उद्गार मौन के स्वस्थ मन कैसा?
श्रोता: गुरूजी, ये जो कहा जाता है, कि बुद्धि और मन अलग हैं| अभी आपने बताया कि मन है, तो उसे मन से ही काटेंगें| ‘मन’ और ‘बुद्धि’ में क्या अंतर है? कृप्या स्पष्ट करें|
वक्ता: यह सब अंतःकरण के हिस्से होते हैं: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार| ठीक है? इनमें सूक्ष्म ही भेद है, कुछ खास नहीं| असल में, जो गति करता रहता है; मन की वो शक्ति जो लगातार गति करती रहती है, उसको हम ‘बुद्धि’ कह देते हैं| बुद्धिजीवी वही है, जो लगातार ‘मन’ के इशारे पर चलता रहे| मन का जो सबसे अग्रणी, तीव्र, नुकीला, हिस्सा होता है, वो ‘बुद्धि’ कहलाता है| वही होती है जो बेध करके, छेद करके, देख लेती है, आगे बढ़ती है|
इसको शास्त्रों में जिस तरीके से कहा गया है, वो यह है कि “मन वो, जो पूरे संसार की रचना करता है”| तो इन्द्रियों से सामग्री को भीतर लेता है, और उन सामग्रियों से चित्र और छवियाँ रचता है| उसको कहते हैं ‘मन’|
‘बुद्धि’ वो, जो उन छवियों को अर्थ देती है और उनकी विवेचना करती है|
‘चित्त’ वो, जिसमें वो सारे अर्थ, सारी छवियाँ, सारी विवेचनाएँ, जाकर संग्रहित हो जाते हैं| भण्डार, फेहरिस्त|
‘अहंकार’ वो, जो पहले के तीन हैं: ‘मन’, ‘बुद्धि’, और ‘चित्त’, इन तीनों से एक होने का भाव अहंकार कहलाता है| तादात्म्य| इन तीनों से जो तादात्म्य होता है, वो अहंकार कहलाता है|
तो यह अंतःकरण, चतुष्टय कहलाता है| भीतर, जो हमारे महसूस होता रहता है कि “मैं हूँ”, “मैं हूँ”, उसके यह चार हिस्से होते हैं|
अब तुम कभी यह शब्द नहीं सुनोगे, ‘मन-जीवी’, पर तुम ये शब्द सुनते हो, ‘बुद्धिजीवी’, क्योंकि हम ज्यादा महत्व अर्थ देने को देते हैं| बुद्धि का काम होता है अर्थ देना| बुद्धि का काम होता है, तोड़ कर देखना| मन इतना ही करेगा कि छवि खड़ी करेगा| फिर उस छवि को पुराने सारे ज्ञान से जोड़ करके देखना, उसके हिस्से करना, उनका भविष्य के लिए क्या अर्थ बन सकता है यह सारे प्रक्रमण करना, ये काम जो भीतर करता है, उसको कहते हैं बुद्धि|
इसमें एक बात ख्याल में रखने की है, ये कोशिश मत कर लीजियेगा कि जो मन पहले ही सरल है, सीधा-साधा है, उसको आप जटिलता से निपटने के पाठ पढ़ाने लगें| वो पहले ही सरल है| उसको जटिलता के लक्षण बता करके, उसको जटिलता के विरुद्ध सावधान करके, आप उसे व्यर्थ ही जटिल बना रहे हैं| बात समझ रहें हैं ना?
जो सवाल बहुत पूछता हो, उसको तो कहिए कि “देखो, सवालों की जो पूरी तकनीक होती है, वो ऐसी-ऐसी होती है| और बाकी सारे सवालों से ज्यादा ज़रूरी है कि पूछो, कि “मैं कौन हूँ? सवाल पूछने वाला कौन है?”| लेकिन जो पहले ही शांत बैठा हो, उसको ये सब ज्ञान मत देने लग जाइएगा| वो तो यूँ ही शांत है, आप व्यर्थ ही उसके मन में लहरें उठा रहे हैं, उसे ये सब ज्ञान दे कर|
जो जटिल चित्त होता है, उसको फ़ायदा, जटिलता से ही होता है| जटिलता ही जटिलता को काटती है और उसे सरलता की ओर ले जाती है| काँटा, काँटे को निकालता है| लेकिन जिसके पाँव में काँटा घुसा ही नहीं है, उसके काँटा मत लगाने लग जाइएगा! लेकिन हम जिनके शुभाकांक्षी होते हैं, उनको लेकर हम कई बार घबरा जाते हैं| हम कहते हैं, “अरे! इसे तो कोई सूत्र पता नहीं! इसने तो कोई धर्मग्रंथ पढ़ा नहीं! इसे तो ज्ञान की दो बातें भी नहीं पता हैं! तो इसको बैठाओ, और इसको खूब ज्ञान पिलाओ|”
उसे ज्ञान की वास्तव में जरुरत है क्या? यह नाप लीजियेगा| मैं जो बात कह रहा हूँ उसको समझियेगा- ज्ञान की जरुरत, मात्र ज्ञानी को होती है| (हँसते हुए) ज्ञान की जरुरत सिर्फ़ उसे है, जिसने पहले से ज्ञान इकट्ठा कर रखा हो| आम-तौर पर हमें ऐसा लगता है कि जो अज्ञानी है, उसे ज्ञान चाहिए| बात बिल्कुल गलत है| अज्ञानी, अगर कोई है, तो यह उसका सौभाग्य है| अज्ञानी को अज्ञानी रहने दीजिये! पक्षियों को दर्शन-शास्त्र मत पढ़ा दीजियेगा| वो बेचारे भले हैं, सहज हैं, प्रकृतिस्थ हैं| उन्हें नहीं चाहिए आपका ज्ञान! अज्ञानी को अज्ञानी रहने दो| ज्ञानी को ज्ञान की जरुरत है| कोई भोला-भाला, सहज, सरल हो, उसे यहाँ, इस सभा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है| आपको ज़रुरत है, क्योंकि आप चतुर-चालाक हैं| चूँकि आप चतुर-चालक हैं, इसीलिए जरुरत है कि आपके कानों में कुछ ऐसे शब्द पड़ें, जो आपकी चालाकी से ज्यादा चालक हों| ज्ञान, ज्ञानी को चाहिये|
चूँकि आप सोचते बहुत हैं, इसीलिए आपसे जो कहा जा रहा है, वो आपको, आपसे ज्यादा परिष्कृत, संवर्धित, बेहतरीन सोच दी जा रही है| क्योंकि सोचते तो तुम हो ही ना? तो लो, ये लो, ये उम्दा ख्याल है| अब इस ख्याल से निपट कर दिखाओ, तो जानें! और इसीलिए, इन बातों का महत्व है, क्योंकि ये ऊँचे-से-ऊँचे ख्याल हैं| ये सूक्ष्मतम विचार हैं| ये वो विचार हैं, जो निर्विचार के बिल्कुल क़रीब बैठे हुए हैं, सटके| तो आपकी सारी बुद्धि जो विचारणा पैदा करती है, ये उससे ऊँचे तल के हैं| आपके सारे तर्क इनके सामने हार जाते हैं, क्योंकि ये अति-सूक्ष्म तर्क हैं| पर हैं तो ये भी तर्क ही| बात समझ रहें हैं? इन तर्कों की जरुरत आपको इसलिये है, क्योंकि आप बिना तर्कों के मानोगे नहीं| क्योंकि आपकी जीवन शैली ही तार्किक हो चुकी है| इसीलिए आपको ये तर्क दिये जाते हैं|
कोई ऐसा मिल जाए, जिसको तर्कों से कोई ख़ास लेना-देना नहीं, तो उसको तर्क मत पढ़ाने लगिएगा| आप व्यर्थ उसको परेशान करोगे| वो वैसा ही होगा कि कोई बीमार नहीं है और उसको आपने दवाई दे दी!
