मानव! तुझे नहीं याद क्या?
तूँ ब्रह्म का ही अंश है।
मानव!तुझे नहीं याद क्या? तूँ ब्रह्म का ही अंश है।
कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, सद्ब्रह्म तेरा अंश है।।
चैतन्य है तूँ अज, अमल है, सहज ही सुख राशि है।
जन्मा नहीं, मरता नहीं,कूटस्थ है अविनाशी है।।
निर्दोष है ,निःसंग है, बेरूप है बिन टँग है।
तीनों शरीरों से रहित,साक्षी सदा बिन अंग है।।
सुख शांति का भंडार है,आत्मा परम् आनंद है।
क्यों भूलता है आप को,तुझ में ना कोई द्वंद है।।
क्यों दीन है तूँ हो रहा ? क्यों हो रहा मन खिन्न है?
क्यों हो रहा भयभीत ? तूँ तो एक तत्त्व अभिन्न है।।
कारण नहीं है शोक का,तूँ शुद्ध बुद्ध अजन्य है।
क्या काम है रे मोह का? तूँ एक आत्म अनन्य है।।
तूँ रो रहा है किसलिये? आंसू बहाना छोड़ दे।
चिंता चिता में मत जले,मन का जलाना छोड़ दे।।
आलस में पड़ना प्यारे, तुझे नहीं है सोहता।
अज्ञान है अच्छा नहीं,क्यों व्यर्थ है तूँ मोहता।।
तूँ आप अपनी याद कर,फिर आत्म को तूँ प्राप्त हो।
ना जन्म ले, मर भी नहीं, मत ताप से संतृप्त हो।।
जो आत्म सो परमात्म है , तूँ आत्म में संतृप्त हो।
ये मुख्य तेरा काम है, मत देह में आसक्त हो।।
तूँ अज, अजर है, अमर है,परिणाम तुझ में है नहीं।
सत्तचित्त तथा आनंदघन, आता न जाता है कहीँ।
प्रज्ञान शाश्वत मुक्त तुझ में, रूप है नहीं नाम है।
कूटस्थ भूमा नित्य पूर्ण, काम है निष्काम है।।
माया रची तूँ आप ने, आप ही तूँ फंस गया।
कैसा महा आश्चर्य है, तूँ भूल अपने को गया।।
संसार सागर डूब कर, गोते पड़ा है खा रहा।
अज्ञान से भव सिंधु में,बहता चला है जा रहा।।
है सर्व व्यापक आत्म तूँ,सब विश्व में है भर रहा।
छोटा अविधा से बना है,जन्म ले ले मर रहा।।
मने स्वयम को देह तूँ, ममता अहंता कर रहा।
चिंता करे है दूसरों की,व्यर्थ है तूँ मर रहा।।
करता बना भोक्ता बना,ज्ञाता प्रमाता बन गया।
दलदल शुभाशुभ कर्म में,निःसंग तूँ भी सन गया।।
करता किसी से राग है,माने किसी से द्वेष है।
इच्छा करे मारा फिरे, तूँ देश और विदेश है।।
हैं डार लीन्ही पैर में,जंजीर लाखों कामना।
रोए और चिल्लाए है,जब कष्ट का हो सामना।।
धन चाहिए सूत दारा, नाना भोग है तूँ चाहता।
अंधे कुए में कर्म के,गिर कष्ट नाना पावता।।
माया नटी के जाल में फंस,हो गया कंगाल तूँ।
दर दर फिरे है भटकता,जग सेठ मालामाल तूँ।।
तूँ कर्म बेड़ी में बंधा,जन्मे पुनः मर जाए है।
ऊँचा चढ़े है स्वर्ग में, फिर नर्क में गिर जाए है।।
मजबूत अपने जाल में,माया तुझे है बांधती।
दे जन्म तुझ को मारती,गर्भाग्नि में फिर रान्धती।।
चिंता क्षुधा भय शोकमय,रातें तुझे दिखलावती।
भँव के भयानक मार्च में,बहु भांति है भटकावती।।
संसार दलदल माहीं है, माया तुझे धँस्कावती।
तू जानता ऊँचे चढूं, नीचे लिए है जावती।
।ज्ञान अग्नि होली बाल के,माया जली को दे जला।
ज्ञान अग्नि से जाले बिना,टलनी नहीं है ये बला।।
ये ज्ञान ही केवल तुझे,सुख मुक्ति का दातार है ।
ना ज्ञान बिन सो कल्प में भी,छुटता संसार है।।
सब वृतियो को रोक कर,तूँ चित्त को एकाग्र कर।
