीतर कोई शक्ति जागने लगेगी, जो उसे मनुष्य बना सकती है। मनुष्य, मनुष्य की भांति पैदा नहीं होता, एक बीज की भांति पैदा होता है। उसके भीतर से मनुष्य का जन्म हो सकता है। लेकिन कोई भी मनुष्य, मनुष्य की भांति जन्मता नहीं है। और अधिक लोग इस भूल में पड़ जाते हैं कि वे मनुष्य हैं, और यही भूल उनके जीवन को नष्ट कर देती है।
जन्म के साथ हम एक पोटेंशियलिटी की तरह, एक बीज की तरह पैदा होते हैं, लेकिन हम उसी को समझ लेते हैं कि हमारा होना समाप्त हो गया, तो हम वहीं ठहर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जो जन्म के ऊपर उठते हों, और जन्म का अतिक्रमण करते हों। जन्म पर ही रुक जाते हैं। जन्म के बाद फिर उनमें कोई विकास नहीं होता। हां, यंत्र की कुशलता बढ़ जाती है, लेकिन यांत्रिकता के ऊपर उठने का कोई, कोई चरण, कोई कदम नहीं उठाया जाता। और वह कदम उठाया भी नहीं जा सकता, जब तक हमें यह खयाल ही पैदा न हो कि हम क्या हैं? इसलिए पहली बात जो मैंने कल आपसे कहनी चाही वह यही कि मनुष्य यदि यह अनुभव कर ले कि वह एक यंत्र है, तो वह मार्ग स्पष्ट हो सकता है, जिसकी यात्रा करने के बाद वह यंत्र न रह जाए। लेकिन हमारे अहंकार को इस बात से बड़ी चोट लगती है कि कोई हमसे कहे कि हम एक यंत्र हैं। मनुष्य के अहंकार को इससे बड़ी चोट लगती है कोई उससे कहेे कि तुम एक मशीन हो।
मनुष्य को तो इस बात के सुनने में बहुत मजा आता है कि तुम एक परमात्मा हो। तुम्हारे भीतर भगवान वास कर रहा है, इस बात को सुनने में उसे बहुत मजा आता है, इसलिए वह मंदिरों में, मस्जिदों में इकट्ठा होता है, और उन लोगों के पैर पड़ता है, जो उसे समझाते हैं कि तुम तो स्वयं भगवान हो। उसे यह बात सुनकर बड़ा आनंद मालूम होता है कि मैं भगवान हूं। उससे कोई यह कहे कि तुम एक मशीन हो तो उसे बड़ी चोट लगती है, लेकिन कोई उससे कहे कि तुम एक भगवान हो, तो उसे बहुत आनंद मिलता है, उसके अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। उसके ईगो को बड़ा सहारा मिलता है कि मैं भगवान हूं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं इस सत्य को बहुत ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जैसे हम हैं, वैसे हम भगवान तो बहुत दूर, मनुष्य भी नहीं हैं। जैसे हम हैं, भगवान होना तो बहुत दूर, हम मनुष्य भी नहीं हैं। हम बिलकुल मशीनों की भांति हैं। हमारा सारा जीवन इस बात की कथा है। हमारे पूरे पांच-छह हजार वर्ष का इतिहास इस बात की कथा है कि हम एक मशीन की भांति जी रहे हैं।
जो भूल मैंने कल की थी, वही भूल मैं आज भी कर रहा हूं। जो भूल मैंने दस साल पहले की थी, वही भूल मैं दस साल बाद भी करूंगा। अगर एक आदमी आपके दरवाजे से निकलता हो, रोज एक ही गड्ढे में आकर गिर जाता हो, तो एक दिन आप क्षमा कर देंगे कि भूल हो गई, दूसरे दिन वह आदमी फिर आए और उसी गड्ढे में गिर जाए, तो शायद आप को भी संकोच होगा यह कहने में कि यह भूल हो रही है। लेकिन अगर वह तीसरे दिन भी उसी गड्ढे में गिर जाए, चैथे दिन भी, और वर्ष-वर्ष बीतते जाएं और रोज उसी गड्ढे में आकर वह आदमी गिरे, तो आप क्या कहेंगे? आप कहेंगे यह आदमी तो नहीं मालूम होता, कोई मशीन मालूम होती है; जो ठीक गड्ढे में रोज गिर जाती है, और उसी गड्ढे में; उसी भूल से रोज गुजरती है; और फिर भी इसके जीवन में कोई क्रांति नहीं होती, कोई परिवर्तन नहीं होता। जिस क्रोध को हमने हजार बार किया है, और हजार बार दुखी हुए हैं, और पछताएं हैं, वही हम आज भी कर रहे हैं।
भूल वही है, हम रोज उसे दोहरा रहे हैं। जिस घृणा से हम पीड़ित हुए हैं, उसे हमने बार-बार किया है, आज भी कर रहे हैं। जिस अहंकार ने हमें जलाया है, जिसने हमें चोट पहुंचाई है, उसको हम आज भी पकड़े हुए हैं। हर आदमी नई-नई भूलें थोड़े करता है, और न ही एक आदमी रोज नई भूलें ईजाद करता है, थोड़ी सी भूलें हैं, जिन्हें रोज दोहराता है। और रोज पछताता है। रोज निर्णय करता है कि नहीं, अब यह नहीं करूंगा। लेकिन उसके अगर हाथ में होता न करना तो उसने बहुत पहले करना बंद कर दिया होता। फिर उसे ही करता है, फिर पछताता है, फिर करता है, फिर पछताता है; कोई भी फर्क उसके जीवन में होता नहीं है। क्या बताती है यह बात? यह बताती है कि मनुष्य एक यंत्र है। अहंकार को इससे चोट लगती है। चोट लगेगी भी, क्योंकि जिसका अहंकार नहीं टूटता वह कभी यंत्र होने के ऊपर नहीं उठ सकता है। उसकी तो बात मैं कल रात्रि करूंगा। अभी तो मैं इतना कहना चाहता हूं कि इन कारणों से मैंने कहा कि मनुष्य एक यंत्र है।
और अगर आप सोचेंगे, खोजेंगे, निरीक्षण करेंगे, थोड़ा अपने जीवन पर विचार करेंगे, तो आपको कठिनाई नहीं होगी इस बात को तय कर लेने में कि आपने जो व्यवहार किया है, वह एक मशीन का व्यवहार है, वह एक आदमी का व्यवहार नहीं है। और अगर यह स्पष्ट हो जाए बहुत कि मैं एक मशीन की भांति जीता रहा हूं, तो जिसे यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि मैं एक मशीन की भांति जी रहा हूं, उसके जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाएगी। किसी बीमारी को ठीक से पहचान लेना, उससे आधा मुक्त हो जाना है। किसी बीमारी का ठीक-ठीक निदान आधा इलाज है। अगर यह समझ में आ जाए कि मैं एक यंत्र हूं, तो हमारे बहुत से भ्रम टूट जाएंगे, हमारे बहुत से अहंकार टूट जाएंगे, हमारा बहुत सा अभिमान टूट जाएगा। और शायद इस अहसास के बाद हमारे भीतर किसी क्रांति की शुरुआत हो सके! मनुष्य परमात्मा हो सकता है, लेकिन है तो मशीन। बीज वृक्ष हो सकता है, लेकिन अभी वृक्ष नहीं है। और जो भूल से इस बात को समझ लेगा, जो बीज कि मैं वृक्ष हो गया, उसकी वृक्ष तक की यात्रा असंभव हो जाएगी, क्योंकि वह इसी भ्रांति में जीने लगेगा, जिसे तोड़ना था, जिस भ्रम को वह उसी भ्रम को और स्थायी करने लगेगा। इसलिए मैंने कहा कि मनुष्य एक मशीन है।
लेकिन मनुष्य मशीन होने को पैदा नहीं हुआ है। मशीन होने से ही वह दुखी और परेशान, और चिंतित है। मशीन होने के कारण ही उसके जीवन में अंधकार है। जीवन में पीड़ा, और चिंता, और अशांति है। और वह मशीन न रह जाए, तो शांति, और सत्य, और सौंदर्य का जन्म हो सकता है। वह मशीन न रह जाए तभी उसे स्वरूप का बोध हो सकता है, और अनुभव हो सकता है कि मैं कौन हूं? अभी तो वह यंत्र है इसलिए उसे कोई पता नहीं चल सकता कि मैं कौन हूं? और अभी तो वह कितना ही खोजे, और कितना ही शास्त्र पढ़े और कितना ही सिद्धांत सीख ले कि मैं कौन हूं? और दोहराने लगे कि मैं आत्मा हूं, मैं परमात्मा हूं उसका यह दोहराना, उसका यह रिपीटीशन भी मैकेनिकल होगा, बिलकुल झूठा होगा और यांत्रिक होगा।