देखिए, एक व्यक्ति होता है, उसकी दृष्टि में दुनिया एक ख़तरनाक जगह होती है| उसे हर जगह, ख़तरा ही ख़तरा दिखाई दे रहा होता है| ज़रूरी होता है कि इस व्यक्ति के साथ, ख़तरों की बात की जाए| “आओ, आज बैठ कर, उस ख़तरे की बात करते हैं|” जिस वस्तु को, व्यक्ति को या स्थिति को वो ख़तरनाक कह रहा है, उसके साथ, उसके करीब जाया जाए| “आओ, ज़रा इस ख़तरे को ठीक-ठीक देखते हैं, पास जा करके|” आप उससे जो भी बात करेंगें, वो बात, ख़तरे की ही होनी चाहिए क्योंकि उसके दिमाग पर उन ख़तरों का ही कब्ज़ा है| तो आप जब भी उसके साथ बैठें, तो दुनिया में जो कुछ भी बुरा हो रहा है, हिंसक है, हानिकारक है, आपको उसकी ही बात करनी पड़ेगी, क्योंकि उसके अलावा और कोई बात आप कर भी नहीं सकते| उसके दिमाग में लगातार यही तो चल रहा है| तो यही बात आपको करनी भी पड़ेगी, और उचित है कि वही बात की जाए|
और एक दूसरा व्यक्ति है, जिसे ख़तरा दिखाई ही नहीं देता, जो मस्त है| आप जब उसके साथ बैठोगे, तो आपको डर लग सकता है| आप कहोगे, “अरे! इसे कोई ख़तरा दिखाई ही नहीं देता| कहीं इसका कोई नुकसान ना हो जाए| और आपके भीतर ये इच्छा उठेगी कि आप इससे भी ख़तरों की ही बात करो| यह गलत है| इसमें गड़बड़ है| ये व्यक्ति स्वस्थ है| इसे मत दे दीजिये अपनी दवाईयाँ| जिसे दुनिया में खोट न नज़र आती हो, उसके साथ व्यर्थ ही चर्चा मत करिये कि “क्या खोट है? कहाँ खोट है? कैसे है? और उसका उपचार-इलाज क्या है?”| कोई जरुरत नहीं है! विद्वानों के साथ बैठ करके, कर लीजिये ख़ूब चर्चा| सारा दर्शन, सारा अध्यात्म, ख़ूब कर लीजिये बातें| और बाहर जाइए, वहाँ एक नन्हा बच्चा बैठा हुआ है, और वो मस्त है अपनेआप में, यूँ ही दौड़-भाग रहा है| खिलौना है उसके पास, नहीं तो गिलहरी से खेल रहा है| कोई आवश्यकता नहीं है कि वहाँ भी आप ज्ञान उड़ेलने लग जाएं| और जब मैं छोटा बच्चा कह रहा हूँ, तो मेरा आशय मात्र शारीरिक उम्र से नहीं है| छोटा बच्चा होना, मन की एक अवस्था होती है|
स्वास्थ्यतो वो सौभाग्शाली है| वो सौभाग्यशाली है कि उसको अभी, वो सारे ख्याल उठते ही नहीं| ठीक| अच्छी बात है| और वास्तव में देखिये, स्वास्थ्य यही है, कि व्यर्थ विचार, और व्यर्थ विवेचनाएं, उठें ही नहीं आपके भीतर| स्वास्थ्य ये नहीं है कि आपको जो भी विचार उठता है, आपको उसका उत्तर पता होता है| प्रश्न भी विचार है, उत्तर भी विचार है; प्रश्न और उत्तर का खेल, सिर्फ़ विचार के आगे बढ़ते रहने की एक भ्रामक प्रक्रिया है|
एक विचार आया, आपने उसको नाम दे दिया ‘प्रश्न’| दूसरा विचार आया, आपने उसको नाम दे दिया ‘उत्तर’, और आप ख़ुश हो गए, “कुछ मिल गया!” कुछ मिल नहीं गया, बस खेल आगे बढ़ रहा है और आप अभी भी विचार में उलझे हुए हो|
तो भले हैं वो, और किस्मत वाले हैं वो, जिनको सवाल उठते ही नहीं| मैं उनकी बात नहीं कर रहा जिनकी बुद्धि इतनी कुंद है, जिनकी अंदरूनी क्षमता इतनी कुंठित है, और जिन्होंने अपने मन का ऐसा दमन किया है कि अब वो सवाल पूछने के काबिल ही नहीं बचे| मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ| मैं उनकी बात कर रहा हूँ, जिनका मन इतना साफ़ है, कि उसे कोई जटिलता दिखाई ही नहीं देती, तो वो सवाल क्या पूछें?
सवाल तो तब आए ना, जब सामने कुछ गड़बड़ हो, कोई समस्या हो, कुछ ऊँच-नीच हो, कुछ ऐसा हो, जिसमें उलझाव हो| उन्हें उलझाव दिख ही नहीं रहा, तो सवाल क्या पूछें? इसीलिए आपमें से जिनके पास प्रश्न हैं, मैं उनसे कहता हूँ, “अगर सवाल उठा है, तो जरुर पूछना|” पर ये मैं सिर्फ़ उनसे कहता हूँ, जिन्हें सवाल उठा है| अगर उठ गया, तो पूछो| क्योंकि अब तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है| तुम विचार के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हो| अब तो तुमने प्रवेश कर लिया, तुम्हारी सरलता, तुम्हारी निर्दोषता, अब रही नहीं! तुम बड़े हो गए, तुम विचारवान हो गए| विचार उठने लगा तुम्हारे भीतर| अब सवाल उठ रहें हैं ना? बड़े हो गए हो, भाई| तो उन सवालों को सामने लाओ| अब छुपा मत जाना| अब उन सवालों के ऊपर मत बैठ जाना| उनका दमन मत कर देना|
जो सवालों का दमन करते हैं, कुछ समय बाद, उनके सवाल कुंठित हो कर, दब जाते हैं| मर नहीं जाते, दब जाते हैं| वो लोग ‘अविचारी’ कहलाते हैं| जो लोग, अपने मन में उठते सवालों से घबरा जाते हैं, या जिनको यह संस्कार दे दिये जाते हैं कि सवाल पूछना बुरा है, अपराध है या जिनको ये पता होता है कि सवाल पूछने पर सज़ा मिल सकती है, वो ‘अविचारी’ बन जाते हैं|
उनके पास सवाल तो होते हैं, लेकिन वो सवाल धीरे-धीरे, अर्ध-चेतन मन में दबते जाते हैं| जैसे कि तुम, किसी तहखाने में ले जा करके, सारे सवालों को छिपाए जा रहे हो| जैसे कि तुम, अपने मन की ज़मीन में, कोई गहरा गड्ढा खोद करके, उसमें अपने सवालों को दफ़न करते जा रहे हो| ये मन अविचारी हो जाता है| इसमें बेचैनी रहती है, और बहुत गहरी बेचैनी रहती है| तो सवाल उठें, तो जरुर पूछो, उसका दमन मत कर दो| विचार उठें, तो ज़रुर उसकी चर्चा कर लो| उससे भागो नहीं, उसके करीब जाओ| देखो कि “भाई, क्या कह रहे हो तुम”| बात-चीत करो उससे, “हाँ, बताओ क्या है”| ठीक-ठीक उसे देखो|
लेकिन विचार नहीं उठे, तो मस्ती है! आपमें से कुछ लोगों के साथ, अब यह घटना घटने वाली है| आपको, बीच-बीच में, निर्विचार की झलकें मिलनी शुरू होंगी| आप बस होंगें, यूँ ही, बिना मतलब, बिना उद्देश्य, बिना कारण, बस हो| कुछ भी नहीं चल रहा मन में, बस हो| लेकिन आपकी आदत लगी है, सोचने की| तो इस मात्र होने की अवस्था से, जैसे ही आप विचार की अवस्था में वापस आओगे, तो आपको डर लगेगा| आप काँप से जाओगे| विचार आपसे कहेगा कि कुछ गलत हो गया था| “अरे! तुम सोच नहीं रहे थे?” विचार आपसे कहेगा, “तुम व्यर्थ होते जा रहे हो, तुम्हारे होने में कोई कमी आती जा रही है”| इस विचार को तवज्जो मत दीजिएगा| इसी विचार से निपटने के लिये, आपके पास इससे उच्च कोटि का कोई दूसरा विचार होना चाहिए| वहाँ आपको पता होना चाहिए कि आपको जो शांति उपलब्ध हुई थी, वो कोई चिंता का विषय नहीं है| सौभाग्य का विषय है|
असल में, हम बीमार इतने ज्यादा रहते हैं, कि अगर बीच में, स्वास्थ्य के कुछ क्षण मिल जाये, तो वो क्षण हमें बड़े अनजाने लगते हैं| बड़े अपरिचित हैं हम उनसे| बीमार आदमी, जिसे बीमारी की ही आदत लग गई हो, जिसने बीमारी का ही अभ्यास कर लिया हो, यदि उसे बीच-बीच में स्वास्थ्य के क्षण मिलने लगे, तो वो घबरा जाता है| वो कहता है, “ये नई चीज़ क्या होने लग गई?” समझ रहे हैं? और यह भी हो सकता है, कि वो इतना घबरा जाएं कि वो पहले से भी ज्यादा ख़तरनाक बीमारी का वरण कर ले|
थोड़ा सावधान रहना|
साधक के लिए, वो क्षण ख़तरे का होता है, जब पहली बार, उसको शांति की, निर्विचार की, झलक मिलती है| जब तक तो उसे विचारों की ही ख़ुराक दी जा रही है, वो ख़ुश रह लेता है| क्योंकि विचार तो उसकी ख़ुराक है ही| पहले एक किस्म के विचार लेता था, अब दूसरे किस्म के विचार ले रहा है| तो वास्तव में कोई नई घटना नहीं घटी है| विचार का ही खेल चल रहा है, वो ले लेगा खुराक| लेकिन जब उसे निर्विचार के दर्शन होते हैं, तो वो घबरा जाता है| वो, वो क्षण होता है, जब वो साधना से भागने की सोचता है| साधना के पथ पर कोई हो, और भाग पड़ा हो, तो उसका एक कारण,अक्सर यह होता है कि साधना सफल हो रही थी| समझियेगा बात को| साधक, साधना छोड़ के भागे, ज़रूरी नहीं है कि वो इसलिए भगा क्योंकि साधना विफल जा रही थी| अक्सर वो इसलिये भागेगा, क्योंकि साधन सफल हो रही थी|
साधना की सफलता, विचार को घबरा देती है| एक बिल्कुल नई चीज़ सामने आती है विचार के, जिसको विचार ने पहले कभी देखा नहीं होता है: ‘निर्विचार’| विचार ने, निर्विचार को कैसे देखा होगा पहले? देख ही नहीं सकता! “अरे! यह क्या हो गया?”