कर शांत सारी वृतियां,निजआत्म कानित ध्यान कर।।
जब चित्त पूर्ण निरुद्ध हो,तब तूँ समाधि पाएगा।
जब तक न होगा चित्त थिर,नहीं मोह तब तक जाएगा।।
जब मोह होगा दूर तब,तूँ आत्म को लख पाएगा।
जब होए दर्शन आत्मा का,कृतकृत्य तूँ हो जाएगा।।
मन क्रम और वाणी से,जो शुद्ध पावन होए है।
अधिकारी सोही योग का,है ज्ञान पाता सोए है।।
हो तूँ सदाचारी सदा, मन इंद्रियों को जीतरे।
ना स्वप्न में भी दूसरों की,तूँ बुराई चीत रे।।
क्या-२ करूँ,कैसे करूँ,यह जानना यदि इष्ट है।
तो शास्त्र सन्त बताएंगे,जो इष्ट या क़ि अनिष्ट है।।
श्रद्धा सहित जा शरण उनकी,त्याग निज अभिमान दे।
निर्दम्भ हो, निष्कपट हो,श्रुति सन्त को सम्मान दे।।
“मैं और मेरा” त्याग दे,मत लेश भी अभिमान कर।
सब का नियंता मान कर,विश्वेश का ही ध्यान धर।।
मत मान कर्ता आप को,करतार भगवद जान रे।
तो स्वर्ग द्वारा जाए खुल,तेरे लिए सच मान रे।।
निशदिन निरन्तर बरसती, सुख मेघ की शीतल झड़ी।
भीतर न तेरे जा सके है,आड़ ममता की पड़ी।।
ममता अहंता त्याग दे,वर्षा सुधा की आएगी।
ईर्ष्या जलन बुझ जाएगी,चिंता तपन मिट जाएगी।
ममता अहंता वायु का,झोंका ना जब तक जाएगा।
विज्ञानं दीपक चित्त में तेरे,नहीं वो जुड़ने पाएगा।।
श्रुति सन्त का उपदेश जब तक,बुद्धि में नहीं आएगा।
नहीं शांति होगी लेश भी,नहीं तत्त्व समझा जाएगा।।
सिद्धान्त सच्चा है यही,जगदीश ही करतार है।
सब का नियंता है वही,ब्रह्मांड का आधार है।।
विश्वेश की मर्जी बगैर,नहीं कार्य कोई चल सके।
ना सूर्य ही है तप सके,ना चन्द्र ही है हिल सके।।
कुछ भी नहीं मैं कर सकूं,करता सभी विश्वेश है।
ऐसी समझ उत्तम महा,सच्चा यही आदेश है।।
पूरा करूँगा कार्य यह, वह कार्य मैने है करा।
पूरा यही अज्ञान है,अभिमान ये ही है खरा।।
” मैं”क्षुद्र है “मेरा” बुरा,”मुझ” भी मृषा है त्याग रे।
अपना पराया कुछ नहीं,अभिमान से हट भाग रे।।
ये मार्ग है कल्याण कहो जाए तूँ निष्पाप रे।
देहादि “मैं” मत मान रे,सोहं किया है जाप रे।।
यदि शांति अविचल चाहता,यदि इष्ट निज कल्याण है।
शंसय रहित सच मान तेरा,शत्रु ये अभिमान है।।
मत देह में अभिमान कर, कुल आदि का तज मान दे।
नहीं “देह मैं” नहीं”देह मेरा” नित्य इस पर ध्यान दे।।
है दर्प काला सर्प, सिर उस का कुचल दे, मार दे।
ले जीत रिपु अभिमान को,निज देह में से तार दे।।
जो श्रेष्ठ माने आप को,वो मूढ़ चोंटे खाए है।
तूँ श्रेष्ठ सब से है नहीं,क्यों श्रेष्ठता दिखलाए है।।
मत तूँ प्रतिष्ठा चाह रे, मत तूँ प्रशंसा चाह रे।
सब को प्रतिष्ठा दे,प्रतिष्ठित आप तूँ हो जाए रे।।
वाणी तथा आचार में,माधुर्यता दिखला सदा।
विद्या विनय से युक्त हो कर,सौम्यता सिखला सदा।।
कर प्रीति शिष्ठाचार में,वाणी मधुर उच्चार रे।
मन बुद्धि को पावन बना,संसार से हो पार रे।।
प्यारा सभी को हो सदा,कर तूँ सभी से प्यार रे।
निःस्वार्थ हो निःकाम हो,जग जान तू निस्सार रे।।
छोटे बड़े निर्धन धनी,कर प्यार सब से एक सम।
बट्टे सभी सिल एक के,कोई नहीं है बेस कम।।
मत तूँ किसी से कर घृणा,सब की भलाई चाह रे।