ऐसे लोगों को हम सब जानते हैं कि जो सुबह से बैठ कर यह दोहराते हैं कि मैं आत्मा हूं, मैं परमात्मा हूं , मैं ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि! और दोहराए चले जाते हैं, वर्षों तक। लेकिन उनके जीवन में इससे कोई परिवर्तन पैदा नहीं होता, और हो भी नहीं सकता। क्योंकि अगर यह पता चल जाए कि मैं ईश्वर हूं, तो इसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है, जिसे पता नहीं है कि मैं ईश्वर हूं, वही दोहराता है। अगर आप पुरुष हैं तो आप रोज सुबह उठ कर दोहराते नहीं कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं…अगर आप स्त्री हैं तो आप रोज दोहराते नहीं कि मैं स्त्री हूं, मैं स्त्री हूं…लेकिन अगर कोई पुरुष रोज सुबह उठ कर दोहराने लगे कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं तो आपको शक हो जाएगा कि ये पुरुष है या नहीं? इसका दोहराना इस बात की सूचना होगी कि यह जो बात दोहरा रहा है वह बात संदिग्ध है; इसके मन में खुद इसलिए दोहरा-दोहरा कर अपने मन को असंदिग्ध बनाना चाहता है। जो आदमी यह दोहराता है कि मैं आत्मा हूं, मैं ईश्वर हूं, मैं परमात्मा हूं , फलां हैं, ढिंका हैं, वह सब निपट झूठी बातें दोहरा रहा है, जिनका उसे कोई पता नहीं। अगर उसे पता हो जाए, तो दोहराने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। और इस दोहराने से हमारी यांत्रिकता नहीं टूटती है, बल्कि और मजबूत होती है। और गहरी होती है। क्योंकि हमें यह खयाल ही मिट जाता है कि हम क्या हैं?
एक जादूगर ने बहुत सी भेड़ें पाल रखीं थीं। उस जादूगर ने उन भेड़ों को बेहोश करके, हिप्नोटाइज करके, सम्मोहित करके यह कह दिया था कि तुम भेड़ नहीं हो, उन भेड़ों को बेहोश करके उस जादूगर ने उनके कान में कह दिया कि तुम भेड़ नहीं हो। इसके पहले भेड़ें हमेशा भयभीत रहती थीं, कि पता नहीं उनको खिलाया जाएगा, पिलाया जाएगा और एक दिन उन्हें काट दिया जाएगा। उस जादूगर ने उनको बेहोश करके कह दिया कि तुम भेड़ हो ही नहीं, तुम तो सिंह हो, तुम तो लायंस हो, तुम भेड़ें नहीं हो। उनके चित्त में यह बात बैठ गई, उस दिन से वे अकड़ कर जीने लगीं। उस दिन से वह यह बात भूल गई कि उन्हें काटने के लिए पाला जा रहा है। और जब उनमें से एक भेड़ काट दी जाती थी, तो बाकी भेड़ सोचती कि वह तो भेड़ थी, मैं तो सिंह हूं। मैं कभी काटे जाने वाली नहीं हूं। रोज भेड़ें कम होती जाती थीं, लेकिन हर भेड़ यही सोचती थी कि वह दूसरी तो भेड़ थी इसलिए काटी गई, और मैं, मैं तो सिंह हूं मैं काटी जाने वाली नहीं हूं।
उस जादूगर के घर उसका एक मित्र मेहमान हुआ, तो उसने पूछा कि हम भी भेड़ें पालते हैं, और हम भी भेड़ों को काटते हैं, और उनके मांस को बेचते हैं, लेकिन हमारी भेड़ें तो बड़ी भयभीत रहती हैं, और बड़ी परेशान रहती हैं। तुम्हारी भेड़ें तो बड़ी शान से घूमती हैं, और एक भेड़ काटी जाती है, तो दूसरी भेड़ उसकी कोई फिकर नहीं करती है, और शान से घूमती रहती है, बात क्या है? उस जादूगर ने कहाः मैंने एक तरकीब काम में लाई है। इनको बेहोश करके मैंने कह दिया है कि तुम भेड़ नहीं हो, इसलिए ये मौज में घूमती रहती हैं, और इनके भागने का, भयभीत होने का मुझे कोई डर नहीं रह गया। और जब एक भेड़ कटती है, तो बाकी भेड़ें सोचती हैं कि वह भेड़ थी, मैं तो भेड़ नहीं हूं।
मनुष्य-जाति के साथ भी कुछ मामला ऐसा ही है। हर आदमी को यह खयाल है कि मैं तो कुछ और हूं, बाकी सारी भेड़ें हैं, तो जब मैं आपसे यह कह रहा हूं कि मनुष्य यंत्र है, तो मैं भलीभांति जानता हूं आप अपने पड़ोसी को विचार करके सोच रहे होंगे कि बात तो इस आदमी के बाबत बिलकुल ठीक है, रही मेरी बात, तो मैं तो नहीं हूं, मैं तो एक्सेप्शन हूं। मैं तो एक अपवाद हूं। बाकी लोगों के संबंध में तो यह बात बिलकुल ठीक है। जगह-जगह लोग मेरे पास आते हैं और मुझसे कहते हैं कि आप बात तो बिलकुल ठीक कह रहे हैं, करीब-करीब सभी आदमियों के बाबत यह बात सही है, मैं उनसे पूछता हूं सब आदमियों के बाबत का सवाल नहीं है, यह आपके बाबत सही है या नहीं? और तब मैं पाता हूं कि वह पशोपेश में पड़ जाते हैं, उनकी यह हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि यह मेरे बाबत भी सही है। तो जो बात मैं कह रहा हूं, वह आपके पड़ोसी के लिए नहीं कह रहा हूं, वह आपके संबंध में कह रहा हूं। आपके पास जो बैठे हैं उनकी तरफ देखने की कोई भी जरूरत नहीं है। अगर आपने उनकी तरफ देखा तो मेरी बात फिजूल चली जाएगी, उसका कोई मतलब नहीं होगा।
आप अपनी तरफ देखें और सोचें। और अगर आपको यह दिखाई पड़ जाए कि यह बात आपके संबंध में सही है, आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। इस बात के अहसास के साथ ही आप दूसरे आदमी होने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि यह अहसास इस बात की घोषणा है कि अब आप मशीन नहीं रहे, इस बात की स्वीकृति कि मेरा जीवन एक मशीन का जीवन है। कौन दे रहा है इस बात की स्वीकृति? कौन इस बात को अहसास कर रहा है? जो चेतना इस बात को अहसास कर रही है कि मेरा जीवन एक यंत्र है, वह स्वयं यंत्र नहीं हो सकती। इस बात की स्वीकृति से ही आपके भीतर कांशसनेस का, चेतना का जन्म शुरू होता है, प्रारंभ होता है। इसीलिए मैंने जोर दिया कि हमें यह जानना, खोजना और पहचानना चाहिए और उस आदमी को मैं धार्मिक कहूंगा, जिस आदमी ने यह अनुभव किया कि उसका जीवन एक यंत्र है।
उस आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता, जो रोज सुबह उठ कर माला फेर लेता है, जो रोज सुबह मंदिर हो आता है। वह आदमी तो यंत्र की भांति यह काम भी करता है। उसमें कोई फर्क नहीं है। वह रोज माला फेर लेता है, बरसों तक माला फेरता रहता है। एक मशीन की भांति वह रोज एक काम को पूरा कर लेता है। वह रोज मंदिर भी हो आता है, वह रोज किताब भी पढ़ लेता है, एक ही किताब को वह वर्षों तक पढ़ता रहता है, और दोहराता रहता है, बिलकुल मशीन की भांति, उससे उसके जीवन में कोई अंतर नहीं आता, कोई क्रांति नहीं होती। कोई परिवर्तन नहीं आता, कोई बदलाहट नहीं होती। हो भी नहीं सकती है, क्योंकि बदलाहट की शुरुआत ही उस आदमी ने नहीं समझी। बदलाहट की शुरुआत इस बात से ही हो सकती थी कि वह एहसास करता कि वह तो अभी आदमी भी नहीं है, आदमी से बहुत नीचे के तल पर जी रहा है। मशीन के तल पर जी रहा है। इसलिए कल मैंने यह बात आपसे कही। और कुछ बातें पूछी हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि अगर हमें यह खयाल हो जाए कि हम बिलकुल एक मशीन हैं, तब तो हमारे जीवन में निराशा छा जाएगी। फिर तो हम निराश हो जाएंगे कि अब तो कुछ भी नहीं हो सकता?