तुम लोग लिखते हो ना मुझे, बड़े परेशान हो करके कि “बहुत नीरस हो रहे हैं, कुछ रोमांचक नहीं लगता, बड़ी बोरियत है|” अब उसमें अक्सर क्या हो रहा होता है? उसमें अक्सर ये हो रहा होता है, कि तुम जिस ज्वर के, बुखार के, उत्तेजना के आदी रहे हो आज तक, जो तुम्हारी आदत बन गई है, उससे तुम्हें थोड़ी देर के लिये मुक्ति मिली होती है|
देखो, तुम लोगो ने वो नाटक करा था अभी, ‘राइनोसरस’ (एक प्रस्तुर्त जिसमे सभी इंसान धीरे-धीरे भेडियों में रूपांतरित हो जाते हैं) उसमें क्या दिखाया था? मनुष्य जब भेडिया बनने जा रहा होता है, तो पहले उसे बुखार आता है| ये जो उत्सुकता है न, ‘ज्वर’, ‘तपन’, ‘उत्तेजना’, यही वो है जो मनुष्य को मनुष्यता से नीचे गिराती है| जो तुम्हें तुम्हारी शांति से हटाती है| अब तुम्हें आदत लग गई है, उत्तेजित रहने की, ‘गर्म’ रहने की| कुछ न कुछ चलता रहे| एक ‘गर्मी’ बनी रहे| यहाँ (अद्वैत-स्थल) आते हो, शांत बैठते हो, समझते हो, तो तुम्हारी वो गर्मी निकल जाती है| एक सहज शांति आ जाती है| शांति के उन क्षणों में, तुम्हें कोई तनाव नहीं है, तुम मस्त हो, तुम मग्न हो| लेकिन वो क्षण बीतता है, क्योंकि अभी इतने पक्के तुम नहीं हुए हो कि वो क्षण तुम्हारा जीवन ही बन जाए| वो क्षण बीतता है| बाहरी कोई प्रभाव आता है, तुम फिर से कंपित हो जाते हो| जब वो क्षण बीत गया, तब तुम सोचना शुरू करते हो, और तुम उस क्षण के बारे में भी सोचते हो| फिर तुम कहते हो, “उसमें तो कुछ था ही नहीं’”| तुम्हें तो ‘कुछ’ चाहिए| और जब तुम उस क्षण की ओर वापस देखते हो, तुम कहते हो, “उसमें तो कुछ था ही नहीं’| खालीपन था एक| “मैं हर चीज़ से खाली था| पर उसमें ‘कुछ’ था नहीं”; और खालीपन, विचार को भाता नहीं| विचार को तो विषय चाहिये, वस्तुएं चाहिये| तब तुम शिकायत भी करने लग जाते हो| और शिकायत ऐसे करते हो कि पूछा जाता है, “जिंदगी कैसी चल रही है? तो जवाब आता है कि “रसहीन, उबाऊ, बोरिंग”|
यह दो बातें दिखाता है:
पहली बात – हम बड़े अभागे हैं कि हमारा मन, इतना विकृत हो चुका है कि उसने बीमारी से नाता बैठा लिया है और स्वास्थ्य उसे अनजाना लगता है|
और दूसरी बात – हम बड़े सौभाग्शाली हैं कि इतने बीमार मन के बावजूद, हमें अब स्वास्थ्य की झलक मिलनी शुरू हो गई है| दोनों बातें हैं| हम बड़े अभागे भी हैं और बड़े सौभाग्यशाली भी, इससे दोनों बातें पता चलती हैं|
पर जिनके साथ ये घटना घटने लगी हो, वो ध्यान रखें, कि भागने का मन करेगा| किसी-किसी के साथ ही नहीं हो रहा है यह| मैं समझता हूँ, जितने लोग अवलोकन लिखते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा यही हैं| तुम्हारे जो प्रतापी सीनियर हैं, उन्होंने कल इतना बड़ा कच्चा-चिट्ठा लिखा| “जिंदगी में कुछ नया नहीं है, बड़ा बोरिंग है|” और यह उनकी अब रोज़ की कहानी है| कुछ उत्तेजना चाहिए| समझ रहे हो ना?
अब, उत्तेजना से तो उनकी जिंदगी भरी ही हुई थी! ‘ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है, उत्तेजक|’ और वो उत्तेजना बुखार है| वो उत्तेजना बीमारी है| उससे तो भरी ही हुई थी उनकी जिंदगी| अब शांति मिल रही है, तो इस बात की परेशानी है कि…?
सभी श्रोतागण: शांति मिल गई!
वक्ता: “शांति क्यों आ गई! वो उत्तेजना कहाँ चली गई!”
तो परेशान होना, ऐसी आदत बनी हुई है कि “पहले परेशान थे, तो यह परेशानी थी कि हम…”?
सभी श्रोतागण: परेशान हैं|
वक्ता: “परेशान हैं|” अब परेशान नहीं हैं, तो यह परेशानी है कि…?
सभी श्रोतागण: मेरी परेशानी कहाँ गई|
वक्ता: (व्यंग्कयात्मक तरीके से) “अरे! मेरी परेशानी कहाँ गई? खोज कर लाओ| बीस साल से अपनी परेशानी मैंने सम्भाल कर रखी थी, कहीं खो गई| भाई साहब, मेरी परेशानी देखी है, कहीं गिर गई है|” तो अब उन्हें ये परेशानी है| सबके साथ यही होगा| यही लगेगागा कि पुराना कुछ जिसे इतने दिनों से सम्भाल कर रखा था, वो खो रहा है| खोने देना| कोई दिक्कत नहीं होगी| खोने दो| जाने दो| ठीक है?
बुद्ध कहते थे, “गते गते परागते स्वाहा”, गया गया पूरी तरह गया, स्वाहा| तभी तो वो बोलते थे, “तथागत”, “गया”| अब पीछे-पीछे मत दौड़ना उसके, “तू जा रहा है, मैं तुझे पकड़ लूँगा”| जा रहा है, उसे जाने दो!
