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ek din ude taal ke hans fer nhi aavenge

kabir

Kabir ke Shabd

एक दिन उड़ै ताल के हंस, फेर नहीं आवेंगे।
लीपें सवा हाथ में धरती, काटैं बांस बनावै अर्थी।
संग चले ना तेरे धरती, वे चार उठावेंगे।।
या काया तेरी खाक में मिलेगी, जब ना तेरी पेश चलेगी।
हाँ जिसमें हरी हरी घास उगेगी, ढोर चर जावेंगे।।
बिस्तर बांध कमर हो तगड़ा, सीधापड़ा मुक्त का दगड़ा।
इसमें नहीं है कोई झगड़ा, न्यू मुक्ति पावेंगे।।
जो कुछ करी आपने करनी, वह तो अवश्य होगी भरनी।
ऐसी वेदव्यास ने वरणी, कवि कथ गावैंगे।।
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