( कर्णकी महत्ता )
(१)
पाण्डव बारह वर्षका वनवास तथा एक वर्षका अज्ञातवास पूर्ण कर चुके थे। वे उपप्लव्य नगरमें अब अपने पक्षके वीरोंको एकत्र कर रहे थे। भाइयोंमें युद्ध न हो, महासंहार रुक जाय, इसके लिये श्रीकृष्णचन्द्र याण्डवोंके दूत बनकर हस्तिनापुर दुर्योधनको समझाने गये; किंतु हठी दुर्योधनने स्पष्ट कह दिया –‘युद्धके बिना सूईकी नोक-जितनी भूमि भी मैं पाण्डवोंको नहीं दूँगा।’
वासुदेवका संधि-प्रयास असफल हो गया। वे लौटने लगे। उनको पहुँचानेके लिये भीष्म, विदुर आदि जो लोग नगरसे बाहरतक आये, उन्हें उन्होंने लौटा दिया; किंतु कर्णको बुलाकर अपने रथपर बैठा लिया। कर्णका खाली रथ सारथि पीछे-पीछे ले आ रहा था।
अपने रथपर बैठाकर, आदरपूर्वक श्रीकृष्णचन्द्र कर्णसे बोले –‘वसुषेण! तुम वीर हो, विचारशील हो, धर्मात्मा हो। देखो, मैं तुम्हें आज एक गुप्त बात बतलाता हूँ। तुम अधिरथ सूतके पुत्र नहीं हो, तुम कुन्तीके पुत्र हो। दूसरे पाण्डवोंके समान तुम भी पाण्डव हो, पाण्डुपुत्र हो; क्योंकि भगवान् सूर्यके द्वारा तुम पाण्डुकी पत्नी कुन्तीसे उनकी कन्यावस्थामें उत्पन्न हुए थे।!’
कर्ण सिर झुकाये चुप-चाप सुनते रहे। वासुदेवने उनके कंधेपर हाथ रखा –‘ तुम युधिष्ठिकके बड़े भाई हो। दुर्योधन अन्याय कर रहा है और तुम्हारे ही बलपर अकड़ रहा है। तुम उसका साथ छोड़ दो और मेरे साथ चलो। कल ही तुम्हारा राज्याभिषेक हो। युधिष्टिर तुम्हारे युवराज बनेंगे। पाण्डव तुम्हारे पीछे चलेंगे। मैं तुम्हें अभिवादन करूँगा। तुम्हारे सहित जब पाण्डव छ: भाई साथ खड़े होंगे, तब त्रिभुवनमें उनके सम्मुख खड़े होनेका साहस किसमें है?’
अब कर्ण तनिक मुसकराये। वे बोले–‘ वासुदेव ! मैं जानता हूँ कि देवी कुन्ती मेरी माता हैं। मैं सूर्य-पुत्र हूँ और धर्मत: पाण्डव हूँ। किंतु दुर्योधनने सदासे मेरा विश्वास किया है। जब सब मुझे तिरस्कृत कर रहे थे, दुर्योधनने मुझे अपनाया, मुझे सम्मानित किया। मुझपर दुर्योधनके बहुत अधिक उपकार हैं। मेरे ही भरोसे दुर्योधनने युद्धा आयोजन किया है। मैं ऐसे समय किसी प्रकार उनके साथ विश्वासघात नहीं करूँगा। आप मुझे आज्ञा दें उनके पक्षमें युद्ध करनेकी। होगा वही जो आप चाहते हैं; किंतु क्षत्रिय वीर खाटपर पड़े-पड़े न मरें, युद्धमें वीर-गति प्राप्त करें–यही मेरी इच्छा है।’
“कर्ण! तुम मेरा इतना भव्य प्रस्ताव भी नहीं मानते तो तुम्हारी इच्छा। युद्ध तो होगा ही।’ श्रीकृष्णचन्द्रने रथ रुकवा दिया।