श्रोता १: बुखार का होना आपको महत्वपूर्ण भी महसूस कराता है|
वक्ता: बहुत ज़्यादा!
श्रोता १: क्योंकि फ़िर आप ‘हाइलाइटेड’ होते हो|
वक्ता: बिल्कुल| असल में जब ये बुखार नहीं होता, तो हमारी हालत, बिल्कुल सड़क के कुत्ते जैसी होती है|
श्रोता १: जिसको कोई नहीं जानता|
वक्ता: बिल्कुल|
श्रोता १: जो आदत डलवा देता है|
वक्ता: न न न, सहज, सड़क पर बैठे हो, दुनिया कुछ बोल रही हो|
देखो, सड़क के कुत्ते को, दो दृष्टियों से देखा जा सकता है| एक: सड़क पर जो गाड़ी जा रही है, उसके मालिक की दृष्टि से| और दूसरा: उस कुत्ते की ही दृष्टि से|
तुम एक इमारत में बैठे हो| नीचे मैदान में एक कुत्ता बैठा हुआ है| तुम उसको देख रहे हो| तुम्हारी दृष्टि में वो हेय है, नीच है| पर तुमने ये जानना चाहा कि कुत्ते की दृष्टि में भी क्या कुत्ते की अवस्था में कोई कमी है? वो मस्त है! तो तुम वैसे हो जाते हो| जगत के लिये तुम्हारा महत्व बहुत कम हो जाता है| दोनों बात एक साथ होती है| तुम्हारी दृष्टि में, जगत का महत्व कम हो जाता है| तुम कहते हो, “यार, इस दुनिया की कोई कीमत नहीं” और दुनिया कहती है, “यार, इस बन्दे की कोई कीमत नहीं”| दोनों घटनाएं एक साथ होती हैं| समझना इस बात को| ऐसा थोड़े ही है कि तुम कहोगे, “इस दुनिया की कोई कीमत नहीं” और ये दुनिया कहेगी, “आपकी बड़ी कीमत है मालिक!” वो बहुत बाद में होता है, यदि होता है तो| उसका लालच मत करना| दुनिया तो, व्यापारी है| तुम उसको महत्व देते हो, भाव देते हो, तो वो पलट करके तुम्हें भाव देती है| जब तुम्हारी दृष्टि में, दुनिया का महत्त्व कम होना शुरू होता है, तो तुम कहते हो, “दुनिया की कोई कीमत नहीं”, तो दुनिया भी यही कहती है, “तुम्हारी कोई कीमत नहीं|” अब तुम अपना मस्त, मैदान पर, सड़क पर, कहीं भी, पड़े हुए हो|
जगत और तुम्हारा रिश्ता बदलता है| और जब पुराने संस्कारो की लहर, लौट करके थपेड़ा मारती है, तो तुम बहुत ज़ोर से डर जाओगे| तुमको लगेगा, सब कुछ छिनता जा रहा है| तुमको लगेगा, “पहले तो मैं कुछ था, इज्जत थी, सम्मान था, लक्ष्य थे, दुनिया में एक जगह थी, एक मुकाम था| वो सब छिनता जा रहा है|”
तुम ध्यान से देखो ना, चिड़िया है, मस्त है, उड़ रही है| जब वो ज़िन्दा है, तब भी तुम्हें पता नहीं चलता| कोई रजिस्टर नहीं है जहाँ गिनती की जाती हो, कि कितनी चिड़िया पैदा हुई, उनका क्या नाम है| और वो चिड़िया, जब जाती है तब भी किसी को पता नहीं चलता| तो ऐसा-सा जीवन हो जाता है| अपने में जीये, अपने में गए| अब ये ख्याल ही सामाजिक रूप से संस्कारित मन के लिये बड़ा डरावना है| “ये हालत हो जाएगी कि हमारे होने, न होने से दुनिया को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा? कोई जानेगा भी नहीं कि हम कब आए, कब गए? अरे! हम कुछ हैं ही नहीं क्या? खानदानी हैं, हैसियत है|”
खानदानी क्या हैं, ये बताना थोड़ा अभद्र हो जाएगा|
(सभी श्रोता हँसते हैं)
हो खानदानी, पर क्या? तो बड़ा बुरा लगता है| “अरे! पहले हम चलते थे तो चारो ओर से लोग बोलते थे, “वाह! वाह! वाह! वाह! देखो मालिक जा रहे हैं| कॉलेज में हम कदम रखते थे और लोगों की निगाहें उठ जाती थीं| ये देखिये!”
और अब? ‘स्वाहा’!
