कबूतर का उपकार
एक दिन एक शिकारी जाल लेकर पक्षियों को पकड़ने के लिए जंगल में गया। वह जंगल में भूख प्यास से तड़पता हुआ दिन भर घूमता रहा परन्तु कोई भी पक्षी उसके हाथ नहीं लगा। इस पर वह दुखित हुआ सोचने लगा कि आज मैं बच्चों के लिये क्या आहार लेकर जाऊँगा। इसी समय एक कबूतरी उड़ती हुई आई और उसके जाल में फंस गई।
वह कबूतरी को जाल में अच्छी तरह से लपेटकर जैसे ही घर को चलने लगा तो तेज आँधी के साथ तेज वर्षा होने लगी। उस पापी व्याध के पास उस समय वक्षों के अतिरिक्त आँधी और वर्षा से बचने के लिए और कोई उपाय नहीं था। आँधी और वर्षा के कारण वह थरथर काँपने लगा और सर्दी के कारण उसके दाँत आपस में बजने लगे। थोड़ी ही देर में वह बेहोश हो गया।
जब उसे होश आया तो उस समय एक पहर रात्रि समाप्त हो चुकी थी तथा वर्षा भी बंद हो चुकी थी। परन्तु बर्फीली ठंडी हवा उसे ऐसे बींध रही थी मानों तीरों से उसका शरीर बिंध रहा हो। तब वह पापात्मा व्याध अपने प्राणों की प्रभु से भीख माँग रहा था। उसी समय एक कबूतर अपनी कबूतरी के न मिलने के कारण कह रहा था “हाय प्राण प्रिये! तू मुझे अकेला छोड़ कर कहाँ चली गई?
यदि तू जीवित हो तो मेरी आवाज सुनकर मेरे पास आकर मेरे चित्त को प्रसन्न कर वरना तेरे वियोग में मेरे भी प्राण निकलना चाहते हैं। इस तरह वह कबूतर कबूतरी के वियोग में आँसुओं की झड़ी बहा रहा था। अपने स्वामी की आर्तनाद सुनकर कबूतरी ने व्याध के जाल में पड़े ही पड़े कहा-है स्वामी! आप मेरे लिए चिन्ता न करें। मैं अभाग्यवश इस व्याध के जाल में फंसी पड़ी हूँ।
यद्यपि यह हिंसक व्यक्ति है और प्रतिदिन प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता है परन्तु आप इसे पापात्मा और आपकी पत्नी को पकड़ने वाला शत्रु मत समझिये, बल्कि इसे अपने द्वार पर आये हुए अतिथि के समान समझ कर इसकी भूख और ठंडक से रक्षा करने की कृपा करें। क्योंकि महात्मा लोग द्वार पर आये बड़े से बड़े शत्रु की भी रक्षा करके उसके कष्टों को दूर करने का करते हैं।
अपनी स्त्री की यह बात सुनकर वह धर्मात्मा कबूतर उड़कर थोड़ी ही देर में एक सुलगती हुई लकड़ी को चोंच में
दबाकर ले आया। फिर उसने सूखी घास और छोटी-छोटी सूखी लकड़ियों का ढेर लगा दिया और अपने पंखों को हिला हिलाकर अग्नि को प्रजवलित कर दिया।
अग्नि के प्रजवलित होने पर व्याध के शरीर में गर्मी आ गईं और वह पूर्णरूप से सचेत होकर वृक्ष के नीचे बैठ गया। अब महात्मा कबूतर ने सोचा कि अब इस अतिथि की भूख को भी शान्त करना चाहिए।
यह विचार कर वह धर्मात्मा कबूतर उस जलती हुईं अग्नि में गिर कर पंचतत्व को प्राप्त हो गया। यह दृश्य देखकर उस पाषाण हृदय पापात्मा व्याध का हृदय भी दया, धर्म और प्रेम में डूब कर पाप कर्मों से सर्वथा के लिए मुक्त हो गया।
तब उसने अपने हृदय में विचार किया कि इस संसार में कहाँ तो शत्रु पर भी दया करने वाला महात्मा कबृतर है और कहाँ मैं निरन्तर प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाला पापात्मा व्याध। मेरे विचार में मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलना चाहिए था।
यह विचार कर उस व्याध ने तुरन्त कबूतरी को छोड़ दिया और अपने जाल, दण्ड और छुरी कांटे को भी उसी अग्नि में जला दिया।
कबूतरी अपने पति कबूतर को मरा हुआ देखकर वह भी सोचने लगी कि संसार में बिना पति स्त्री का जीवन निरर्थक है। इसलिए मुझे भी अपना शरीर इसी अग्नि में जलाकर पति के साथ स्वर्ग में चले जाना चाहिए।
यह विचार कर कबूतरी ने भी उस अग्नि में अपना शरीर समर्पित कर शान्त हो गईं। कबूतरी के मरते ही स्वर्ग से एक सुन्दर विमान उतरा और उस दिव्य रूप धारी धर्मात्मा कबूतर व कबूतरी को विमान में बैठा कर व्याध के देखते-देखते स्वर्ग की ओर चला गया।
इसके बाद व्याध भी वहाँ से उठकर इस माया रूपी संसार से अपने मन को हटा कर काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और अहंकार पर नियंत्रण रखकर प्रभु के चरणों में लीन हो गया। कुछ काल तपस्या करने के पश्चात् मुनियों की तरह मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त हुआ।