ऐसा लगेगा कि अगर हम यह समझ गए कि हम एक मशीन हैं, फिर तो कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन यह अभी आप बौद्धिक रूप से विचार कर रहे हैं, अगर यह आपको अहसास हो जाए कि मैं एक मशीन हूं तो इतना कुछ हो सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। यह बात कि फिर कुछ नहीं हो सकता, एकदम ही गलत है, सच तो यह है कि जब तक इस बात का अहसास न हो कि मैं मशीन हूं, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। तब तक आप जो कुछ भी करेंगे, वह सब व्यर्थ होगा। वह नींद में किया गया होगा। वह जाग कर किया गया नहीं होगा। लेकिन एक बार यह समझ में आ जाए कि मैं मशीन हूं, तो यह समझ जिसके भीतर पैदा होती है कि मैं मशीन हूं, जिस चेतना को यह अनुभव होता है, यह एक्सपीरियंस होता है कि मैं मशीन हूं, यह सारा जीवन मैकेनिकल है, वह चेतना का बिंदु इस मशीन के बाहर हो जाता है, अलग हो जाता है। किसी भी चीज को जानने के लिए, जानते ही हम उससे दूर हो जाते हैं। अगर मैं आपको देख रहा हूं कि आप वहां हैं, तो मैं आपसे अलग हो गया। क्योंकि देखने वाला उससे अलग हो जाता है, जिसे देखता है। दोनों के बीच फासला हो जाता है। अगर मैं अपने इस हाथ को देख रहा हूं तो मैं इस हाथ से अलग हो गया। वह देखने वाला हाथ से अलग हो जाता है।
मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। वे सीढ़ियों पर से गिर पड़े थे और उनके पैरों में बड़ी चोट आ गई थी। बहुत असह पीड़ा थी उन्हें। मैं उन्हें देखने गया। उन्होंने मुझसे कहाः इससे तो बेहतर होता कि मैं मर जाता। बहुत असह पीड़ा, बहुत दुख है। और डाक्टर कहते हैं कोई तीन महीने तक बिस्तर पर बंधे रहना होगा, यह तो और भी दुख है। क्या मेरे मरने की कोई तरकीब नहीं खोजी जा सकती? क्या मैं मर नहीं सकता हूं?
मैंने उनसे कहाः इसके पहले कि आप मरें क्या आपको पक्का भरोसा है कि आप जिंदा हैं? क्योंकि मर वही सकता है, जो जिंदा हो? मुझे शक है कि आप जिंदा भी हैं, क्योंकि मुझे शक है कि आपको उस जीवन का पता है, जो आपके भीतर है? और अगर उस जीवन का पता ही नहीं, तो आपको जिंदा मैं कैसे कहूं? तो मैंने कहा अभी मरने की योजना छोड़िए, अभी पहले आपको यह भी पता नहीं कि आप जिंदा हैं! जिंदा आदमी मर सकता है। लेकिन आप जिंदा कहां हैं? और मैंने उनसे कहाः आप घबड़ाइए मत इतने, एक छोटा सा प्रयोग करिए। मैं यहां बैठा हूं आपके पास, आप आंख बंद कर लीजिए। और उस दर्द को, उस पीड़ा को देखने की कोशिश करिए कि वह कहां है, और क्या है जो आपको अहसास हो रही है? वह किस जगह शरीर में आपको पीड़ा मालूम हो रही है? वे मुझसे बोले, मेरे पूरे पैर में तकलीफ है।
मैंने कहाः आप आंख बंद करिए और ठीक से खोजिए, पिन पॉइंट करिए कि कहां आपको तकलीफ हो रही है? उन्होंने आंख बंद की, और कोई पंद्रह मिनट बाद आंख खोली और मुझसे बोले कि यह तो बड़ी हैरानी की बात है, जैसे-जैसे मैं खोजने लगा, पीड़ा सिकुड़ती गई, छोटी होती गई। पहले मुझे लग रहा था कि मेरे पूरे पैर में दर्द है, लेकिन जैसे मैंने खोज की तो मैंने पाया कि पूरे पैर में दर्द नहीं है। दर्द तो शायद छोटी सी जगह है, मुझे अहसास भर हो रहा है। और जैसे-जैसे मैंने खोजने की कोशिश की कि मैं एक जगह उस दर्द को अहसास करूं कि कहां है, तो मुझे दो अदभुत बातें खयाल में आई हैं, जिनका मुझे पता भी नहीं था। एक तो यह कि दर्द उतना नहीं था जितना मुझे मालूम पड़ रहा था। जब मैंने खोजने की कोशिश की, दर्द उतना बिलकुल नहीं था, जितना मैं अहसास कर रहा था। जितना मैं भोग रहा था, उतना दर्द था ही नहीं। और दूसरी बात, जैसे ही दर्द एक जगह मुझे मालूम पड़ा कि पैर की फलां जगह दर्द हो रहा है, वैसे ही मुझे एक और बात पता चली, जो और भी हैरानी की है, वह यह कि दर्द वहां हो रहा था और मैं यहां दूर खड़ा हुआ उसे देख रहा था। मैं अलग था, और दर्द अलग था। दर्द कहीं हो रहा था और मैं उसे जान रहा था। तो मुझे एक क्षण में ऐसा लगा है कि मैं अलग हूं, जान रहा हूं, और दर्द अलग है, कहीं हो रहा है।
तो अगर हमारे जीवन की यांत्रिकता हमें पता चल जाए, तो हमें यह भी पता चल जाएगा कि यांत्रिकता का घेरा कहीं है, और मैं कहीं और हूं। मैं यांत्रिकता के बीच में हूं, मैं खुद यंत्र नहीं हूं। और अगर यह एहसास हो जाए कि सारी यांत्रिकता के बीच में मेरी कांशसनेस अलग है, तो फिर कुछ हो सकता है। मैं इस यंत्र का मालिक बन सकता हूं। फिर इस यंत्र के साथ मैं कुछ कर सकता हूं। क्योंकि मैं इससे अलग हूं। और इससे बाहर हूं। लेकिन जो आदमी यंत्र के साथ एक ही हो जाता है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। और वह आदमी एक है, जिसको यह पता नहीं है कि मेरा सारा जीवन यांत्रिक है।
इसलिए निराश होने का कोई कारण नहीं है। बल्कि आशा से भर जाने का कारण है। लेकिन यह केवल बौद्धिक विचारणा नहीं है, इसे तो जीवन में खोजेंगे तो ही इसके क्रांतिकारी परिणाम परिलक्षित हो सकते हैं, दिखाई पड़ सकते हैं। ऐसा मत सोचें कि क्या होगा, अगर मैंने समझ लिया कि मैं यंत्र हूं? समझने की जरूरत नहीं है, आप यंत्र हैं। यह एक फेक्ट है, यह एक तथ्य है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। आपको समझने की जरूरत नहीं है। समझने की जरूरत तो वहां होती है, जहां कोई आपको समझाता है कि आप भगवान हैं, वहां समझने की जरूरत होती है कि आप भगवान हैं। यह तो एक तथ्य है कि आप यंत्र हैं।
