ईश्वर श्रद्धा से जाना जाता हैं
एक ब्रह्मण के दो पुत्र थे। दोनों के विधिपूर्वक यजोपवीतादि सभी संस्कार हुए थे। उनमें ब्राह्मण का बडा पुत्र तो यगोपवीत संस्कार के पश्चात् गायत्री जप मेँ लग गया। उसने अध्ययन बहुत कम किया क्योंकि पित्ता की मृत्यु के पश्चात् घर का भार उसी पर आ पडा। परंतु ब्राहाण का छोटा पुत्र प्रतिभाशाली था। वह अध्ययन के लिये काशी गया और वहाँ उसने कई वर्ष तक अध्ययन किया। वेदों का वेदाङ्ग के साथ अध्ययन करके वह एक प्रतिष्ठित विद्वान् बन गया।
काशी में एक बाहर के विद्वान् पधारे। काशी नरेश के समक्ष काशी के विद्वानों पे उनका साश्त्रार्थ हुआ । वह ब्राह्मण कुमार भी उस साश्त्रार्थ में था। बाहर से आया विद्वान् नाना तर्कों सै प्रमाणित कर रहा – ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। काशी के विद्वानों को उसका खण्डन करके ईंश्वर कौ सत्ता सिद्ध करना था। उस बाहर के विद्वान से सर्वप्रथम साश्त्रार्थ ब्राह्मणकुमार को ही करना पडा, जिसमे ब्राह्यण कुमार हार गया। दुखी होकर तथा पराजय के अपमान से लज्जित होकर वह उस सभा से तुरंत उठ गया और काशी छोड़कर घर लौट आया।
बड़े भाई ने छोटे भाई को उदास देखकर पूछा…तुम इतने दुखी क्यों हो ?
छोटे भाई ने अपने पराजय की बात बतलायी। बड़े भाई बोले…इसमेँ दुखी होने की क्या बात है । जिसमें प्रतिभा अधिक है, वह कम प्रतिभा वाले को अपने तर्क से पराजित कर ही सकता है। परंतु जैसे कोई किसी को अखाड़े में पटक दे इसीलिये पटकने वाले की बात सत्य नहीं मानी जाती, वैसे ही त्तर्क के द्वारा सत्य का निर्णय नहीं होता।
छोटा भाई रोकर बोला- भैया ! मुझे पराजय का इतना दुख नहीं है । मुझे दुख तो इस बातका है कि स्वयं मुझे ईंश्वर की सत्ता में संदेह हो गया है । मैंने वेदृ, शास्त्र, पुराण आदि सब पढे हैँ किंतु मेरे मन का संतोष नहीं हो रहा है। बड़े भाईं ने छोटे भाई को झिड़क दिया-सब शास्त्र-पुराण पढकर थी तू मूर्ख ही रहा। जो सत्य है, वह न तर्क से जाना जाता और न पोथे पढ़ने से । वह तो सत्य है, इसलिये उसे प्रत्यक्ष उपलब्ध किया जा सकता है । उस पर तथा उसे पाने के साधन पर श्रद्धा करके लग जाने से वह उपलब्ध हो जाता है । यज्ञोंपतीत संस्कार के समय आचार्य ने गायत्री के सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, उसे तू भूल गया? गायत्री का जप क्यों नहीं करता? छोटे भाई ने बड़े भाईं के चरण पकड़ लिये-मेरे गुरु आप ही हैं। मैं अब जप ही करूँगा। श्रद्धा के साथ संयमपूर्वक साधन चलने लगा और जहाँ ये दोनों हैं, साध्य अनुपलब्ध कैसे रह सकता है …सुं० सिं०