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आत्म प्रचार से विमुखता -Disagreement with self promotion

आत्म प्रचार से विमुखता 

विद्वान् सर रमेशचन्द्रदत्त इतिहास मर्मज्ञ पुरुष थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। एक बार वे श्री अरविन्द के पास गये और उनसे उनकी कुछ रचनाओं की पाण्डु लिपियाँ पढ़ने को माँगीं। ये रचनाएँ रामायण तथा महाभारत की अंग्रेजी अनुवाद थीं। इसके पहले दत्त महाशय भी महाभारत , रामायण का अंग्रेजी अनुवाद किया था और उस अनुवाद को लंदन के एक प्रकाशक ने प्रकाशित करने के लिये ले लिया था। अब श्रीअरविन्द के इस अनुवाद को पढ़कर दत्त के विस्मय की सीमा नहीं रही। अरविन्द कई दिनों से आत्मप्रचार से विमुख थे और आत्म परिचय की स्पृहा भी उन्हें नहीं थी। यह तो सब था ही, पर अपनी रचना के सम्बन्ध में भी वे उदासीन थे।

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इतना जानते हुए भी गुणग्राही और उदारहृदय दत्त महाशय ने मुक्त कण्ठ से उनसे कहा – ‘ ऋषिवर ! मैंने भी यह अनुवाद किया है । मौर लंदन की ‘ एवरमिन्स लाइब्रेरी ‘ को प्रकाशनार्थ जा है । बहुत दिन हो गये , शायद वह छप भी गया होगा , परंतु आपका यह अनुवाद इतना सुन्दर हुआ है कि मेरे उस अनुवाद को प्रकाशित कराने में मैं अब लज्जा का अनुभव कर रहा हूँ । ‘ सर रमेशचन्द्र के मुख से यह बात सुनकर यदि अन्य कोई होता तो फूला न समाता । परंतु श्रीअरविन्द तनिक भी उल्लसित नहीं हुए , बल्कि शील भाव से बोले – यह सब मैंने छपाने के हेतु नहीं लिखा है और न मेरे जीवन – काल में यह छप सकेगा।
 फिर भी दत्त महाशय अपने लोभ का संवरण नहीं कर सके। वे बार – बार मुक्त कण्ठ से कहते रहे  इस अमूल्य सामग्री का प्रकाशन तो हो ही जाना चाहिये। परंतु श्री अरविन्द किसी प्रकार भी राजी नहीं हुए । कहना गलत नहीं होगा कि श्रीअरविन्द ने अपने जीवन में न जाने कितनी अमूल्य सामग्री का निर्माण किया होगा । वह सब यदि प्रकाश में आ जाती तो आज साहित्य की कितनी अभिवृद्धि हुई होती ।
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