इसे मानने की और विश्वास करने की जरूरत नहीं है, इसे तो खोज लेने की जरूरत है। और जैसे ही इसे खोजेंगे, वैसे ही वह दूसरी चीज जो आपके भीतर यंत्र नहीं है, आपके अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी। और धीरे-धीरे आप जानेंगे आपके चारों तरफ यांत्रिकता है लेकिन आप यंत्र नहीं हैं। आप एक कांशसनेस हैं, आप एक चेतना हैं, आप एक आत्मा हैं, लेकिन यह सिद्धांत दोहराने से पता नहीं चलेगा कि मैं एक आत्मा हूं, यह तो जानने से पता चलेगा, यांत्रिकता खोजने से। और क्यों मैं इस बात पर जोर देता हूं कि आत्मा जानने के लिए यांत्रिकता को खोजना जरूरी है, कोई वजह है। अगर आप एक काले तख्ते पर एक सफेद लकीर खींचे, तो सफेद लकीर दिखाई पड़ेगी, और अगर सफेद तख्ते पर सफेद लकीर खींचें, लकीर आपको कभी दिखाई नहीं पड़ेगी। अगर आपको यह पूरी तरह अहसास हो जाए कि आपका जीवन यांत्रिक है तो उसी के बीच में, इसी काले बोर्ड पर चेतना की सफेद लकीर आपको दिखाई पड़नी शुरू होगी, नहीं तो नहीं दिखाई पड़नी शुरू होगी। यांत्रिकता के विरोध में ही आपको चेतना का अनुभव होगा, नहीं तो नहीं अनुभव होगा।
जीवन में हमारे सारे अनुभव विरोध के कारण होते हैं, नहीं तो नहीं होते हैं। अभी आकाश काले बादलों से छा जाए, और एक बिजली चमके, वह बिजली दिखाई पड़ेगी, अभी यह बल्ब जल रहा है यहां, थोड़ी देर पहले भी जल रहा था, लेकिन तब इसकी रोशनी पता नहीं चल रही थी, क्योंकि चारों तरफ रोशनी थी, अब रात उतरने को शुरू हो गई है, और आपके चेहरों पर बल्ब की चमक आनी शुरू हो गई है। रात गहरी होती जाएगी और बल्ब प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगेगा। रात जब पूरी अंधेरी हो जाएगी, तो बल्ब अपनी पूरी रोशनी में दिखाई पड़ेगा। तो आपको मैं जो जोर दे रहा हूं इस बात को कि वह जो मैकेनिकल लाइफ है हमारी, वह जो यांत्रिक जीवन है मशीन की तरह, अगर उसका पूरा अनुभव हो जाए तो उसके विरोध में, उसके कंट्रास्ट में ही आपको वह चेतना की लकीर और बिजली दिखाई पड़नी शुरू होगी, जिसका नाम आत्मा है। उस आत्मा को आपको मानने की जरूरत नहीं है, वह आपको दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। लेकिन वह दिखाई पड़ सके इसके लिए जरूरी है कि यांत्रिकता का बोध जितना इंटेंस, जितना गहरा होगा उतना ही आसान है आपको आत्मा का अनुभव।
इसलिए निराश होने की बात नहीं, बल्कि आशा से भरने की बात है। उसे खोजें, और देखें, और पहचानें ; आत्मा को मत खोजें, आत्मा को आप नहीं खोज सकते हैं अभी। आप तो अपनी यांत्रिकता को खोजें, उसी यांत्रिकता की खोज से आत्मा की लकीर स्पष्ट होनी शुरू होगी। उसी के बीच आपको वह बिजली की चमक दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी, जो कि परमात्मा का इशारा है। लेकिन उसके पहले परमात्मा के संबंध में कुछ भी कहना कुछ भी सोचना एकदम नासमझी और गलत और खतरनाक बात है।
एक मित्र ने इस संबंध में पूछाः पूछा है, यह भगवान की धारणा का जन्म कैसे हो गया? भगवान की धारणा का जन्म, धारणा का कंसेप्ट ऑफ गॉड, इसका जन्म कैसे हो गया?
इसका जन्म भय के कारण हो गया है। धारणा का जन्म, अनुभव का जन्म नहीं। भगवान के अनुभव का जन्म भय के कारण नहीं होता। वह तो ज्ञान के कारण होता है। लेकिन भगवान की धारणा कंसेप्ट, भगवान के सिद्धांत का जन्म भय के कारण हो जाता है। एक गांव में एक फकीर यात्रा पर था। उस गांव के राजा ने उसे पकड़वा कर बुलवा लिया। और दरबार में उसे बुला कर कहा कि मैंने सुना है कि तुम बहुत बड़े मिस्टिक हो? बहुत बड़े रहस्यवादी संत हो? और मैंने सुना है कि तुम्हें परमात्मा के दर्शन होते हैं, और तुम्हें बहुत अदभुत, अलौकिक विजंस दिखाई पड़ते हैं, साक्षात्कार होते हैं? सिद्ध करो मेरे सामने कि तुम एक मिस्टिक संत हो? और अगर सिद्ध न कर सके तो गर्दन अलग करवा दूंगा।
उस फकीर ने यह सुना, यह बादशाह पागल था, जैसे कि अक्सर बादशाह होते हैं। और खतरा था कि वह गर्दन अलग न करवा दे। उसने एकदम आंखें बंद की और कहा कि देखो वे मुझे दिखाई पड़ रहे हैं आकाश में भगवान, अपने सिंहासन पर विराजमान हैं और देवता उनकी स्तुति कर रहे हैं। और वह नीचे देखो जमीन में, वहां मुझे राक्षस और नरक और सब दिखाई पड़ रहा है। उस राजा ने कहाः बड़ी हैरानी की बात है! क्या तुम्हें दीवालों के पार भी दिखाई पड़ता है? हमें तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा। कौन सी तरकीब है, जिसके कारण तुम्हें आकाश में बादलों के पार भगवान दिखाई पड़ जाता है? जमीन के नीचे नरक दिखाई पड़ जाता है? उसने कहा कोई तरकीब नहीं है, महानुभाव! ओनली फीयर इ.ज रिक्वायर्ड। कोई और ज्यादा चीज की जरूरत नहीं, भय होना चाहिए सब दिखाई पड़ने लगता है। जब आपने कहा कि गर्दन कटवा देंगे, तो मैंने आंख बंद की और मुझे भगवान दिखाई पड़ने लगे और नरक भी दिखाई पड़ने लगा।
सिर्फ भय की जरूरत है सब दिखाई पड़ने लगता है। और किसी चीज की कोई भी जरूरत नहीं है। आपको भय हो, आपको कुछ भी दिखाई पड़ने लगेगा, भूत भी और भगवान भी। लेकिन ऐसे दिखाई पड़े न तो भूत सच हैं, और न भगवान सच हैं। आपके भय पर जो भी अनुभव खड़ा होता है, वह व्यर्थ है, झूठा है। भगवान की धारणा तो मनुष्य के भय से पैदा हो गई है। जीवन में सब दुख है, पीड़ा है, भय भी है। जीवन में सब तरफ कहीं कोई सहारा नहीं, जीवन में कहीं कोई आसरा नहीं है, जीवन में कोई सिक्योरिटी का कोई पता नहीं है, सब इनसिक्योर, सब घबड़ाहट से भरने वाला है, इसलिए आदमी डरता है। और इस डर में एक आकाश में सहारा खोजता है कि हे भगवान! शायद तुम ही सहारे हो, शायद तुम्हारे ही पैर पकडूं और मुझे सहारा मिल जाए और सुरक्षा मिल जाए। इस जगत में तो कोई सहारा मिलता नहीं, कोई कूल-किनारा नहीं है, तुम ही मेरे किनारे हो!
वह घबड़ाहट में, भय में कल्पना करता है किसी भगवान की और उसके पैर पकड़ लेता है और प्रार्थनाएं करता है और हाथ जोड़ता है और स्तुतियां करता है। और भगवान को राजी करता है और प्रसन्न करने की कोशिश करता है कि शायद तुम प्रसन्न हो जाओ तो मुझ पर कृपा करो। और मेरे जीवन के सहारे और आधार बन जाओ। तो यह भगवान एकदम झूठा है। क्योंकि इसका जन्म हमारे भय से हुआ है। और भय हमारा बिलकुल यांत्रिक है। इसलिए तो हम कहते हैं, धार्मिक आदमी को हम कहते हैं, गॉड-फियरिंग, भगवान से डरा हुआ। भगवान के प्रति भीरु। बड़ी अजीब बात है, कोई आदमी गॉड-फियरिंग होकर धार्मिक हो सकता है? जिस आदमी के भीतर भय है भगवान का, वह तो कभी धार्मिक नहीं हो सकता।
धार्मिक होने के लिए तो अभय चाहिए, फीयरलेसनेस चाहिए। धार्मिक होने के लिए भगवान का भय नहीं चाहिए। धार्मिक होने के लिए अत्यंत अभय चित्त चाहिए। वह अभय चित्त ही उसको जान पाता है, जो भगवान है, जो सत्य है, जो परमात्मा है। जो भयभीत है वह अपने भय के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता, और अपने भय के लिए उसने जो कल्पनाएं की हैं, उनको जानता है। उसके भय से निकली हुई सारी कल्पनाएं झूठी हैं।
भगवान की धारणा तो भय से निकलती है, लेकिन भगवान का अनुभव, भगवान का अनुभव जाग्रत चेतना से उपलब्ध होता है। और हम चूंकि सोए हुए हैं, यांत्रिक हैं; हम, हमारे सारे भगवान हमारे जैसे ही झूठे हैं। हमारे सब भगवान हमारे जैसे ही यांत्रिक हैं। क्योंकि हमारे भगवानों के बनाने वाले हम हैं, उनको हम निर्मित किए हैं। मंदिरों में जो मूर्तियां खड़ी की हैं वह हमने, मस्जिदें बनाई हैं और शिवालय बनाए हैं, वे हमने; धर्म खड़े किए हैं, वे हमने; शास्त्र रचे हैं, वे हमने। और हम जैसे हैं, वैसे ही हमारे शास्त्र होंगे स्वभावतः। वैसे ही हमारे भगवान होंगे स्वभावतः।
इसलिए आदमी बदलता जाता है, तो उसके भगवान की धारणा बदलती जाती है। पिछली सदी का भगवान और तरह का था, ज्यादा ऑटोक्रेट था। क्योंकि आदमी का दिमाग, आदमी का दिमाग राजतंत्र में था, तो भगवान एक राजा की शक्ल में था। आजकल का भगवान थोड़ा ज्यादा डेमोक्रेट है, क्योंकि आदमी डेमोक्रेसी में है। वह लोकतंत्र की बातें करता है, तो भगवान भी लोकतांत्रिक हो गया है उसका। अगर आप तीन हजार साल पहले की किताब पढ़ें तो आप घबड़ा जाएंगे, भगवान ऐसा मालूम पड़ेगा कि हमारी कल्पना में न आएगा कि भगवान ऐसा कैसे हो सकता है? अगर आप भगवान के खिलाफ एक शब्द बोल दें तो आपकी हत्या कर देगा, ऐसा भगवान है तीन हजार साल पुराना। वह आपके ऊपर गाज गिरा देगा, बिजली गिरा देगा, आपको तबाह कर देगा। आज हम सोच भी नहीं सकते। हम तो भले आदमी की बाबत भी नहीं सोच सकते कि कोई भले आदमी को अगर हम बुरा शब्द कह दें तो हमारे घर में आग लगा देगा; भले आदमी की धारणा बदल गई हमारी। आज हम भगवान के बाबत तो यह सोच ही नहीं सकते कि हम उसके बाबत कुछ कह दें बुरी बात, तो हमारे घर पर बिजली गिरा देगा। यह हम सोच ही नहीं सकते। लेकिन पुराना भगवान बिजली गिराता था, आग लगा देता था। नरक में डाल देता था। हमारे दिमाग जैसे थे, वैसा हमने भगवान बना लिया था। अब हमारे दिमाग बदले हैं, तो हमने थोड़ा लोकतांत्रिक भगवान बनाया है, वह क्षमा भी करता है, दया भी करता है, प्रेम भी करता है। और शायद हमारे दिमाग बदल जाएंगे, हम दूसरी तरह का भगवान निर्मित कर लेंगे।
ये सारे भगवानों की कल्पनाएं हमारी निर्मित हैं। हमारा क्रिएशन है। ये धारणाएं हमारी हैं, इनसे भगवान का कोई भी संबंध नहीं है। ये हमारे ही मन के खेल हैं, इससे ज्यादा नहीं। क्योंकि स्त्रियों ने कभी भगवान नहीं बनाए अब तक इसलिए सब भगवानों की शक्ल पुरुषों जैसी है। अगर स्त्रियां बनाएं तो वे स्त्रियों जैसे भगवान बनाएंगी। और अगर पक्षी और पशु बनाएं तो वे अपनी शक्ल में बनाएंगे। क्या आप सोच सकते हैं कि घोड़े और गधे अगर भगवान की कल्पना करें तो आदमी की शक्ल में करेंगे? कोई घोड़ा और गधा आदमी को इस योग्य नहीं समझेगा कि उसकी शक्ल में भगवान को बनाए। वह अपनी शक्ल में बनाएगा, आखिर नीग्रो अपनी शक्ल में बनाता है भगवान को, चीनी अपनी शक्ल में, भारतीय अपनी शक्ल में, तिब्बती अपनी शक्ल में; नीग्रो का जो भगवान है, वह कभी सफेद रंग का नहीं हो सकता, आपको पता है, वह काले रंग का होता है। और शैतान जो है, वह सफेद रंग का होता है। लेकिन अंग्रेज का भगवान कभी काले रंग का हो सकता है? अंग्रेज का भगवान तो सफेद रंग का होता है, शैतान काले रंग का होता है।
हिंदुओं से पूछिए कि काले रंग के कौन होते हैं? वे कहेंगे कि राक्षस। लेकिन नीग्रो से पूछिए तो वह कहेगा, काले रंग के राक्षस होते हैं? वह कहेगा, काले रंग के भगवान होते हैं। और जितना शुद्ध उनका काला रंग होता है उतना किसी का भी नहीं होता, प्योरेस्ट, जो शुद्धतम काला रंग है वही भगवान का होता है। और सफेद रंग का होता है शैतान। हमारी अपनी धारणाएं, हमारी अपनी शक्ल में हम निर्मित करते हैं। यह सारी हमारी कल्पनाएं हैं।
तो भगवान का कंसेप्ट जो है, धारणा जो है, वह तो हमारी बनाई हुई है, उसका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन हां, सत्य का एक ऐसा अनुभव भी है, जहां हम मिट जाते हैं और हम उसे जानते हैं। वहां न हम मनुष्य रह जाते, न पुरुष, न स्त्री, न भारतीय, न हिंदु, न मुसलमान वहां केवल चेतना रह जाती है, जानने को। चेतना जिसका कोई रंग नहीं है, चेतना जिसका कोई आकार नहीं है, चेतना जो हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, हिंदुस्तान की नहीं है, पाकिस्तान की नहीं है; ईसाई की और यहूदी की नहीं है, पारसी की नहीं है; चेतना मात्र रह जाती है जहां, वहां वह जाना जाता है। जो चेतना का प्राण है और केंद्र है, उसका नाम है परमात्मा। लेकिन वह धारणा नहीं है, वह अनुभव है। वह कंसेप्ट नहीं है, वह एक एक्सपीरियंस है, रिएलाइजेशन है।
भगवान की धारणा तो भय से पैदा होती है, लेकिन भगवान का अनुभव जाग्रत चित्त से पैदा होता है। और भय का कोई स्थान जाग्रत चित्त में कभी नहीं होता है। इसलिए जिसे हम धर्म मान कर चलते हैं वह धर्म नहीं है, और जिसे भगवान मान कर चलते हैं, वह भगवान भी नहीं है। अभी तो हमें इसका ही पता नहीं है कि हम कौन हैं, और क्या हैं? और हम भगवान की खोज और यात्रा पर निकल जाते हैं। हर आदमी का अहंकार अदभुत है, और जब उसे फिर नहीं अहसास होता कि भगवान मिल रहा है, तो फिर वह कल्पनाएं करना शुरू कर देता है, और कल्पनाओं को अनुभव करना भी शुरू कर देता है। और फिर उसे जिस बात की शिक्षा दी गई हो, उसकी कल्पनाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि वह उसका अनुभव भी कर सकता है। हमारी कल्पना इतनी बड़ी है, हमारे स्वप्न देखने की शक्ति इतनी बड़ी है, कि हम अनुभव कर सकते हैं। सोया हुआ आदमी कुछ भी देख सकता है। हम भी सोए हुए लोग हैं, यांत्रिक आदमी सोया हुआ आदमी है। यांत्रिकता और सोए हुए पन में कोई फर्क नहीं है। हमें पता भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं?