(सभी श्रोता हँसते हैं)
पहले ‘कुछ’ थे, अस्तित्व था| अब अनस्तित्व है| अब ऐसे हो गए हैं, जैसे हवा; जो लगातार मौज़ूद भी रहती है, तो भी उसके होने का किसी को पता नहीं चलता| अब ऐसे हो गए हैं| पहले विशेष थे, अब निर्विशेष हो गए| पहले ख़ास थे, अब आम हो गए| तो बड़ा धक्का लगता है अहंकार को, “ये कौन-सी आध्यात्मिकता है, जिसमें हमारा सारा महत्त्व और पहचान ही खोती जा रही है”, बुरा लगता है| भाग मत जाना | और आम तो होते जाओगे, क्योंकि जिन लक्षणों को, उपाधियों को ले करके, दुनिया तुम्हें ख़ास बोलती है, वही लक्षण, वही विशेषताएँ, वही उपाधियाँ, वही तो तुम्हारी बीमारी हैं|
दुनिया को जो कुछ भी मूल्यवान लगता है, वही तुम्हारा बोझ है| अगर जानना चाहते हो, कि “क्या है, जो परित्याग के काबिल है? क्या है जिसे छोड़ दूँ?” तो बस ये देख लो कि दुनिया को तुममें कीमती क्या लगता है| दुनिया किस वज़ह से तुम्हारे करीब आती है| दुनिया जिस-भी कारण तुम्हारे करीब आती हो, तुम उसका त्याग करो|
एक ज़ेन भिक्षुणी की कहानी है, बड़ी प्रसिद्ध कहानी है| पर उसको थोड़ी संवेदना के साथ सुनना होगा ताकि उसका आप कोई गलत अर्थ न कर लो| बहुत सुन्दर थी| बहुत ही सुंदर थी| पर इस कारण, उसके करीब, सिर्फ़ वही लोग आते थे, जो उस सुन्दरता के ग्राहक थे| उसके रूप से ही आकर्षित हो कर आते थे लोग उसके पास| अन्य किसी वजह से नहीं| यहाँ तक स्थिति हो गई कि वो साधना के लिये गुरुओं के पास जाए, तो गुरु इन्कार कर दें| कहें, “तू हमारे आश्रम में रहेगी, तो यहाँ गड़बड़ होगी|” वो इन्कार कर दें, “हम नहीं लेते तुझे, तू जा”| और उसकी बड़ी प्रसिद्धि, लोग खिचें चले आ रहे हैं| उसने एक जलती हुई लकड़ी ली और अपना चेहरा दाग लिया|
कीमतीजो कुछ भी, तुममें कीमती लगता है दुनिया को, वही वो है, जो तुम्हें त्यागना चाहिए| जो तुम्हारे भीतर वास्तव में कीमती है, संसार कभी उसकी कीमत नहीं कर पाएगा, संसार कभी उसे मूल्य नहीं दे पाएगा| संसार तो तुम्हारी बीमारियों को ही मूल्य देता है|
ठीक है? इसी बात को, एक चीनी गुरु ने, कुछ इस तरह से कहा था:
एक गुरु जंगल ले गये अपने शिष्यों को| वहाँ पर कुछ खड़े हुए पेड़ थे और कुछ कटे हुए पेड़ थे|
गुरु ने अपने शिष्यों से पूछा, “बताओ ज़रा कुछ पेड़ खड़े हुए क्यों हैं और कुछ पेड़ कटे हुए क्यों हैं?”
शिष्यों ने कहा, “जो काम के थे, वो कट गये और उनका उपयोग हो गया|”
गुरु ने पूछा, “और ये जो खड़े हुए हैं, ये कौन से हैं”? शिष्य बोले, “ये वो हैं, जो किसी के काम के नहीं थे|”
गुरु बोले, “बस ठीक है, समझ जाओ|”
तुम दुनिया के जितने काम के होगे, उतना…?
सभी श्रोतागण: काट दिये जाओगे|
वक्ता: काटे जाओगे| अगर बचना चाहते हो कटने से, तो बिल्कुल बिना-काम के हो जाओ, अनुपयोगी हो जाओ| दो बाते हैं; पहला: दुनिया तुममें उसी चीज़ की कद्र करती है, जो तुम्हारे लिये बोझ है| किसी स्त्री की सुन्दरता, उसके अपने किसी काम की नहीं होती| ध्यान देना इस बात को| उसके अपने किस काम की होती है? हाँ, दूसरों के काम की होती है| वो मोहित होते हैं, आकर्षित होते हैं| उनकी वासना जगती है|
तो पहली बात: संसार तुममें जिस भी चीज़ को महत्व देता है, वो तुम्हारे लिये बोझ समान ही है| दूसरी बात: संसार अगर तुम्हें महत्व दे रहा है, तो जल्दी ही तुम्हे काट भी देगा| और तुम्हें ठीक उन्ही वजहों से काटा जाता है, जिन वजहों से तुम्हें मूल्यवान समझा जाता है|
गाय जब तक दूध देती है, बंधन में रहती है और जिस दिन दूध देना बंद कर देती है, उस दिन छोड़ दी जाती है| पर इस कारण ये उम्मीद मत पाल लेना कि जिस दिन तुम दूध देना बंद कर दोगे, तो उस दिन मुक्ति मिल जाएगी| कई गायें, जो दूध देना बंद कर देती हैं, वो सीधे कसाई-घर जाती हैं| तो दुनिया, हर तरह से शोषण करती है| जब तक दूध दोगे, दुहे जाओगे; और जिस दिन दूध देना बंद कर दोगे, उस दिन तुम्हारा माँस खाया जाएगा|
दुधारू मत बनो| दूध देना बंद करो!
ये अपने मन में जो तुमने नैतिकता के, और परोपकार के मूल्य बैठा रखे हैं ना, (व्यंग्कयात्मक तरीके से) “मेरी वजह से तो दुनिया का पेट भर रहा है| मैं तो इतना दूध देता हूँ! मैं दूध ना दूँ तो लोगों की चाय-कॉफ़ी कैसे बनेगी? अरे! छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा?” ये सब व्यर्थ की आत्मप्रवंचना है| अपने आप को बेवकूफ बना रहे हो| जरा ज़ोर लगाओ| रस्सी, खूंटा, सब उखाड़ कर भागो! और सतर्क हो जाया करो जब दुनिया तुम्हारी बहुत तारीफ़ करे| क्योंकि दुनिया तुममें जिस भी चीज़ को मूल्य दे रही है, मैं दोहरा रहा हूँ, वही तुम्हारा बोझ है |
एक वक्ता था, उसका काम ही यही था, “कुछ ऐसा बोलूँगा, जो लोगों को बिल्कुल ज़रा चोट करे|” तो आम-तौर पर लोग उससे बचें, भागें| वो बोलने खड़ा हो, तो इधर-उधर हो जायें| एक दफ़े उसने बोला तो जो लोग इकट्ठा थें, उन्होंने तालियाँ बजा दीं| वो दुखी हो गया| बोला, “लगता है मुझमें किसी प्रकार की कोई खोट आ गई है| नहीं तो इन लोगों को मेरी बात समझ में कैसे आ जाती? ये कैसे मुझे कीमत दे देते? ये तो सिर्फ़, अपने तरह के कचरे को ही कीमत दे सकते हैं|” तुम्हें भी, जब कोई कीमत दे, तो ध्यान से देख लेना, वो तुम्हारी आत्मा को कीमत दे रहा है या तुम्हारे कचरे को? तुम्हारी आत्मा को तो वो जानेंगे नहीं, क्योंकि आत्मा को, आत्मा ही जानती है और कचरा, कचरे को ही जानता है|
मूल्यख़ुश मत हो जाया करो अगर कोई आ करके तुम्हारी तारीफ़ कर दे| ख़ुश मत हो जाया करो, कोई आ कर कह दे कि “तुम हमारे लिए बड़े कीमती हो| तुम्हारे कारण ही तो हमारी दुनिया चल रही है| तुम न होगे, तो हमारा क्या होगा?” ख़ुश मत हो जाया करो| पेड़ हो, कटोगे| गाय हो, दुहे जाओगे| दुहे जा रहे हो!