तव मार्ग में कांटे धरे,बो फ़ूल उस की राह रे।।
हिंसा किसी की कर नहीं,जो बन सके उपकार कर।
विश्वेश को यदि चाहता है,विश्व भर को प्यार कर।।
जो मृत्यु भी आ जाए तो,उस की ना तूँ परवाह कर।
मत दूसरे को भय दिखा,रह आप भी सब से निडर।।
निःस्वार्थ सेवी हो सदा,मन मलिन होता स्वार्थ से।
जब तक रहेगा मन मलिन,नहीं भेंट हो परमार्थ से।।
जो शुद्ध मन नर होए है,वे ईश दर्शन पाए हैं।
मन के मलिन नहीं स्वप्न में भी,ईश सम्मुख आए हैं
।पीड़ा न दे तूँ हाथ से,कड़वा वचन मत बोल रे।
संकल्प मत कर अशुभ का,सच बोल पूरा तोल रे।।
ऐसी किया कर भावना,नहीं दूर तुझ से लेश है।
रहता सदा तेरे निकट,पावन परम् विश्वेश है।।
तूँ शुद्ध से भी शुद्ध अति,जगदीश का नित ध्यान कर।
हो आप भी जा शुद्ध तूँ, मैला न अपना चित्त कर।।
हो चित्त तेरा खिन्न ऐसा,शब्द मत तूँ सुन कभी।
मत देख ऐसा दृश्य ही,मत सोच ऐसी बात भी।।
जो नारी नर भगवद विमुख,संसार में आसक्त हैं।
विपरीत करते आचरण,निज स्वार्थ में अनुरक्त हैं।।
कंजूस कामी क्रूर जे,पर दार रत पर धन हरे।
मत पास उनके जा कभी,जो अन्य की निंदा करे।।
रह दूर हरदम पाप से,निः पाप हो निः काम हो।
निर्दोष पातक से रहित,निः संग आत्माराम हो।।
भगवद परम् निष्पाप है,तूँ पाप अपने धोए रे।
भगवद तुरन्त दर्शन दे,अघ हीन यदि तूँ होए रे।।
जे लोक की परलोक की,नहीं कामनाएं त्यागते।
संसार के हैं श्वान जे, संसार में अनुरागते।।
कंचन जिन्हें प्यारा लगे,जो मूढ़ किंकर काम के।
नहीं शांति वे पाते कभी,नहीं भक्त होते राम के।।
रह लोभ से अति दूर ही,जा दर्प के तूँ पास ना।
बीच काम से अरु क्रोध से,कर गर्व से सहवास ना।।
आलस्य मत कर भूल भी,ईर्ष्या न कर मत्सर न कर।
हैं आठ ये वैरी प्रबल, इन वैरियों से भाग डर।।
विश्वास से कर मित्रता,श्रद्धा सहेली ले बना।
प्रज्ञा तितिक्षा को बढ़ा,प्रिय न्याय का कर त्याग ना
गम्भीरता शुभ भावना,और धैर्य का सम्मान कर।
हैं आठ सच्चे मित्र ये,कल्याण कर भव भीर हर।।
शिष्टाचरन की ले शरण,आचार दुर्जन त्याग दे।
मन इन्द्रयाँ स्वाधीन कर, तज द्वेष से तज राग दे।।
सुख शांति का ये मार्ग है,श्रुति दन्त कहते सभी।
दुर्जन दुराचारी नहीं पाते,अम्र पद हैं कभी।।
अभ्यास ऐसा कर सदा,पावन परम् हो जाए रे।
कर सत्य पालन नित्य ही,नहीं झूठ मन में आए रे।।
झूठे सदा रहते फंसे,माया नटी के जाल में।
तूँ सत्य भूमा प्राप्त कर,मत काल के जा गाल मेँ।।
है सत्य भूमा एक ही,मिथ्या सभी संसार रे।
तल्लीन भूमा माहीं हो,कर तात निज उद्दार रे।।
कर मुख्य निज कृतव्य तूँ,स्वराज्य भूमा प्राप्त कर।
मन यक्ष राक्षस पूजने में,दिव्य देह समाप्त कर।।
सच जान जो हैं आलसी,निज हानि करते हैं सदा।
करते उन्हों का संग जो,वे भी दुखी हों सर्वदा।।
आलस्य को दे त्याग तूँ,मन क्रम शिष्ठाचार कर।
अभ्यास कर ,वैराग्य कर, निज आत्म का उद्यार कर।।
मधु मक्षिका करती रहे है,रात दिन ही काम ज्यों।
मत दीर्घशुत्री बन कभी,कर तूँ निरन्तर काम त्यों।।
तन्द्रा तथा आलस्य में,मत कहो समय को तूँ वृथा।
कर कार्य सारे नियम से,रवि चन्द्र करते हैं यथा।।