उस रथसे उतरनेके पूर्व कर्ण बोले–‘वासुदेव ! मेरी एक प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करें। मैं कुन्तीपुत्र हूँ, यह बात आप गुप्त ही रखें; क्योंकि युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उन्हें पता लग जायगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ तो वे राज्य मुझे दे देंगे और मैं दुर्योधनको दे दूँगा। मैं दुर्योधनका कृतज्ञ हूँ, अत: युद्ध उन्हींके पक्षसे करूँगा; किंतु चाहता मैं यही हूँ कि न््यायकी विजय हो। धर्मात्मा पाण्डव अपना राज्य प्राप्त करें। जहाँ आप हैं, विजय तो वहाँ होनी ही है, फिर भी आप मेरा यह अनुरोध स्वीकार करें।’
महात्मा कर्णका अनुरोध स्वीकृत हो गया। वे श्रीकृष्णचन्द्रके रथसे उतरकर अपने रथपर जा बैठे और हस्तिनापुर लौट पड़े। (महाभारत, उद्योग० १४०-१४१)
(२) संधि करानेके प्रयत्रमें असफल होकर श्रीकृष्णचन्ध लौट गये। अब युद्ध निश्चित हो गया। युद्धकी तिथितक निश्चित हो गयी। इधर देवी कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हो रही थीं। कर्ण उनका ही पुत्र और वही अपने और भाइयोंसे संग्राम करनेको उद्यत! दुर्योधन कर्णके ही बलपर तो कूद रहा है। अन्तमें कुन्ती देवीने कर्णको समझानेका निश्चय किया। बे अकेली ही घरसे निकलीं | स्नान करके कर्ण गड्ढामें खड़े सूर्यदेवकी ओर मुख किये संध्या कर रहे थे। कुन्ती देवीको कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। संध्या समाप्त करके कर्णने मुख घुमाया। कुन्तीको देखते ही दोनों हाथ जोड़कर वे बोले–‘ देवि! अधिरथका पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता है।’ कुन्तीके नेत्र भर आये। बड़े संकोचसे वे बोलीं-‘बेटा! मेरे सामने तो तू अपनेको सूतपुत्र मत कह। मैं यही कहने आयी हूँ कि तू इन लोकप्रकाशक भगवान् सूर्यका पुत्र है और इस अभागिनीके गर्भसे उत्पन्न हुआ है। मैं तेरी माता हूँ। तू अपने भाइयोंसे ही युद्धका हठ छोड़ दे, बेटा! मैं तुझसे यही माँगने आयी हूँ आज।! कर्णने फिर दोनों हाथ जोड़े–‘माता! आपकी बात सत्य है। मुझे पता है कि मैं आपका पुत्र हूँ; किंतु मैं दुर्योधनके उपकारोंसे दबा हूँ। दुर्योधन उस समय मेरा मित्र बना, जब मुझे पूछनेवाला कोई नहीं था। आपत्तिके समय मैं मित्रका साथ नहीं छोड़ सकता। युद्ध तो मैं दुर्योधनके ही पक्षमें करूँगा।’ कुन्तीदेवीने भरे कण्ठसे कहा–‘माँ होकर आज संकोच छोड़कर मैं तेरे पास आयी और तू मुझे निराश करके लौटा रहा है!! कर्ण बोले–‘माता! आप मुझे क्षमा करें। मैं कर्तव्यसे विवश हूँ। परंतु मैं आपको बचन देता हूँ कि पर्जुनकों छोड़कर दूसरे किसी पाण्डवपर मैं घातक हार नहीं करूँगा। दूसरे भाई युद्धमें मेरे सामने पड़ें भी मैं उन्हें छोड़ दूँगा। आपके पाँच पुत्र बने रहेंगे। र्जुन मारे गये तो आपका पाँचवाँ पुत्र में और मैं मारा या तो अर्जुन हैं ही।’ “तुम अपना यह वचन स्मरण रखना! ! देवी कुन्ती शीर्वाद देकर लौट गयीं।