जिनको तुम अपने सगे-सम्बन्धी, दोस्त-यार कहते हो, तुम इनके काम के न रहो तो इनमें से कितने बचेंगे, ईमानदारी से बताओ? और काम भी वो नहीं है कि तुम्हारे कारण वह सत्य की ओर जाते हैं| और वो काम भी ऐसे नहीं हैं कि तुम्हारे कारण इनकी आध्यात्मिक प्रगति होती है| काम भी वो नहीं है कि तुम्हारे कारण, इनका जीवन आनंदपूर्ण और प्रेमपूर्ण होता है| ये तुमसे कौन-से काम निकलवाते हैं? सिर्फ़ वही काम जो इनके संस्कारों द्वारा पूरित होता है| वो तुम्हारे करीब इसलिए नहीं हैं कि उनका जीवन सत्य से परिपूर्ण हो जाए| वो तुम्हारे करीब इसलिए हैं, ताकि उनका जीवन सुविधापूर्ण रहे| ताकि उनके संस्कारो ने जो उनको सिखाया है, वो उसी पर और चल सकें| जिस क्षण तुम उन्हें संस्कारों की अपेक्षा, सत्य की ओर ले जाओगे, तुम उनके काम के नहीं रहोगे| समझ रहे हो बात को?
लेकिन अहंकार को अच्छा लगता है, जब कोई कहता है, “अरे बेटा, तुमसे ही तो हमारी ज़िन्दगी है|” या “भाई! तू न होता, तो मेरा क्या होता?” किसी को रात में दारू पीने की तलब लगी हो और तुम उसे ला करके थमा दो एक बोतल, फिर देखो वो कैसे अश्रुपूरित होकर के तुमसे गले मिलता है| ऐसा लगेगा कि जैसे साक्षात परम-ब्रह्म की प्राप्ति हो गई हो उसे| “भाई, तू न होता तो मेरा क्या होता?” एक बोतल काफ़ी है भीतर से बिल्कुल अनुग्रह का भाव उठाने के लिये| (व्यंग्कयात्मक तरीके से) आवश्यकता क्या है सत्य वगैरह जानने की? अगर बात इतनी ही थी कि कोई कृतज्ञ महसूस करे, अनुग्रहित अनुभव करे, तो ठीक, शराबी को बोतल दो, कबाबी को कबाब दो, व्यसनी को वासना दो, काम हो जाएगा! ऐसा धन्यवाद का भाव उठेगा कि पूछो मत!
तुम्हारे अहंकार को बहुत अच्छा लगेगा, “कितना धन्यवाद बोल रहा है मुझे|” और तुम कहोगे, “देखो, जब अपनी जिम्मेदारियों का पालन करो, तो कितना अच्छा लगता है| लोग कैसे-कैसे आकर के कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं”| कोई तुम्हारे सर पर हाथ फेरेगा कि “तुझसे मेरी जिंदगी है”| कोई तुम्हारे पाँव छुएगा, “तुमने बचा लिया नहीं तो हम कहाँ जाते! थोड़ा सोडा और देना|”
(सभी श्रोतागण हँसते हैं)
तुम फूल के कुप्पा मत हो जाना| ऐसे ही फँसते हो और फ़िर आकर कहते हो, “देखिये साहब, जिम्मेदारियाँ तो पूरी करनी पड़ती हैं न?”
तुम्हें ज़िम्मेदारियों में कोई आनंद नहीं है! तुम्हें लालच है जिम्मेदारियों के बाद मिलने वाले पारिश्रमिक का| “अच्छा कहलाऊँगा, दुसरो की नज़रों में ऊँचा उठ जाऊँगा”| ईमानदारी से बताओ, सिर्फ़ ज़िम्मेदारियाँ पूरी करनी हों और ज़िम्मेदारियों के बाद गालियाँ मिलनी हों, तो करोगे ज़िम्मेदारियाँ पूरी?
(सभी श्रोता ‘न’ में सिर हिलाते हैं)
ठीक| सिर्फ़ ज़िम्मेदारियाँ मिलनी हों, और ज़िम्मेदारियों के बाद गालियाँ न मिलें पर धन्यवाद भी न मिले, तुम्हारी सारी मेहनत की कोई हैसियत ही न रहे, जैसे हुई ही नहीं, अनदेखी रह जाये, तो भी क्या करोगे ज़िम्मेदारियाँ पूरी?
नहीं ही करोगे| और करोगे भी तो आधे-अधूरे मन से करोगे| कहोगे, “अरे यार, ये दुनिया कैसी है? इतना कुछ करता हूँ और कोई कीमत भी नहीं देता, स्वीकृति भी नहीं देता|
तुम्हें जिम्मेदारियाँ पूरी करने में भी रस कब आता है? जब पता हो कि ज़िम्मेदारी पूरी करते ही दो-चार आकर के फूल-माला डाल देंगे| कोई गले-वले मिलेगा| कोई कहेगा, “पति-देव हमारा कमरा उधर है|”
(सभी श्रोता हँसते हैं)
तब लगता है कि ज़रा ज़िम्मेदारियाँ पूरी करो, कुछ मिलने वाला है| तो यह तर्क तो ले कर आया मत करो कि “ज़िम्मेदारियाँ तो पूरी करनी पड़ती हैं ना?”
आज का तुम्हारा सवाल यही है| मिल गया जवाब?
श्रोता १: गुरूजी, एक होता है कि “अनुपयोगी हो जाओ”| एक दूसरा है कि “आप बोझ बन गये|” क्या कोई जब अनुपयोगी हो जायेगा, तो बोझ बन जायेगा?
वक्ता: बोझ बनने के लिए वज़न चाहिये| तुम किसी पर बोझ बन सको, इसके लिए तुम्हारे पास वज़न होना चाहिए| वज़न किस चीज़ का होता है? जब आप कहते हैं कि “क्यों हाथी बाँध रखा है?” कहावत सुनी है ना? सफ़ेद हाथी? ये सफ़ेद हाथी बड़ा वज़नी होता है| उसका वज़न किस चीज़ का है?
