Search

परमात्मा एक रूप अनेक!-God has many forms

परमात्मा एक रूप अनेक! 

‘‘यह कहा जाता है कि यह दृष्टांत-कथा सूफ़ी सद्गुरु इमाम मुहम्मद बाकिर से ही संबंधित है। यह बोध होने पर कि मैं चीटियों की भाषा बोल और समझ सकता हूं, मैंने उनमें से एक चींटी से सम्पर्क किया और पूछा-‘तुम्हारा परमात्मा किस आकृति का है? क्या वह चींटी से मिलता जुलता है?

उसने उत्तर दियाः परमात्मा? नहीं, वास्तव में हम लोगों के पास एक डंक होता है, लेकिन परमात्मा, उसके पास दो डंक होते हैं।’’

अल हिलाज-मंसूर कहता हैः

विचार और सिद्धांतों का मवाद इकट्ठा होकर फोड़ा बना, फूटाः

One God In Many Forms - YouTube
One God In Many Forms

और फिर चारों ओर शांति छा गई एक सन्नाटा और मौन छा गया। विचार गये, तो शब्द भी मिट गए और रह गया केवल होश।

तब विचारों और सिद्धांतों के वस्त्र उतार कर। मैं उसके सामने नग्न खड़ा हो गया।

पहिले मेरे इश्क की भट्ठी में देह की मिट्टी जली,

और फिर आग भी बुझ गई

तब सभी कुछ स्पष्ट हो गया, और चारों ओर शीतलता छा गई।

और उस विश्राम में चारों ओर अंधकार

तब फिर शीतल प्रकाश वाले बोध का सूरज उगा।

मैं इश्क की शराब पीकर मदमस्त बना नाचता रहा

तब उस तक मेरे पहुंचने, पाने

और उससे मिलने वाला आनंद भी मिट गया।

उस तलाश और खोज के मिट जाने पर

मैं पूर्ण विश्राम को उपलब्ध हुआ।

उसके अप्रकट होने और उसकी जुदाई की तड़प के बाद ही पूर्ण एकत्व घटित हुआ

पिघल कर उस पूर्ण मिलन में, मैं पूरी तरह मिट गया,

जैसे बूंद सागर में समाहित हो गई।

परमात्मा क्या है ?

यह तुम्हीं पर निर्भर करता है। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारा होगा, मेरा परमात्मा, मेरा परमात्मा होगा। इस बारें में उतने ही अधिक परमात्मा हैं, जितनी वहां परमात्मा की ओर देखने की सम्भावनाएं हैं। और यह स्वाभाविक है। हम अपने तल और स्तर के पार नहीं जा सकते, हम अपनी आंखों और मन के द्वारा परमात्मा के प्रति केवल सचेत हो सकते हैं। हमारे शरीर और मन के छोटे से दर्पण में परमात्मा एक विचार या प्रतिच्छाया की भांति होगा। इसी वजह से वहां परमात्मा के बारें में इतनी अधिक धारणाएं है।

यह आकाश में पूर्णमासी की चांदनी रात में दमकते चंन्द्रमा की भांति है। अस्तित्व में लाखों करोड़ों सरिताएं झीलें, समुद्र और छोटे झरने, सोते और तालाब है और इन सभी का जल परमात्मा को ही प्रतिबिम्बित करता है। उन सभी के जल में चन्द्रमा की ही छाया बनती है। एक छोटे से पोखर में चन्द्रमा की अपने ढंग से प्रतिच्छाया बनेगी और विशाल सागर उसे अपने ढंग से प्रतिबिम्बित करेगा।

तब इस बारें में वहां बहुत बड़े-बड़े विवाद हैं। हिन्दू कुछ कहते हैं, मुसलमान कुछ दूसरी चीज कहते हैं, ईसाई फिर कुछ और ही बात कहते हैं। और इसी तरह से कितनी ही तरह की बातें कही जाती हैं। सारा विवाद ही मूर्खतापूर्ण है। पूरा विवाद ही अर्थहीन है। परमात्मा लाखों दर्पणों में लाखों तरह से अपने को प्रतिबिम्बित करता है। प्रत्येक दर्पण अपने ढंग से उसे प्रतिबिम्बित करता है। सभी बुनियादी बातों में पहली चीज यही समझ लेनी जैसी है। इस बुनियादी बात को न समझने के कारण ही धर्मो के मध्य इस बारें में विवाद होना स्वाभाविक है, क्योंकि वे सभी यह सोचते हैं-’यदि हमारा दृष्टिकोण ठीक है, तब दूसरों का गलत होगा ही। उनके दृष्टिकोण का ठीक होना, दूसरों के गलत होने पर निर्भर होता है। यह मूढ़ता है। परमात्मा तो अनंत है और तुम अनेक तरह से और बहुत सी खिड़कियों के द्वारा देख सकते हो-और यह स्वाभाविक है कि तुम केवल उसे स्वयं के माध्यम से ही देख सकते हो-तुम ही वह खिड़की बनोगे। तुम्हारा परमात्मा, परमात्मा को उतना ही प्रतिबिम्बित करेगा जितना कि वह तुम्हें करेगा; तुम दोनों ही वहां होगे।

जब मंसूर कुछ भी कहता है, तो वह कुछ भी बात अपने ही बारे में कह रहा है। यह अत्यंत ही प्रभावी और आकर्षक वक्तव्य है-‘तब वह एकत्व और मिलन घटित हुआ, तब पिघल कर एकरूपता घटित हुई’। यह वक्तव्य परमात्मा की अपेक्षा अल हिलाज मंसूर के बारे में अधिक कहता है। मंसूर का यही है परमात्मा। यह मंसूर का अनूठा अनुभव है।

मंसूर को कत्ल कर दिया गया, जीसस की तरह उसे सलीब पर चढ़ा दिया गया मुसलमान उसे न समझ सके। ऐसा हमेशा ही होता है। तुम कोई भी महत्वपूर्ण चीज, स्वयं अपने से ऊंचे तल की नहीं समझ सकते। यह तुम्हारे लिए एक खतरा बन जाता है। यदि तुम उसे स्वीकार करते हो, तब तुम्हें यह ही स्वीकार करना होगा कि वहां कुछ ऐसी भी संभावना है, जो तुम्हारी अपेक्षा अधिक उच्चतम तल की है। इससे अहंकार आहत होता है, इससे तुम्हारा अपमान होता है, तुम्हें हीनता का अनुभव होता है। तुम मंसूर को, क्राइस्ट को, अथवा सुकरात को केवल एक इसी कारण से मार देना चाहते हो, क्योंकि तुम यह सोच भी नहीं सकते, तुम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि तुम्हारे दृष्टिकोण की अपेक्षा, इस बारें में किसी अन्य दृष्टिकोण की भी संभावना है। तुम यह विश्वास हुए प्रतीत होते हो कि इस अस्तित्व में तुम्हीं अंतिम सत्य हो, तुम्ही एक नायाब उदाहरण हो, कि तुम पराकाष्ठा पर हो और इस बारें में तुम्हारे पार कहीं कुछ भी नहीं है। यह अधार्मिक चित्त का मूढ़तापूर्ण दृष्टिकोण है। एक धार्मिक मन हमेशा ही हर चीज के लिए खुला हुआ होता है। एक धार्मिक चित्त कभी भी अपनी सीमाओं से आबद्ध नहीं होता। वह सदा यह स्मरण रखता है कि विकास का कहीं कोई अंत नहीं है, और प्रत्येक विकसित हुए चला जाता है।

Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply