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सुख की भीतरी नदी, हमारे दुख के क्या कारण है – Inner river of happiness, what is the reason for our sorrow

सुख की भीतरी नदी, हमारे दुख के क्या कारण है

15 05 2014 lead

महात्मा बुद्ध ने कहा था कि जीवन दुखाय है, किंतु उन्होंने दुख के कारणों और उसे दूर करने के उपायों पर भी प्रकाश डाला है। बुद्ध दुख की नाव पर बैठाकर सुख की भीतरी नदी में ले जाते हैं।
धम्मपद का पहले ही पद का अर्थ है- ‘मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है। यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या पाप करता है, तो दुख उसका उसी तरह अनुसरण करता है, जैसे बैलगाड़ी का पहिया गाड़ी खींचने वाले बैलों के खुरों का अनुसरण करता है।’ इसका एक और पद है- ‘यदि कोई प्रसन्न मन से बोलता है या काम करता है, तो सुख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार उसके साथ हर समय चलने वाली छाया।’ आप जानते ही हैं कि ‘धम्मपद’ बौद्ध धर्म का वह पहला और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें गौतम बुद्ध के वचन संकलित हैं। ऊपर दिए गए शुरुआती दो वचन सबसे महत्वपूर्ण हैं। सच तो यह है कि बुद्ध के ये दोनों वचन उनके संपूर्ण जीवन-दर्शन की धुरी हैं।