श्रोता: जो उसपर खर्च होता है|
वक्ता: हम्म, ठीक है ना? वो जो खाता है, और जो उसकी देख-भाल में, रख-रखाव में खर्च होता है|
तुम क्यों इतना खाते हो? और खाने का अर्थ यही नहीं है कि मुँह से क्या खा रहे हो| खाने का अर्थ है कि तुम दुनिया से भोगते कितना हो| जो दुनिया से अभी भोग ही रहा है, वो कहाँ सरल हो गया? बोझ तो वही बनेगा ना, जो भोगने के लिये आतुर है? अन्यथा, तुम कहाँ के बोझ हो? किसी से दो रोटी ले लेते हो, तो मुश्किल ही है कि कोई कहे कि तुम बोझ हो गए हमारे ऊपर| विशेष परिस्थिति हो तो बात अलग है| अन्यथा, दो रोटी के लिए, कोई तुम्हें बोझ नहीं कहेगा| हाँ, तुम किसी से दो रोटी से बहुत ज़्यादा ले रहे हो, ज़रूरतों से नहीं, वासनाओं से ले रहे हो, तब ज़रुर बोझ हो| तब ज़रुर बोझ हो| तो तुम किसी पर बोझ अगर बन रहे हो, तो ये तो खेल फिर अभी शोषण का ही चल रहा है|
पहले बात ये थी कि लेन-देन था, व्यापार था| वो तुम्हारा शोषण करते थे, तुम उनका शोषण करते थे| तो व्यापार चल रहा था| अब तुममें ज़रा चालाकी आ गई है| (व्यंग्कयात्मक तरीके से) तुम कहते हो, “हम तो, देखिये, अब किसी काम के नहीं रहे, लेकिन आप तो काम के हैं ना?”
(सभी श्रोता हँसते हैं)
(व्यंग्कयात्मक तरीके से) “हम तो निर्विशेष हो गए, हम तो अब कुछ करेंगे नहीं, पर आप तो बहुत कुछ करते हैं, आप किसके लिये करते हैं ये सब…?”
श्रोता: हमारे लिये|
वक्ता: (व्यंग्कयात्मक तरीके से) “हमारे ही लिये तो करते हैं| तो हम तो जाते हैं बोध-सत्र में, वहाँ हम पढ़ कर आ गए – ‘अप्रयास’, ‘एफर्टलेसनेस’, पर पिताजी आप तो बड़े ‘एफर्टफुल’ हैं| ये किसके लिये आप इतना कमा रहे हैं? हमारे ही लिये तो? और देखिये, गुरुजी ने ही कहा है, “एफर्ट-लेसनेस इस फ़ॉर द एफर्टलेस”, आप जब अभी एफर्टफुल हैं, तो आप तो कमाइये! कोई विकल्प तो है नहीं आपके पास| गुरुजी ने बताया है कि आप जैसे हैं, आपके पास, कमाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है| और आप जब कमा ही रहे हो, तो थोड़ा सा, हमारी तरफ़ भी ले आयें|” अब पिताजी हों या पति-देव हों, फ़र्क क्या पड़ता है?
(सभी श्रोता हँसते हैं)
लेने में बड़ी सुविधा है, कीमत दिखाई नहीं देती कि क्या दे रहे हो| पहले सिर्फ़ तुम मुर्ख थे, अब मक्कार भी हो| मुर्खता से बोध की ओर जाया जाता है, मक्कारी की ओर नहीं|
श्रोता २: गुरूजी, कैसे पता लगे कि डर को दबाया जा रहा है या जाँचा जा रहा है? उदाहरण: मेडिकल इन्श्योरेन्स कराना हो तो एक तो यह हो सकता है कि जाँच लूँ कि न कराने पर क्या होता है, पर दूसरी तरफ़ यह विचार भी चलता रहता है कि इन्श्योरेन्स नहीं कराया और सही में कुछ हो गया तो?
वक्ता: नहीं, अगर विचार चल रहा है कि सही में अगर कुछ हो गया और ऐसा ही कुछ, तो ले लेना चाहिये| तो वो इन्श्योरेन्स ले लेना चाहिए|
श्रोता २: गुरूजी, जैसे ज़बरदस्ती का ऐड्वेन्चर करते हैं लोग, तो वो भी तो एक तरह का दमन ही है ना?
वक्ता: ज़बरदस्ती से आप कर ही नहीं पाओगे| आप उसी सीमा तक जाओगे, जहाँ तक आपका मन खिंचेगा| एक सीमा के आगे, आप उसको खींच नहीं पाओगे, वो आपको वापस ले लेगा| (हँसते हुए) मन स्वयं ही निर्धारित करके रखता है कि मेरे साथ कितनी ज़बरदस्ती करोगे| आप नहीं निर्धारित करते|
भाई, आप एक रबर-बैंड को खींचते हो, रबर-बैंड किस बिंदु पर जा कर टूट जाएगा, ये आप नहीं निर्धारित करते| ये रबर-बैंड ने पहले ही निर्धारित कर रखा होता है| ठीक इसी तरीके से, मन अपना राजा खुद बन कर चलता है | वो ये भी बता कर रखता है कि किस सीमा तक मज़े से जाऊँगा , वो ये भी बता कर रखता है कि किस सीमा तक खिंच-खिंच कर जाऊँगा, और ये भी पहले ही तय करके रखता है, कि किस बिंदु के आगे जाऊँगा ही नहीं ! “ले जाओगे तो ब्रेक डाउन कर दूँगा, विद्रोह कर दूँगा, उपद्रव कर दूँगा |”
जहाँ तक जाता है, ले जाईये, ठीक है| अगर अभी मन में विचार उठते ही हैं, और किसी भी तरीके से शांत नहीं हो रहे, तो दमन मत करिये| अब इस बात को अपनी चालाकी का साधन न बना लीजियेगा, कि गुरुजी ने ही कहा था, “विचार अब उठ ही रहें हैं, तो कर डालो| ये सारी बातें, ये मान कर कही जाती हैं कि विवेक का न्यूनतम इस्तेमाल तो आप करोगे ही