(४)
पितामह भीष्म सदा कर्णका तिरस्कार किया करते थे। युद्धफे आरम्भमें महारथी, अतिरथी बीरॉकी गणना करते समय सबके सामने ही उन्होंने कर्णको अर्धरथी कहा था। चिढ़कर कर्णने प्रतिज्ञा कर ली थी कि जबतक पितामह युद्धमें कौरवपक्षके सेनापति हैं, वह शस्त्र नहीं उठायेगा। दस दिनोंके युद्धमें कर्ण तटस्थ दर्शक ही रहे। दसवें दिन पितामह अर्जुनके बाणोंसे विद्ध होकर रथसे गिर पड़े। उनके शरीरमें लगे बाण ही उनकी शय्या बन गये थे। पितामहके गिरनेपर युद्ध बंद हो गया। सब स्वजन उनके समीप आये। यह भीड़ जब समाप्त हो गयी, जब शरशय्यापर पड़े भीष्म अकेले रह गये, तब एकान्त देखकर कर्ण वहाँ आये। उन्होंने कहा–‘पितामह ! सदा आपसे धुष्टता करनेवाला सूतपुत्र कर्ण आपके चरणोंमें प्रणाम करता है।’
भीष्मपितामहने स्लेहपूर्वक कर्णको पास बुलाया और स्नेहपूर्ण गढ़द वाणीसे बोले–‘ बेटा कर्ण! मैं जानता था कि तुम महान् शूर हो। तुम अद्भुत वीर एवं श्रेष्ठ महारथी हो। तुम ज्ञानी हो। परंतु तुम्हें हतोत्साह करनेके लिये मैं सदा तुम्हारा तिरस्कार करता था। इसी उद्देश्यसे मैंने तुम्हें अर्धरथी कहा था; क्योंकि दुर्योधन तुम्हारे ही बलपर युद्धको उद्यत हुआ। यदि तुम युद्धमें उत्साह न दिखलाते तो दुर्योधन युद्धका हठ छोड़ देता। यह महासंहार किसी प्रकार रुक जाय, यही मैं चाहता था। परंतु हुआ वही जो होनेवाला था। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें कभी दुर्भाव नहीं हुआ है। मेरी बातोंको तुम मनमें मत रखना।’
कर्ण मस्तक झुकाये सुनते रहे। पितामहने कहा-“बेटा! मेरी बलि लग चुकी है। तुम चाहो तो यह संहार अब भी रुक सकता है। में तुम्हें एक भेदकी बात बतलाता हूँ। तुम अधिरथके पुत्र नहीं हो। तुम सूर्यकुमार हो और कुन्तीके पुत्र हो। तुम पाण्डवोंमें सबसे बड़े हो। दुरात्मा दुर्योधनका साथ छोड़कर तुम्हें अपने धर्मात्मा भाइयोंका पालन करना चाहिये।’* ‘
कर्ण अब बोले–‘पितामह! आप जो कह रहे हैं, उसे मैं पहलेसे जानता हूँ। किंतु दुर्योधन मेरा मित्र है। उसने सदा मुझसे सम्मानका व्यवहार किया है। अपनेपर उपकार करनेवाले मित्रके साथ मैं विश्वासघात कैसे कर सकता हूँ। उसका मुझपर ही भरोसा है, ऐसी दशामें मैं इस संकटकालमें उसका साथ कैसे छोड़ सकता हूँ। आप तो मुझे युद्ध करनेकी आज्ञा दें। कौरवपक्षमें युद्ध करते हुए मैं वीरोंकी भाँति देहत्याग करूँ, यही मेरी कामना है।’
पितामहने आशीर्वाद दिया –‘ वत्स ! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। तुम उत्साहपूर्वक दुर्योधनके पक्षमें युद्ध करो। अपने कर्तव्यका पालन करो।’–