बुद्ध नहीं चाहते थे कि उनकी मूर्तियां बनें, क्योंकि वे जानते थे कि मूर्तियां बनने के बाद लोग मेरी पूजा करने लगेंगे और जैसे ही किसी की पूजा की जाती है, वैसे ही उसके विचारों की प्रखरता धीमी पड़ जाती है। उसके विचार कर्मकांड में बदल जाते हैं। संयोग से सबसे ज्यादा मूर्तियां गौतम बुद्ध की ही बनाई गईं।
ये दोनों बातें बुद्ध के जीवन-दर्शन के केंद्र में रही हैं। दरअसल, बुद्ध धार्मिक बाद में थे, दार्शनिक पहले। और वे जिस तरह के दार्शनिक थे, वे भी अत्यंत वैज्ञानिक और व्यावहारिक दार्शनिक। लोगों को यह गलतफहमी है कि उन्होंने जीवन को पूरी तरह दुखमय ही माना है। हां, उन्होंने यह जरूर कहा है कि जीवन में दुख ही दुख हैं, उस दुख के कारण हैं और उन कारणों को दूर करने के उपाय भी हैं। यदि उपाय हों, तो फिर जीवन को दुखमय कैसे कहा जा सकता है। दुख के कारण क्या हैं और उसके उपाय क्या हैं, इन दोनों की ही चर्चा गौतम बुद्ध ने ‘धम्मपद’ के अपने शुरू के दोनों पदों में कर दी है। उपाय है- बुद्धि, विवेक, मन या विचार, इसे आप जो भी कहना चाहें, उसका सही उपयोग करना। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि यदि किसी की बुद्धि सही है, उसके विचार अच्छे हैं, तो कोई कारण नहीं कि वह व्यक्ति दुखी हो। यदि उसके विचार सही नहीं हैं, तो कोई भी कारण ऐसे व्यक्ति को सुखी नहीं बना सकता। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा है, क्योंकि गौतम बुद्ध सीधे-सीधे कार्य और कारण के सिद्धांत को मानने वाले प्रखर विचारक थे। वे किसी भी घटना के लिए न तो भगवान को जिम्मेदार मानते थे, न ही भाग्य को। वे इसके लिए सीधे-सीधे उस व्यक्ति के विचारों को जिम्मेदार मानते थे। इसे ही उन्होंने कर्मफल मानते हुए अपने भिक्षुकों को बार-बार याद दिया है कि ‘भलाई से भलाई पैदा होती है और बुराई से बुराई।’ इसे ही हमारे यहां कहा गया है, ‘जब बोया बीज बबूल का तो आम कहां से होय।’
यह गौतम बुद्ध का बहुत लोकप्रिय और प्रसिद्ध संदेश है कि ‘यथार्थ जगत में दुखों और पीड़ाओं को संघर्ष के जरिये नहीं, मानसिक प्रयत्नों के द्वारा ही दूर किया जा सकता है।’ जाहिर है कि मनुष्य पशु से केवल इस मायने में श्रेष्ठ है कि उसके पास बुद्धि है, विवेक है। वह सोच-समझ सकता है और अपनी सोच और समझ के अनुसार कुछ भी कर सकता है। जिसकी सोच जितनी व्यवस्थित होगी, उसका जीवन उतना ही अधिक व्यवस्थित होगा। गौतम बुद्ध का यह मानना था कि शरीर को अनावश्यक रूप से तपाने से, फालतू के धार्मिक कर्मकांडों से कभी कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने ‘मध्यमार्ग’ की बात की। बीच का मार्ग – न तो बहुत अधिक अनुशासन न ही बहुत अधिक उच्छृंखलता। इस बारे में उनका एक बहुत प्रसिद्ध वाक्य है कि ‘यदि सितार के तार को अधिक कसा जाएगा तो उससे ध्वनि नहीं निकलेगी और यदि बहुत ढीला भी छोड़ दिया, तो उससे ध्वनि नहीं निकलेगी।’
गौतम बुद्ध ने दुख के जो अन्य कारणों में से सबसे प्रमुख कारण बताए थे, वे आज के जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं। उन्होंने इसके लिए लोभ और लालसा को जिम्मेदार ठहराया था। उनके शब्द हैं – ‘यह लोभ और लालसा ही है, जो दुख का कारण है।’ इसे ही हम दूसरी शब्दावली में ‘तृष्णा’ कहते हैं, जिसका अर्थ होता है प्यास। यह कभी भी न बुझने वाली प्यास है। सामान्य तौर पर बुद्ध की यह बात बहुत सरल-सी लगती है, लेकिन यदि कोई इस पर गहराई से विचार करने लगे और इस विचार को अपने ऊपर ही लागू करके देखने लगे तो उसे समझ में आ जाएगा कि ढाई हजार साल पहले कही गई बात आज भी कितनी सही है। आप एक दिन इत्मीनान से बैठकर अपने दुखों की लिस्ट बनाइए। एक कागज पर लिखिए कि आपको कौन-कौन से दुख हैं। जब लिस्ट पूरी हो जाए, तब इस बात का परीक्षण करें कि जिसे आपने अपना दुख माना है, क्या वह सचमुच में दुख है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह दुख है तो नहीं, लेकिन आपने उसे दुख मान लिया है। इस परीक्षण के बाद आपकी लिस्ट में जो दुख बच गए हैं, उनके बारे में यह जानने का प्रयास करें कि इन बचे हुए दुखों का कारण क्या है? इसे जानने में आपको थोड़ा समय लगेगा। लेकिन यदि आप बुद्ध जयंती (पूर्णिमा) के इस मौके पर गौतम बुद्ध के विचारों से सचमुच कुछ लाभ उठाना चाहते हैं, तो आपको इतना वक्त तो लगाना ही चाहिए। आप जब अपने दुखों के कारणों की तलाश करें, तो इस बात का विशेष ध्यान रखें कि उन कारणों में खुद को भी एक कारण मानें। जब आप यह सोचेंगे कि मेरे इस दुख का कारण वह रिश्तेदार है, मेरा बॉस है, पड़ोसी है, पत्नी है, संतानें हैं, पैसा है, बीमारी है आदि न जाने क्या-क्या हैं, तो थोड़ा-सा विचार इस बात पर भी करें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इस दुख का कारण मैं भी हूं। और यदि आपके हाथ में यह नतीजा आए कि ‘मैं ही इस दुख का कारण हूं’, तो फिर आगे यह विचार करें कि ‘मैं दुख का कारण क्यों हूं?’ आपको समझ में आ जाएगा। बस, यही तो है बुद्धि का चमत्कार, जो कुछ भी कर सकता है। यही तो है गौतम बुद्ध का कार्य-कारण का सिद्धांत। यदि दुख है, तो उसका कारण भी है। चूंकि हम उसके कारण को पकड़ नहीं पाते, इसीलिए उससे मुक्ति भी नहीं मिलती।

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