हो उद्यमी सन्तुष्ट तूँ,गम्भीर धीर उदार हो।
धारणा क्षमा उत्साह कर, शुभ गुणन का भंडार हो।।
कर कार्य सर्व विचार से,समझे बिना मत कार्य कर।
शम दम यमादिक पाल तूँ,तप कर तथा स्वाध्याय कर।।
जो धैर्य नहीं हैं धारते,भँव देख घबरा जाए हैं।
सब कार्य उन के व्यर्थ हैं, नहीं सिद्धि वे न्र पाए हैं।।
चिंता कभी मिटती नहीं,नहीं दुःख उनका जाए है।
पाते नहीं सुख लेश भी,नहीं शांत मुख दिखलाए हैं।।
गर्मी न थोड़ी सह सकें,सर्दी सही ना जाए रे।
नहीं सह सके हैं शब्द एक,चढ़ क्रोध उन पर आए रे।।
जिसमे नहीं होती क्षमा,नहीं शांति वे नर पाए हैं।
शुचि शांत मन सन्तुष्ट हो,सो नर सुखी हो जाए रे।।
मर्जी करेगा दूसरों की,सुख नहीं तूँ पाएगा।
नहीं चित्त होगा थिर कभी,विक्षिप्त तूँ हो जाएगा।।
संसार तेरा घर नहीं,दो चार दिन रहना यहां।
कर याद अपने राज्य की,स्वराज्य निष्कंटक जहां।।
सम्बन्ध लाखों व्यक्तियों से,यदि करेगा तूँ सदा।
तो कार्य लाखों भांति के,करता रहेगा सर्वदा।।
कैसे भला फिर चित्त तेरा,शांत निर्मल होएगा।
लाखों जिसे बिच्छु डसे,कैसे बता वो सोएगा।।
तूँ न्यायकारी हो सदा,सम बुद्धि निश्चल चित्त हो।
चिंता किसी की मत करे,निर्द्वन्द हो मन शांत हो।।
प्रारब्ध पर दे छोड़ सब जग,ईश्वर में अनुरक्त हो।
चिन्तन उसी का कर सदा,मत जगत में आसक्त हो।।
कर्ता वही ,धर्ता वही,सब में वही,सब है वही।
सर्वत्र उस को देख तूँ,उपदेश सच्चा है यही।।
अपना भला ज्यों चाहता,त्यों चाह तूँ सब का भला।
सन्तुष्ट पूरा शांत हो,चिंता बुरी काली बला।।
हे पुत्र!थोड़ा वेग भी,दुःख का ना उठा सके।
तो शांति अविचल तत्त्व की,कैसे भला तूँ पा सके।।
हो जब मृत्यु का सामना,तब दुःख होवेगा घना।
कैसे सहेगा दुःख सो,यदि धैर्य तुझ में होए ना।।
कर तूँ तितिक्षा रात दिन,जो दुःख आवें झेल ले।
वही अमर पद पाए हैं, जो कष्ट से नहीं हैं हिले।।
हैं दुःख ही संमित्र सब कुछ,दुःख ही सिखलाए है।
बल बुद्धि देता दुःख,पंडित, धीर, वीर बनाए है।।
बल बुद्धि तेरी की परीक्षा,दुःख आ कर लेय है।
जो पाप पहले जन्म के हैं, दूर सब कर देय है।।
निर्दोष तुझ को देय कर, पावन बनाता है तुझे।
क्या सत्य और असत्य क्या,ये भी सिखाता है तुझे।।
कष्ट से तूँ घबरा न जा रे,कष्ट ही सुख मान रे।
जो कार्य न हो सिद्ध तो भी,लाभ उस में जान ले।।
बहु बार पटकी खाई है,तब मल्ल मल्लन पीटता।
लड़ता रहे जो धर्म से,माया किला है जीतता।।
यदि कष्ट से घबराए के, तूँ युद्ध से हट जाएगा।
तो तूँ जहां पर जाएगा, बहु भांति कष्ट उठाएगा।।
जन्मे कहीं भी जाए के,नहीं मुक्त होगा युद्ध से।
रह युद्ध करता धैर्य से,जब तक मिले नहीं शुद्ध से।।
इस में नहीं सन्देह जीवन,झंझटों से युक्त है।
वे ही यहां सुख पाए हैं, जो धैर्य से संयुक्त हैं।।
समता क्षमा से युक्त ही,मन शांत रहता है यहां।
जो कष्ट सह सकता नहीं,सुख शांति उस को है कहाँ।
जो जो करे तूँ कार्य,कर सब शांत हो कर धैर्य से।
उत्साह से,अनुराग से,मन शुद्ध से,बल वीर्य से।।
जो कार्य हो जिस काल का,कर तूँ समय पर ही उसे।
दे मत बिगड़ने कार्य,कोई मूर्खता आलस्य से।।
