अभी से अभ्यास होना अच्छा
एक सेठजी ने अन्न सन खोल रखा था । दान की भावना तो कम थी, मुख्य भावना तो थी कि समाज उन्हें दानवीर समझे, उनकी प्रशंसा करे । उनके प्रशंसक लोग नहीं कम नहीं थे सेठ जी गल्ले का थोक व्यापार करते थे । अन्न के कोठारों में वर्ष के अन्त मेँ जो घुना-सड़ा अन्न बिकने से बच रहता था, वह अन्न सत्र के लिये दे दिया जाता था । प्राय: सडी ज्वार की रोटी ही सेठ जी के अन्न क्षेत्र मे भूखो को प्राप्त होती थी।
सेठजी के पुत्र का बियाह हुआ । पुत्र वधू घर आयी । यह सुशीला, धर्मज्ञ और विचारशीला थी। अपने ससुर का व्यवहार देखकर उसे दुख दुआ । भोजन बनाने का भार उसने स्वयं उठाया । पहिले ही दिन अन्नक्षेत्र से सडी ज्वार का आटा मँगवाकर उसने एक रोटी बनायी । सेठ जी भोजन करने बैठे थे । दूसरे भोजन के साथ उनकी थाली में वह रोटी भी पुत्रबधू ने परोस दी । काली, मोटी रोटी देखकर सेठजी ने कुतूहलवश पहिला ग्रास उसी का मुख में डाला और थू थू करके थूकते हुए बोले – बेटी !
घर में आटा तो बहुत है । तूने रोटी बनाने के लिये यह सडी ज्वार का आटा कहाँ से मँगाया ? क्या सूझी तुझे पुत्र वधू बोली…पिताजी आपके अत्र-क्षेत्र में इसी आटे की रोटी भूखों को दी जाती है । परलोक में तो वही मिलता है जो यहॉ दिया जाता है । वहाँ केवल इसी आटे की रोटी पर आपको रहना है । इसलिये मैँ ने सोचा कि अभी से इसे खाने का अभ्यास आपको हो जाय धीरे-धीरे तो वहॉ कष्ट कम होगा।
कहना नहीं होगा कि अन्नक्षेत्र का सड़ा आटा उसी दिन फेंकवा दिया गया और वहाँ अच्छे आटे का प्रबन्ध हुआ ।