एक गांव में एक मां और उसकी बेटी थी। उस गांव में उन मां और बेटी को रात में उठ कर नींद में चलने की आदत थी। वे स्लीप वॉकर्स थीं, वे दोनों ही। एक रात वे दोनों नींद में उठी, मां भी और बेटी भी; और अपने पीछे के बगीचे में पहुंच गईं। नींद में उठने की कई लोगों को बीमारी होती है, उनको भी थी। बगीचे में पहुंचकर जैसे ही मां ने अपनी लड़की को देखा, और उसने जोर से कहा कि चांडाल, दुष्ट तूने ही मेरी सारी जवानी छीन ली है। तू जवान होती गई और मैं बूढ़ी होती गई, तू ही है, जिसने मेरी जवानी छीन ली। तू ही है मेरी शत्रु। जैसे ही उस लड़की ने अपनी मां को देखा, उसने जोर से कहा, ओ बूढ़ी चुड़ैल! तेरी वजह से ही मेरा जीवन एक परतंत्रता बना हुआ है। तू मेरे पैरों की जंजीर बन गई है। जैसे ही वह ये बातें कर रहीं थीं, मुर्गे ने बांग दी सुबह होने को हो गई, उन दोनों की नींद खुल गई, नींद खुलते ही उस बूढ़ी औरत ने कहाः ओ मेरी प्यारी बेटी, इतनी सुबह तू उठ आई, कहीं तुझे सर्दी न लग जाए, हवा ठंडी है। और उस लड़की ने अपनी मां के पैर पड़े जैसा कि रोज सुबह वह पड़ती थी। और उसने कहाः हे पूज्य मां, सुबह तुम्हारे दर्शन करके मेरा हृदय अत्यंत आनंदित हो गया।
नींद में उन्होंने क्या कहा? और जाग कर सब क्या हो गया? नींद में शायद उन्होंने अपने हृदय की सच्ची बातें कह दीं। शायद नींद में उनके भीतर जो चलता था, वह निकल आया था। नींद में कोई अपना मालिक नहीं होता। इसलिए जो भी निकल आए, जो भी निकल आए, निकलेगा और उसको कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जागते से ही वे अपनी मालिक हो गईं, जागते से उन्होंने अपनी बात बदल दी। शायद उन्हें खयाल भी न रहा हो कि उन्होंने नींद में क्या कहा? आपको पता है कि आपने नींद में क्या-क्या सपने देखे हैं? क्या आपको पता है कि आप अपनी नींद में, अपने सपने में, अपने पिता की आपने हत्या भी कर दी होगी? क्या आपको पता है, नींद में, सपने में आपने अपने मित्र को मार भी डाला होगा? क्या आपको पता है कि नींद में आप पड़ोसी के घर में घुस गए होंगे, उसकी सम्पत्ति चुरा ली होगी? क्या आपको पता है कि आपने नींद में क्या-क्या किया है? क्योंकि नींद में आप अपने मालिक नहीं होते। जो होता है, जो भीतर चलता है, वह चलता है; आपका कोई वश नहीं होता, उसके ऊपर।
लेकिन जैसे ही आप जागते हैं, आपकी जिंदगी में फर्क पड़ जाता है। लेकिन यह जागरण भी हमारा झूठा है, इससे भी एक और बड़ा जागरण है। उस जागरण के लिहाज से हम सब अभी भी सोए हुए हैं। और अभी भी हम एक तरह के सपने में जी रहे हैं। और अगर चेतना उस बड़े जागरण को उपलब्ध हो जाए, उस जागरण का नाम ही समाधि है, धर्म है, योग है या कुछ। और जो कहना चाहें। अगर और बड़ी चेतना में हमारे जीवन का जागरण हो जाए, तो शायद हम पाएंगे कि हम जो कर रहे थे, वह वैसा ही झूठा, फिजूल, और गलत था, जैसा कि नींद से सुबह जागकर हम पाते हैं कि हमने कैसे सपने देखे? कैसे फिजूल, कैसे एब्सर्ड, कैसे गलत? और तब हमारा जीवन बिलकुल एक नये रास्ते पर बदल जाएगा, और परिवर्तित हो जाएगा।
इसलिए मैंने जोर दिया कि हम यांत्रिक हैं। यांत्रिक होने का अर्थ है, सोए हुए हैं, हमें कुछ होश नहीं कि क्या हो रहा है? क्या चल रहा है, हमें कुछ पता नहीं है? जीवन हमारा एक अंधी यात्रा है, अंधेरे में, सोए हुए लोग हैं, वे जो भी कर रहे हैं, उनसे जो भी हो रहा है; वे जहां भी जा रहे हैं, न उन्हें दिशा का कोई पता है, न उन्हें गंतव्य का कोई बोध है कि कहां पहुंचना चाहते हैं? उन्हें कुछ भी पता नहीं। और अगर कुछ लोग इन सोए हुए लोगों के बीच जिंदगी को बदलने की कोशिश करते हैं, बिना नींद को तोड़े हुए, तो ज्यादा से ज्यादा वे जाग तो नहीं पाते, बल्कि सोए हुए लोग जो कुछ करते हैं, इनके उल्टा करना शुरू कर देते हैं।
एक प्रश्न इस संबंध में भी पूछा है, और यह पूछा है कि जो सोए लोग कर रहे हैं, अगर हम ठीक उनसे उलटा करने लगें, तब तो फिर ठीक हो जाएगा? जैसे सोए लोग क्रोध कर रहे हैं, तो हम शांति और क्षमा प्रकट करने लगें, सोए लोग हिंसा कर रहे हैं और वायलेंट हैं तो हम नॉन-वायलेंट हो जाएं, हम अहिंसक हो जाएं? सोए लोग हिंसा करते हैं, घृणा करते हैं, तो हम प्रेम करने लगें? हम उनसे उलटा चलने लगें!
सारे संन्यासी और साधु और अच्छे लोग यही कर रहे हैं दुनिया में, वे उलटा चलने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सोया हुआ सीधा चले तो खतरनाक, उलटा चले तो और भी खतरनाक हो जाता है, कम से कम सीधा चलता है तब भी ठीक है, उलटा चलता है तब और भी मुश्किल। क्योंकि पीठ पीछे हो जाती है, उलटा चलना और भी खतरनाक हो जाता है। पहली तो बात यह है कि जब हमारा क्रोध पर ही कोई वश नहीं है तो हम प्रेम कैसे कर सकेंगे? और करेंगेे तो वह प्रेम एकदम झूठा होगा, उस प्रेम में कोई प्राण न होंगे। उस प्रेम में कोई बल और शक्ति न होगी। और उस प्रेम के नीचे, भीतर घृणा बैठी ही रहेगी। क्योंकि वह घृणा कहां जाएगी, जिसको हमने दबा लिया? वह क्रोध कहां जाएगा, जिसको हमने पी लिया? वह सारा का सारा बुखार, वह सारी बीमारी, वह जहर जो हमारे भीतर था कहंा जाएगा? वह भीतर बैठ जाएगा।
कभी आप अहसास किए हैं ऐसे आदमी का प्रेम जिसने अपनी घृणा दबा ली हो? वह पहले तो प्रेम से आपकी तरफ हाथ बढ़ाएगा, थोड़ी देर में आप पाएंगे उसके हाथ आपके लिए पंजे हो गए, कसने वाले। जंजीरें हो गए। हम सारे लोग इस बात को भलीभंाति जानते हैं। हम जिनकी तरफ प्रेम के हाथ बढ़ाते हैं, थोड़ी देर में हमारे हाथ जंजीरें हो जाते हैं, उनके लिए। उनके लिए प्रेम नहीं रह जाता, बल्कि कारागृह बन जाता है। जो भी आदमी…हम सब लोग जानते हैं, इसको अनुभव करते हैं रोज। जिसको हम प्रेम करते हैं, थोड़ी देर में हम पाते हैं कि उससे छुटकारा कैसे हो जाए? जिसको हम प्रेम करते हैं, वह हमसे चाहता है कि इससे छुटकारा कैसे हो जाए? हमारा सारा प्रेम बंधन बन जाता है, क्योंकि हमारे प्रेम के पीछे घृणा छिपी है। और प्रेम के पीछे से उसके सूत्र आने शुरू हो जाते हैं। जो लोग क्रोध को दबाकर क्षमा करना सीख जाते हैं, उनकी क्षमा भी एक अदभुत क्रोध का रूप ले लेती है। उनकी क्षमा में भी क्रोध मौजूद होता है। वह जाएगा कहां? अगर कोई आदमी बीमारी छुपा ले और कहने लगे कि मैं स्वस्थ हूं, तो उसके स्वास्थ्य में भी बीमारी मौजूद रहेगी, वह जाएगी कहां? कोई सप्रेशन, कोई दमन, कोई जबरदस्ती आदमी के जीवन में क्रांति नहीं लाती। इसलिए मैं नहीं कहता हूं कि आप उलटे चलना शुरू कर दें, मैं तो यह कहता हूं कि जागें, सोया हुआ आदमी पूरब जाए तो उतना ही गलत है, पश्चिम जाए तो उतना ही गलत है; सोया हुआ गृहस्थ अगर भूल में है, तो सोया हुआ संन्यासी भी भूल में है चाहे वह कितना ही उलटे चलने की कोशिश करे, जीवन का नियम, नींद का जो नियम है वह उसका पीछा नहीं छोड़ेगा।
एक गांव में ऐसा हुआ, नदी पूर पर आई थी और एक संन्यासी का पैर फिसल गया,और वह नदी में गिर गया। नदी बड़े तेज पूर पर थी और उस गांव में केवल एक ही तैरने वाला था। जो उतने बड़ी, गहरी पूर पर आई हुई नदी में कूद सकता था। एक ही आदमी था, गांव में एक शेखचिल्ली था, जो हर काम जानता था। वह तैरना भी जानता था, तो गांव के लोग भागे गए और उस शेख चिल्ली को कहा कि जल्दी चलो, एक संन्यासी नदी में गिर पड़ा है, उसे बचाना जरूरी है और तुम्हारे अतिरिक्त सर्वज्ञ कोई भी नहीं है, गावं में तुम सब चीजें जानते हों। तैरना भी तुम्हीं जानते हो। वह शेखचिल्ली गया। उसने कपड़े उतारे और नदी में कूदा और ऊपर की तरफ उसने तैरना शुरू कर दिया। अप स्ट्रीम। तो गांव के लोग चिल्लाए, क्या पागलपन कर रहे हो, जो आदमी गिरा है, वह नीचे की तरफ बहा होगा, डाउन स्ट्रीम, और तुम ऊपर की तरफ तैर कर उसे खोजने जा रहे हो, उस शेखचिल्ली ने कहा तुमने मुझसे कहा था कि वह एक संन्यासी है, संन्यासी हमेशा उलटा चलता है, वह अपस्ट्रीम गया होगा। ऊ पर की तरफ गया होगा, नीचे की तरफ वह नहीं जा सकता। लेकिन गांव के लोगों ने कहा कि हे महात्मन! वह संन्यासी चाहे कितना ही ऊपर की तरफ जाने का आदी रहा हो, और उलटा चलने का, लेकिन नदी का अपना नियम है, वह नीचे ले गई होगी। आप कृपा करके ऊपर खोजना बंद करें। आप नीचे की तरफ खोज शुरू करें, लेकिन उस शेखचिल्ली ने बड़ी बढ़िया बात कही, उसने कहा कि मैं जानता हूं कि वह संन्यासी था उलटा चलने का आदी है, अगर नदी उसको बहा भी ले गई है, तो वह ऊ पर की तरफ गया होगा, नीचे वह नहीं जा सकता।
लेकिन जिंदगी के नियम और नदी के नियम बदलते नहीं हैं। चाहे आप उलटे चलें, चाहे कहीं भी, जीवन की नदी आपको नीचे की तरफ ले जाएगी। वह जो सोया हुआ चित्त है वह कहीं भी कुछ भी करे, वह नीचे की तरफ जाएगा, सोया हुआ चित्त ऊपर की तरफ जा ही नहीं सकता है। नींद का नियम है। तो चाहे आप क्रोध करें और चाहे आप क्षमा दिखलाएं, आपका क्रोध भी आपको नीचे ले जाएगा और आपकी क्षमा भी, क्योंकि आपकी क्षमा झूठी होगी, उसके नीचे क्रोध छिपा होगा। आपका प्रेम झूठा होगा, उसके पीछे घृणा बैठी होगी। तभी तो जरा-जरा सी बात में प्रेम घृणा में बदल जाता है, जिनको हम मित्र कहते हैं, वे शत्रु हो जाते हैं जरा सी बात पर, अगर उनके भीतर घृणा न छिपी होती, इतनी जल्दी परिवर्तन हो सकता है?