दे ध्यान पूरा कार्य में, मत दूसरे में ध्यान दे।
कर तूँ नियम से कार्य सब,खाली समय मत जान दे।।
सब धर्म अपने पूर्ण कर,छोटे बड़े से या बड़े।
मत सत्य से तूँ डिग कभी,आपत्ति कैसी भी पड़े।।
निःस्वार्थ हो कर कार्य कर,बदला कभी मत चाह रे।
अभिमान मत कर लेश भी,मत कष्ट की परवाह रे।।
क्या खान हो क्या पान हो,क्या पूण्य हो क्या दान हो।
सब कार्य भगवद हेतु हों,क्या होय जप या ध्यान हो।।
कुछ भी न कर अपने लिए,सब कार्य कर शिव के लिए।
पूजा करे या पाठ कर,सब प्रेम भगवद के लिए।।
सब कुछ उसी को सौंप दे,निश दिन उसी से प्यार कर।
सेवा उसी की कर सदा,दूजा न कुछ व्यापार कर।।
सेवक उसी का बन सदा,सब में उसी का दर्श कर।
“मैं और मेरा” मेट दे,सब में उसी का स्पर्श कर।।
निर्द्वन्द निर्मल चित्त हो,मत शोक कर मत हर्ष कर।
सब में उसी को देख तूँ,मत राग मत आमर्ष कर।।
मनुष्य जन्म में यद्यपि,आते हजारों विघ्न हैं।
जो युक्त योगी होय हैं, होते नहीं मन खिन्न हैं।।
हो झंझटों से युक्त जीवन,कुछ ना तूँ परवाह कर।
भगवद भरोसे से सदा,सुख शांति से निर्वाह कर।।
विद्या सभी ही भांति की,ले सीख तूँ आचार्य से।
उत्साह से अति प्रेम से,मन बुद्धि से और धैर्य से।।
एकाग्र हो कर पढ़ सदा,सब और से मन मोड़ कर।
सब से हटा कर वृतियां,स्वाध्याय में मन जोड़ कर।।
वेदांग पढ़,साहित्य पढ़,फिर काव्य पढ़ तूँ चाव से।
पढ़ गणित ग्रन्थं तर्क शास्त्र,धर्म शास्त्रन भाव से।।
इतिहास अष्टादश पुराणन नीति शास्त्र देख रे।
वैद्यक तथा वेड पढ़ चारों, योग विद्या पेख रे।।
सद्ग्रन्थ पढ़ तूँ भक्ति शिक्षक,ज्ञान वर्धक शास्त्र पढ़।
विद्या पढ़ सब श्रेयकारिणी,मोक्ष दायक शास्त्र पढ़।।
आदर सहित अनुराग से,सद्ग्रन्थन का ही पाठ कर।
दे चित्त शिष्ठाचार में, दुराचरण पर लात धर।।
क्या ग्रन्थ पढ़ने चाहिए,आचार्य तुझे बताएंगे।
पढ़ने नहीं हैं योग्य क्या क्या,ग्रन्थ वे जतलाएंगे।।
आचार्य श्री बतलाएं जो, वे ग्रन्थ पढ़ने चाहिए।
जो ग्रन्थ धर्म विरुद्ध हैं, नहीं देखने वे चाहिए।।
पढ़ ग्रन्थ नित्य विवेक के,मन स्वच्छ तेरा होएगा।
वैराग्य के पढ़ ग्रन्थ तूँ,बहु जन्म के अघ धोएगा।।
पढ़ ग्रन्थ सादर भक्ति के,आल्हाद मन भर जाएगा।
श्रद्धा सहित स्वाध्याय कर, संसार से तर जाएगा।।
जो पढ़े सब याद रख,दिन रात नित्य विचार कर।
स्रुतियां भले स्मृतियां पुराणादिक, सभी निरधार कर।।
अभ्यास से सदशास्त्र के,जब बुद्धि तीव्र बढ़ाएगा।
तो तीव्र प्रज्ञा की मदद से,तत्त्व तूँ लख पाएगा।।
जो नर दुराचारी तथा,निज स्वार्थ में रत्त होए हैं।
गिर कूप में वे मोह के,सुख शांति से नहीं सौए हैं
भटका करें ब्रह्मांड में , बहु भांति कष्ट उठावते।
मतिमन्द श्रुति के अर्थ को,सम्यक समझ नहीं पावते।।
मत मोह में तूँ फंस कभी,निर्मुक्त हो सम्मोह से।
कर बुद्धि निर्मल स्वच्छ,रह दूर तुं दुःख द्रोह से।।
जब चित्त होगा स्वच्छ,तब ही शांति अक्षय पाएगा।
जो जो पढ़ेगा शास्त्र तूँ,सम्यक समझ में आएगा।।
आचार्य द्वारा शास्त्र पढ़,हो शांत मन एकाग्र से।
विक्षिप्तता को दूर करके,बुद्धि और विचार से।।
