अशोकवाटिकामें श्रीसीताजीको बहुत दुखी देखकर प्रहावीर हनुमानूजीने पर्वताकार शरीर धारण करके से कहा-‘माताजी! आपकी कृपासे मैं पर्वत, बन, प्हल, चहारदीवारी और नगरद्वारसहित इस सारी लट्टापुरीको रावणके समेत उठाकर ले जा सकता हूँ। आप कृपया मेरे साथ शीघ्र चलकर राधवेद्ध श्रीरमका और लक्ष्मणका शोक दूर कीजिये।’
हसके उत्तरमें सतीशिरोमणि श्रीजनककिशोरीजीने कहाम्रहाकपे! मैं तुम्हारी शक्ति और पराक्रमको जानती हूँ। परंतु मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती; क्योंकि मैं पतिभक्तिको दृष्टिसे एकमात्र भगवान् श्रीरमके सिवा अन्य किसी भी पुरुषके शरीरका स्पर्श स्वेच्छापर्वक नहीं करना चाहती। रावण मुझे हरकर लाया था, उस समय तो मैं निरुपाय थी। उसने बलपूर्वक ऐसा किया। उस समय मैं अनाथ, असमर्थ और विवश थी। अब तो श्रीराघवेद्र ही पधारकर रावणको मारकर मुझे शाप्र ले जाये।’