दया से बढ़कर कोई यज्ञ नहीं
दया से बढ़कर यज्ञ भी नहीं सुख की खान।
दया धर्म जो पालते उनकी जग में शान॥
कानपुर शहर में एक धनवान वैश्य रहता था। वह प्रतिदिन बड़े बड़े विद्वानों को बुलाकर यज्ञ कराया करता था। इन यज्ञों को कराने में उसका समस्त धन समाप्त हो गया था। अब उस वैश्य को खाने पीने की भी तंगी हो गई थी।
एक दिन वैश्य की पत्नी ने उससे कहा कि तुम राजा के पास जाकर अपने किसी एक यज्ञ के फल को बेच आओ जिससे घर का गुजारा चल सके वैश्य ने पत्नी की बात मान ली। उसकी पत्नी ने चलते समय उसे नौ रोटियां बनाकर दीं और कहा तुम जो यज्ञ का फल बेचने जा रहे हो पता नहीं किसी राजा के पास पहुचने में पता नहीं कितना समय लगे। इसलिए मार्ग में भूख मिटाने के लिए ये रोटियां काम देंगी।
चलते चलते वैश्य तीन कोस की दूरी पर पहुच गया तो जंगल में उसे एक कुंआ दिखाई पड़ा कुए के चारों तरफ वृक्षों की छाया देखकर वह कुंए के पास बेठकर रास्ते की थकान मिटाने लगा। आराम करने के बाद उसने वृक्ष की खोह में देखा कि एक कुतिया ने नौ बच्चों को जन्म दिया है। लगातार वर्षा के कारण बेचारी कुतिया बच्चों के लिए अन्न के लिए कहां भी न जा सकी थी। कुतिया बहुत कमजोर हो गई थी। उसमें अब कहीं आने जाने की तथा चलने फिरने की ताकत समाप्त हो गई थी।
धर्मात्मा वैश्य न एक एक रोटी करके कुतिया को अपनी नौ की नौ रोटिया खिला दीं और स्वयं भूखा रह गया। उन रोटियों के खाने से कुतिया के शरीर में ताकत आ गई। इस प्रकार कुतिया और उसके बच्चे मरन से बच गए। अब वह वैश्य वहाँ से चलकर दूसरे दिन श्री 108 महाराजाधिराज राजा वेणिमाधव प्रसाद सिंह, विजयपुर नरेश के दरबार में पहुँचा ।
वह हाथ जोड़कर बोला- महाराज! मै अपने एक यज्ञ के फल को बेचने के लिए आपके पास आया हूँ। क्या मेरे द्वारा किये गये यज्ञों में से एक यज्ञ के फल को लेंगे? राजा साहब ने फौरन अपने राज्य के बड़े-बड़े विद्वानों और ज्योतिषियों को बुलाया और उनसे कहा–तुम लोग ज्योतिष और अपने ज्ञान के सहारे पता लगाओ कि इस वैश्य ने जितने भी यज्ञ किये हैं उनमें से किस यज्ञ का फल सर्वश्रेष्ठ और उत्तम है। उसी यज्ञ के फल को हम खरीद लेंगे।
राजा साहब की बात सुनकर ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर कहा महाराज! इस वैश्य ने रास्ते में जो कुतिया को रोटियाँ खिलाई थीं उससे नौ जीवों के प्राण बच गये हैं। वह ही इसके सब यज्ञों में उत्तम यज्ञ है यदि यह उसे बेचना चाहे तो आप उस फल को खरीद लें राजा ने वैश्य से पूछा तो वैश्य बोला- महाराज! मैं इस यज्ञ के फल को कदापि नहीं बेचूँगा। इसके अतिरिक्त अन्य किसी यज्ञ के फल को खरीदना चाहें तो मैं बेचने को तैयार हूँ। राजा ने अन्य यज्ञों के फलों को खरीदने को मना कर दिया और वैश्य को कुछ धन देकर सम्मान पूर्वक विदा कर दिया।
भाइयों! दया से बढ़कर इस संसार में कोई भी यज्ञ नहीं है। मनुष्य मात्र के लिए दयारूपी यज्ञ ही कल्याण प्रद है। “गोस्वामी श्री तुलसीदास जी का पवित्र आदेश है कि –
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्रान॥
यदि हम इस संसार रूपी सागर से पार होना चाहते हैं तो दयारूपी यज्ञ नित्य प्रति हमें करते रहना चाहिए। दया से बढ़कर मनुष्य के लिए कोई और सुगम एवं सरल मार्ग नहीं है। जो लोग दयालु नहीं हैं और दया को बुरा कहते है, वे लोग हिमालय के समान भूल कर रे हैं। परन्तु पापी मनुष्य को मारने में दया का त्याग करना पड़ता है।