कर गर्व विद्या का नहीं,अभिमान से निर्मुक्त हो।
ज्ञानी अमानी सरल गुरु से,पढ़ विनय संयुक्त हो।।
एकाग्रता मन शुद्धता ,उत्साह पूरा धैर्यता।
श्रद्धानुराग,प्रशन्नता,अभ्यास की कर परिपूर्णता।।
मन बुद्धि की चातुर्यता, होवे सदा सहायक सर्व ही।
फिर देर कुछ भी नहीं लगे,हो प्राप्त विद्या शीघ्र ही।।
हो बुद्धि निर्मल सात्विकी,हो चित्त उत्तम धारणा।
हो कठिन से भी कठिन तो भी सहज हो निस्तारणा।।
हों स्थूल अथवा सूक्ष्म बातें,सब समझ में आएंगीं।
इक बार भी सुन ले जिन्हें,मस्तक से नहीं जाएंगीं।।
विद्या कर सभी प्राप्त,मत पांडित्य का अभिमान कर।
अभिमान विद्या का बुरा,ईस पर सदा ही ध्यान धर।।
मत वाद कर विवाद ही,कल्याण सहित स्वाध्याय कर।
क्या सत्य और असत्य क्या,ये जानकर निज श्रेय कर।।
विद्या बताती है तुझे,क्या धर्म और अधर्म है।
विद्या जताती है तुझे,क्या कर्म और कर्म है।।
विद्या सिखाती है तुझे, कैसे छूटे संसार से।
विद्या पढ़ाती है तुझे,कैसे मिले भंडार से।।
गुरु वाक्य का कर अनुसरण,विश्वास श्रद्धा युक्त हो।
बतलाए जो है शास्त्र,कर आचार शंसय मुक्त हो।।
जो जो बताते शास्त्र गुरु,उपदेश सर्व यथार्थ है।
न उस में कर कभी,यदि चाहता परमार्थ है।।
संध्यादि जितने कर्म हैं, सब ही नियम से पाल रे।
उत्साह से अनुराग से,मन दौष सारे ताल रे।।
जे कर्म पातक रूप हैं, मत चित्त से भी कर कभी।
जो जो करे तूँ कर्म निशदिन,शुद्ध मन से कर सभी।।
हो प्रेम पूरा कर्म में,परिपूर्ण मन उत्साह हो।
तन मन लगा कर कर्म कर,फल की कभी ना चाह हो।।
चातुर्य से कर्म कर, मत लेश भी अभिमान कर।
सब कार्य भगवद हेतु कर, विश्वेश पूजन मान कर।।
चौथे पहर की रात में,जब पूण्य ब्रह्म मुहूर्त हो।
दे त्याग निद्रा प्रथम ही,मत नींद में अनुरक्त हो।।
विश्वेश का मन में ध्यान कर,कल्याण अपने के लिए।
विश्वेश से कर प्रार्थना,निज भक्ति देने के लिए।।
जप नाम भगवद भाव प्रिय का,भाव में तल्लीन हो।
हो प्रेम केवल ईश में,भगवद चरण में मीन हो।।
अपना पराया भूल जा,हड़ी प्रेम में अनुरक्त हो।
आसक्ति सब की छोड़ केवल,विष्णु में आसक्त हो।।
जप नाम हरीका जोर से,धीरे भले ही ध्यान में।
हरिनाम का हर रोम में से, शब्द आवे कान में।
विश्वेश को कर प्यार प्यारे,आत्म का कल्याण कर।
सब को मिटा दे सर्व होजा,ईश का नित ध्यान कर।।
सुख शांति का भंडार तेरे , चित्त में ही गुप्त है।
पर्दा हटा होजा सुखी,क्यों हो रहा संतृप्त है।।
सुख सिंधु में तूँ मग्न हो,मन मेल सारा दे बहा।
हो शुद्ध निर्मल चित्त तूँ ही,विश्व में है भर रहा।।
पावन परम् शुचि शास्त्र में से,मंत्र पावन सार चुन।
उन का निरन्तर कर मनन,विश्वेश के गा नित्य गुण।।
जो सन्त जीवन मुक्त,ईश्वर भक्त पहले हो गए।
उन की कथाएं गा सदा,मन शुद्ध करने के लिए।।
सद्गुरु कृपा गुण युक्त का ,उठ प्रातः ही धर ध्यान रे।
निज देह से अरु प्राण से, प्यारा अधिकतर मान रे।।
सिर को झुकाकर दण्डवत कर, नमन आठों अंग से।
कल्याण सब का चाह मन मेँ, दूर रह जन संग से।
एकन्त में तूँ जाए कर, फिर वेग का परित्याग कर।