मैं अभी आपसे कहता हूं कि मैं आपके लिए जान दे दूंगा, और आप दो गालियां मुझे दे दें और मैं आपकी जान लेने को तैयार हो जाऊंगा। बड़ी हैरानी की बात है। यह जो आदमी कहता था मैं आपके लिए जान दे दूंगा, और ये जान लेने के लिए तैयार हो गया, एक सेकेंड में। इसके प्रेम के पीछे घृणा मौजूद थी। ऊपर प्रेम था, पीछे घृणा थी; आपने दो गालियां दीं, ऊपर का प्रेम फट गया, भीतर की घृणा ऊपर आ गई। आप थोड़ी देर बिलकुल शांत मालूम पड़ते हैं, और जरा सा कोई आपको चुभा दे और आप क्रोध में आ जाते हैं। तो आप सोचते हैं वह शांति थी? वह शांति बहुत पतली थी, स्किन-डीप जिसको कहते हैं, चमड़ी से भी कम पतली रही होगी। भीतर-भीतर अशांति बैठी थी, जरा ही मौका आया बाहर निकल आई। जो दबाएगा, दमन करेगा, उलटा चलने की कोशिश करेगा; वह कहीं पहुंचेगा नहीं। उसके भीतर सारी चीजें मौजूद हो जाएंगी, इकट्ठी हो जाएंगी। उनका विस्फोट होता रहेगा। और जिन चीजों को उसने दबाया है, उनको रोज-रोज दबाना पड़ेगा और जीवन एक संघर्ष, एक अंतद्र्वंद्व, एक कांफ्लिक्ट हो जाएगी, एक नरक हो जाएगा। उस जीवन में कोई शांति और आंनद संभव नहीं हो सकता है।
दमन से नहीं, उलटा चलने से नहीं, जबरदस्ती चीजों को रोक लेने से नहीं, लेकिन नींद को तोड़ने से एक क्रांति आती है, वह नींद कैसे तोड़ी जा सकती है, उसकी बात तो कल की चर्चा में मैं आपसे करूंगा? नींद निश्चित ही तोड़ी जा सकती है। क्योंकि जो आदमी सोने में समर्थ है, वह जागने में भी समर्थ है। जो आदमी बीमार होने में समर्थ है, वह स्वस्थ होने में भी समर्थ है। जो आदमी क्रोध से भरा हुआ है, वह प्रेम से भर सकता है, लेकिन भरने का रास्ता क्रोध को दबाना नहीं है, बल्कि जिस नींद से क्रोध पैदा होता है, उस नींद को ही तोड़ डालना है। अगर चित्त जागा हुआ हो जाए, अवेकंड हो जाए, यह सोया-सोया हुआ स्थिति मिट जाए, तो नये लक्षण प्रकट होने शुरू हो जाएंगे, जिनको हम प्रेम कहते हैं, सौंदर्य कहते हैं, संगीत कहते हैं, सत्य कहते हैं। वे हमारे भीतर से प्रकट होने शुरू हो जाएंगे।
अंत में दो छोटी सी बातें, सोए हुए आदमी के लक्षण हैं कुछ। हिंसा उसका लक्षण है, घृणा, क्रोध उसका लक्षण है। जागे हुए आदमी के कुछ लक्षण है, प्रेम, करुणा, दया उसका लक्षण है। कोई हिंसा, क्रोध को दया और प्रेम में नहीं बदल सकता। लेकिन अगर नींद टूट जाए तो अचानक पाता है कि जिस चित्त से घृणा निकलती थी, वहां से अब प्रेम निकलना शुरू हो गया है। और यह प्रेम वैसा प्रेम है, जिसे कोई भी तरकीब से घृणा में नहीं बदला जा सकता।
आप क्राइस्ट को चाहे सूली पर लटका दें, तो भी आप क्राइस्ट के प्रेम को घृणा में नहीं बदल सकते। क्राइस्ट को हमने मार डाला सूली पर लटका कर, लेकिन हम क्राइस्ट के प्रेम को नहीं मार सके, मरते वक्त भी क्राइस्ट ने कहा कि हे परमात्मा! इन सबको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं। मंसूर के लोगों ने हाथ-पैर काट डाले, लेकिन मंसूर के प्रेम को चोट नहीं पहुंचाई जा सकी, जिन्होंने हाथ-पैर काटे होंगे, उन्होंने यही सोचा होगा कि देखे इसके प्रेम की स्थिति क्या है? मंसूर के लोग हाथ-पैर काट रहे थे, एक लाख लोग इकट्ठे थे, उसके पैर काट डाले, उसके हाथ काट डाले, उसकी आंखें फोड़ डालीं; लेकिन उसके होंठों पर जो प्रेम और मुस्कुराहट थी उसको नहीं छीना जा सका। और इसके पहले कि वह उसकी जबान काटते उन्होंने मंसूर से कहा कि तुम्हें कुछ कहना है? तो उसने कहा कि एक ही बात मुझे तुमसे कहनी है, मेरा शरीर कट रहा है, लेकिन मैं अपने प्रेम को देख रहा हूं कि वह अखंड है, इसलिए तुम शरीर पर विश्वास मत करना, उस प्रेम को खोजना जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। मैं अपने शरीर को मरते देखता हूं, लेकिन उस प्रेम को मरते हुए नहीं देख रहा, जो मेरे भीतर है; तो मैं तुमसे कहता हूं, तुम शरीर पर विश्वास मत करना, तुम प्रेम को खोजना जो कि अमृत है, शरीर तो मर जाता है, लेकिन प्रेम अमर है।
लेकिन उस प्रेम को तो केवल वे ही पा सकते हैं, जो जागे हुए हों। कुछ मामला ऐसा है, कि जाग्रत होते ही जीवन में कुछ नये फूल खिलने शुरू हो जाते हैं, जागरण के परिणाम स्वरूप। और सोते ही जीवन में कुछ फूल मुरझा जाते हैं, और कुछ कांटे निकलने शुरू हो जाते हैं, नींद के फल स्वरूप। नींद में चित्त एक तरह से काम करता है, वह जो काम की प्रक्रिया है, वही क्रोध है, वही वायलेंस है, वही हिंसा है, और जागरण में चित्त दूसरे रास्ते पर काम करता है, वही प्रेम है, वही करुणा है। लेकिन कोई घृणा को प्रेम में नहीं बदल सकता।
नींद टूट जाए तो जहां से घृणा निकलती है, वहीं से प्रेम के फूल लगने शुरू हो जाते हैं। इसलिए सारा जोर जैसा कि आज तक रहा है, वह गलत सिद्ध हुआ है, आज तक यही समझाया गया है, अपने क्रोध को दबाओ और क्षमा को प्रकट करो। आज तक यही समझाया गया है, हिंसा छोड़ो और प्रेमपूर्ण हो जाओ; ये सिखावन कोई भी फल नहीं लाई। कोई अर्थ नहीं हुआ इससे। इससे कोई फर्क नहीं हुआ। आदमी की जाति वहीं की वहीं है, कोई बुनियादी भूल इस शिक्षा में थी। क्रोध को क्षमा नहीं बनाया जा सकता, घृणा को प्रेम नहीं बनाया जा सकता, वही इस शिक्षा में बात मान ली गई थी, जो बुनियादी गलत है। आदमी को सिखाया जाना जरूरी है कि तुम सोए हुए मत रहो, जागे हुए हो जाओ।
तो मैं आपसे नहीं कहता कि घृणा छोड़ो, प्रेम छोड़ो, ये आपके बस की बातें नहीं हैं। मैं आपसे कहता हूं, आप नींद छोड़ो, आप यांत्रिकता छोड़ो। और इसे भी छोड़ना नहीं है, आप इसके प्रति जाग जाएं और आप पाएंगे कि ये छूटना शुरू हो जाती हैं। जैसे कोई आदमी दीया जला कर अपने घर में जाए अंधेरे को खोजने और दीया जला कर कोने-कोने में खोजे कि अंधेरा कहां हैं? तो क्या उसे अंधेरा मिलेगा? और आपसे कहूं, आपसे कहूं।।सुनो और पकड़ मत लो, मैं तो कुछ निवेदन कर रहा हूं हार्दिक, जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह आपसे कह रहा हूं। इसलिए कि शायद आप भी सोचें और आपको भी दिखाई पड़ जाए। तो अंत में यही प्रार्थना करता हूं कि परमात्मा आपको विचार करने में समर्थ बनाए, परमात्मा आपको खुद के संबंध में सोचने में समर्थ बनाए, ताकि किसी दिन जीवन के वे सारे फूल आपको उपलब्ध हो सकें, जिनमें सौंदर्य है, सत्य है, सुगंध है, संगीत है; वे उपलब्ध हो सकते हैं।
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।