उद्गार मौन के
समर्पण
“समर्पण का अर्थ है असीम बल। तुम अपने आप को जो मानते हो वही तुम्हारी कमज़ोरी है। अपनी कमज़ोरी का समर्पण कर दो। प्रार्थना करो और प्रतीक्षा करो कि वो पुकारे। उसकी पुकार ही तुम्हारा आत्मबल बनेगी। और तुम भागे चले जाओगे, अपना सारा कचड़ा पीछे छोड़ कर, यही समर्पण है।”
“आत्मबल इच्छाशक्ति नहीं है। इच्छा नहीं होती आत्मबल में। जब तक इच्छा का ज़ोर लगाओगे, तब तक आत्मबल की असीम ताक़त को नहीं पाओगे। इच्छाशक्ति है मन की अकड़, आत्मबल है मन का समर्पण। जब व्यक्तिगत इच्छा को ऊर्जा देना छोड़ते हो तब समष्टि का बल तुम्हारे माध्यम से प्रवाहित होता है- वह आत्मबल है।”
“समर्पण है किसी चीज़ की मूल्यहीनता को जान लेना। समर्पण ऐसे जैसे पेड़ से पत्तों का गिरना, या हाथ से जलता हुआ कोयला छोड़ देना ।”
“तुम ये इच्छा करो ही मत कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा न हो । तुम ये कहो कि, “जो बुरे से बुरा भी हो सकता हो, मुझमें ये सामर्थ्य हो कि उसमें भी कह सकूँ कि ठीक है, होता हो जो हो ।” लेकिन याद रखना, जो बुरे से बुरे में भी अप्रभावित रह जाए उसे अच्छे से अच्छे में भी अप्रभावित रहना होगा । तुम ये नहीं कह सकते कि, “ऐसा होगा तो हम बहुत खुश हो जायेंगे, लेकिन बुरा होगा तो दुःखी नहीं होंगे ।” जो अच्छे में खुश होगा, उसे बुरे में दुःखी होना ही पड़ेगा । तो अगर तुम ये चाहते हो कि तुम्हें डर न लगे, कि तुम्हें दुःख न सताए, कि तुम्हें छिनने की आशंका न रहे तो तुम पाने का लालच भी छोड़ दो ।”
“स्वयं का विसर्जन ही महादान है।”
“एक ठीक रखो, सब ठीक रहेगा।”
“जब हम पूछते हैं, ‘समर्पण किसको?’ तो हम अपने अहंकार को सुरक्षित रखना चाहते हैं, उसका पता-ठिकाना याद रखना चाहते हैं, ताकि एक दिन उसे वापस ले सकें। समर्पण किसी को नहीं किया जाता। बस समर्पण किया जाता है।”
“समर्पण तुम्हें करना है। गुरु मात्र एक विधि है, जिसके सामने तुम अपनी बीमारियाँ रख सको – समर्पित कर सको। तुम बीमारी से मुक्त हो जाओ और गुरु बीमारी से अप्रभावित रह जाए।”
“जो संसार में गुरु ढूंढता है उसे ढूंढ ढूंढ के भी कुछ नहीं मिलेगा। वो संसार में ढूंढेगा, और संसार में ही भटकेगा। बिरला ही होता है जो संसार को छोड़ अपने आप को देखता है, – ऐसे सुपात्र को गुरु स्वयं ही पास बुला लेता है। स्वयं को जिसने भी ईमानदारी से देखा है, उसने अपनी क्षुद्रता और अक्षमता को ही देखा है। जब तुम स्वीकार कर लेते हो कि तुमसे नहीं होगा, तब तुम विराट को मौका देते हो तुम्हारे लिए कुछ कर पाने का। समर्पण का अर्थ होता है अपने कर्ताभाव का समर्पण, इस भावना का समर्पण कि तुम अपना हित ख़ुद कर लोगे।”
“हमें मुक्ति अपने प्रयत्नों से नहीं, समर्पण से मिलेगी।”
“‘जो करोगे वो तुम ही करोगे’, यह श्रद्धा है, समर्पण है| ‘हमें कुछ नहीं करना’, यह अकर्ताभाव है, विरोध है| जीवन दोनों को एक साथ लेकर चलने का नाम है|”
“संसार का विरोध इसलिये क्योंकि संसार की प्रकृति है प्रभावित करना, संस्कारित करना| जो संसार के आकर्षण से न खिंचे और उसके डराने से न डरे, वो संसार का विरोध ही कर रहा है| उस विरोध के लिए गहरा समर्पण चाहिए| तो संसार का विरोध करो ताकि तुम संसार में प्रेम से रह सको| जितना गहरा प्रेम, उतना गहरा विरोध |”
“ज़ेन में पोले बांस जैसा होने की बात कही जाती है। अप्रतिरोध, समर्पण से संगीत पैदा होता है। वही कृष्ण की मुरली भी है।”
“जिस अधूरे मन से कदम उठाते हैं समर्पण के लिए, उसी अधूरे मन से भय उठता है।”
“समर्पित होना मतलब अपने चुनाव करने का अधिकार त्यागना।”
“जो सत्य को समर्पित है वो संसार से कैसे भाग सकता है? संसार उतना ही पूजनीय जितना उसका स्रोत |”
“संसारी-सन्यासी सत्य के आगे समर्पित और संसार का बादशाह है |”
“पकड़ने के लाखों तरीके हैं पर छोड़ने का एक ही तरीका है। बस छोड़ दो ।”
“उस पर छोड़ना ही निभाना है |”
“जहां से आदेश आता है, आदेश का पालन करने की ऊर्जा भी वहीं से आती है।”
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उपरोक्त सूक्तियाँ श्री प्रशांत के लेखों और वार्ताओं से उद्धृत हैं