दांतुन कर के दांत मल,मुख धोए जिभ्या साफ़ कर।।
रवि के उदय से पूर्व ही, हो शुद्घ जा तूँ स्नान से।
शुचि वस्त्र तन पर धार के, कर प्रातः सन्ध्या मान से।।
उच्चारण पावन मंत्र कर, मन मंत्र में ही जोड़ कर।
कर अर्थ की भी भावना,भँव वासनाएं छोड़ कर।।
कर ब्रह्म से मन पूर्ण ,सब में ब्रह्म व्यापक देख रे।
कर क्षीण पापन मेख पर भी, मार दे तूँ मेख रे ।।
जो कर्म होवे आज का,ले पूर्व से ही सोच सब।
ये कार्य कैसे होएगा, किस रीति से हो और कब।।
जो कार्य जिस जिस काल का हो,पूर्ण मन में धार ले।
जिस जिस नियम से कार्य करना,हो भले निरधार ले।।
सन्मुख सदा रह ईश के,तेरा सहायक है वही।
करुणा जलधि हरि की शरण ले,श्रेय कर्क है वही।।
जो ले करुणा निधि शरण,संसार सो ही तर सके।
जिस पर कृपा हो ईश की,साधन वो ही कर सके।।
विश्वेश की ही ले शरण,संसिद्धि तब ही प्राप्त हो।
केवल उसी का कर भरोसा,मात्र उस का भक्त हो।।
जो कुछ तुझे हो इष्ट सो,केवल उसी से मांग रे।
मत कर भरोसा अन्य का,आशा सभी की त्याग रे।।
सच्चे हृदय से प्रार्थना,जब भक्त सच्चा गाए है।
तो भक्त वत्सल कान में,वो पहुंच झट ही जाए है।।
विश्वेश करुणा कर तुरत ही,भक्त पर कृपा करें।
लाखों करोड़ों जन्म के अघ,एक क्षण में ही हरे।।
सच्चे हृदय की प्रार्थना ,निश्चय सुने जग वास है।
नहीं भक्त से है दूर वो, रहता सदा ही पास है।।
ज्यों- २ करेगा प्रार्थना, भय दूर होता जाएगा।
कर प्रार्थना,कर प्रार्थना,कर प्रार्थना,सुख पाएगा।।
संसार मिथ्या वस्तुओं में,यदि नहीं तुझे राग हो।
शंसय नहीं हड़ी चरण में,जल्दी तुझे अनुराग हो।।
कर प्रार्थना! विश्वेश से ,पृभु!भक्ति अपनी दीजिए।
हो प्रेम केवल आप में ,ऐसी कृपा पृभु कीजिए।।
कर प्रार्थना फिर प्रेम से,पृभु!मम विनय सुन लीजिए।
हे नाथ! मै भुला हुआ हूँ, मार्ग दिखला दीजिए।।
मुझ अंधे को पृभु आँख दीजे, द्र्श्य अपना दीजिए।
निज चरण की रज सेवा में, मुझ को लगा पृभु दीजिए।।
संसार सागर पार। मै, नहीं जा सकूं हूँ ! हे पृभु।
मल्लाह मेरी नाव के, जब तक नहीं हो आप पृभु।।
उठता यहां है ज्वार भाटा, रोक उस को दीजिए।
संसार सागर पर मुझको,शीघ्र ही कर दीजिए।।
सर्वज्ञ हैं पृभु सर्व विदित,करुणा दया से युक्त हैं।
स्वाभाविक बल क्रिया से,पृभु सहज ही संयुक्त हैं।।
नहीं मै हिताहित जानता, पृभु!ज्ञान हम को दीजिए।
भूले हुए मुझ पथिक को,भँव पार स्वामी कीजिए।।
पृभु आप की मैं शरण हूँ,निज चरण सेवक कीजिए।
मैं कुछ नहीं हूँ मांगता ,जो आप चाहें दीजिए।।
आँख से मंजूर है,सुख दीजिए दुःख दीजिए।
जो होए इच्छा कीजिए,मत दूर दर से कीजिए।।
हैं आप ही तो सर्व, फिर कैसे करूँ मैं प्रार्थना।
सब कुछ करे हैं आप ही,क्या बोलना क्या चलना।।
फिर बोलना किस भांति हो,है मौन ही सब से भला।
रक्षक तूँ ही भक्षक तूँ ही,तलवार तूँ तेरा गला।।
विश्वेश पृभु के सामने,कर प्रार्थना इस रीति से।
या अन्य कोई भांति से,सच्चे हृदय की प्रीति से।।
जो होए सच्ची प्रार्थना,विश्वेश सुनता है सभी।
विश्वेश की आज्ञा बिना,पत्ता नहीं हिलता कभी।।
फिर कार्य कर अपना सभी,दिन का नियम से ध्यान से।
एकाग्र हो कर धैर्य से,आनंद मन सुख चैन से।।
घबरा न जा मन शांत रख,मत क्रोध में में ला कभी।
पृभु देव देव प्रशन्नता हित, कार्य हो जो कर सभी।।
जब सयन का आवे समय,एकांत में तब बैठ कर।
जो कार्य दिन में हो किया,ले सोच सब मन स्वस्थ कर।।
जो जो हुई हों भूल दिन में,सर्व लिख ले चित्त पर।
आगे कभी नहीं भूल होने, पावे ऐसा यत्न कर।।
जो कार्य करना हो तुझे,अच्छी तरह से सोच ले।
मत कार्य कोई कर बिना, सोचे बजा ले ठोक ले।।
सोचे बिना जो कार्य करते,अंत में गिर जाए हैं।
जो कार्य करते सोच कर, वो ही सफलता पाए हैं।।
राजा नहुष जैसे गिरा था,स्वर्ग से ऋषि शाप से।
आसक्त हो जो भोग में,हों तप्त वो सन्ताप से।।
सब कार्य कर तूँ न्याय से,अन्याय से रह दूर तूँ।
आश्रय ले सदा धर्म का,मत क्रोध हो मत क्रूर तूँ।।
हो उच्च तेरी भावना,मत तुच्छ कर तूँ कामना।
कृतव्य से मत चूक चाहे, मौत से हो सामना।।
जो पास भी हो मृत्यु तो भी,मृत्यु से कुछ भय न कर।
डरपोक कायर मृत्यु से,भयभीत रहते तूँ न डर।।
आचार अपना शुद्ध रख,नट हो दुराचारी कभी।
मत कार्य कोई रख अधूरा,कार्य पूरे कर सभी।।
मत तुच्छ भोगों की कभी भी,भूल के कर कामना।
है ब्रह्म अक्षय नित्य सुख,कर तूँ उसी की भावना।।
पुरुषार्थ अंतिम सिद्ध कर,आशा जगत की छोड़ रे।
भय शोक पर्द हैं सभी,मुख भोग से तूँ मोड़ रे।।
विश्वेश सुख के सिंधु में ही,चित्त अपना जोड़ दे।
रिश्ता उसी से जोड़ ले, नाता सभी से तोड़ ले।।
जैसे झड़ी बरसात की,सब चर अचर की जान है।
त्यों ही दया विश्वेश की,सब विश्व जीवन दान है।।
सब पर दया है एकसी,क्या यज्ञ है क्या प्रज्ञ है।
सब के मिटाती दुःख,सब ही को बनाती तज्ञ है।।
सचमुच मिटाती कष्ट सारे,शांति अक्षय देय है।
कुण्डी उसी की खटखटा,यदि चाहता निज श्रेय है।।
अध्यात्म का अभ्यास कर,संसार से वैराग्य कर।
कृत्य ये ही मुख्य है,विश्वेश से अनुराग कर।।
संसार जीवन से बना,आध्यत्म जीवन अपना।
सुख शांति जिस में पूर्ण,जिस में दुःख ना सन्ताप ना।।
जीवन बीता इस भांति से,नहीं प्राप्त फिर संसार हो।
सद ब्रह्म में तल्लीन हो कर,सार का भी सार हो।।
शिष्टाचरन में प्रीत कर, हो धर्म पर आरूढ़ तूँ।
हो शुभ गुणों से युक्त तूँ,रह अवगुणों से दूर तूँ।।
जो धर्म पर आरूढ़ हैं,वे शूर होते धीर भी।
हैं सत्य निशदिन पालते,नहीं सत्य से हटते कभी।।
यदि पूण्य में रत्त हो गया तो, धीर तूँ बन जाएगा।
जो पूण्य थोड़ा होए तो भी,कीर्ति जग फैलाएगा।।
मत स्वप्न में भी पाप का,आचार कर तूँ भूल कर।
निष्पाप रह निष्काम रह पापाचरण पर धूल धर।।
हो पूण्य में तूँ रत्त सदा,दे दान तूँ सम्मान से।
उत्साह से सुख मान कर, दे दान मत अभिमान से।।
है वस्तु सब विश्वेश की,अभिमान तेरा है वृथा।
निज स्वार्थ तज कर कार्य कर,बादल करें वर्षा यथा।।
अभिमान मत कर द्रव्य का,अभिमान तज दे गेह का।
अभिमान कुल का त्याग दे,अभिमान मत कर देह का।।
कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ,सब ईश को ही मान रे।
मन बुद्धि शिव को अर्प कर दे,शिव का सदा कर ध्यान रे।।