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धर्मो रक्षति रक्षित:

वनवासके समय पाण्डव द्वैतवनमें थे। वनमें घूमते समय एक दिन उन्हें प्यास लगी। धर्मगाज युधिष्टिरने व॒क्षपर चढ़कर इधर-उधर देखा। एक स्थानपर हरियाली तथा जल होनेके अन्य चिह्न देखकर उन्होंने नकुलको जल लाने भेजा। नकुल उस स्थानकी ओर चल पढ़े। वहाँ उन्हें स्वच्छ जलसे पूर्ण एक सरोवर मिला; किंतु जैसे ही वे सरोवरमें जल पीने उतरे, उन्हें यह वाणी सुनायी पड़ी–‘इस सरोवरका पानी पीनेका साहस मत करो! इसके जलपर मैं पहले ही अधिकार कर चुका हूँ। पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दे लो, तब पानी पीना।’ नकुल बहुत प्यासे थे। उन्होंने उस बातपर, जिसे एक यक्ष कह रहा था, ध्यान नहीं दिया। लेकिन जैसे ही उन्होंने सरोवरका जल मुखसे लगाया, वैसे ही निर्जीव होकर पृथ्वीपर गिर पढड़े। इधर नकुलको गये बहुत देर हो गयी तो युधिष्टिरने सहदेवको भेजा। सहदेवको भी सरोवरके पास यक्षकी वाणी सुनायी पड़ी। उन्होंने भी उसपर ध्यान न देकर जल पीना चाहा और वे भी प्राणहीन होकर गिर गये। इसी प्रकार धर्मराजने अर्जुको और भीमसेनको भी भेजा। वे दोनों भी बारी-बारीसे आये और उनकी भी यही दशा हुई। जब जल लाने गये कोई भाई न लौटे, तब बहुत थके होनेपर भी स्वयं युधिष्ठिर उस सरोवरके पास पहुँच गये। अपने देवोषम भाइयोंको प्राणहीन पृथ्वीपर पड़े देखकर उन्हें अपार दु:ख हुआ। देरतक भाइयोंके लिये , शोक करके अन्तमें बे भी जल पीनेको उद्यत हुए। उन्हें पहले तो यक्षने बगुलेके रूपमें रोका; किंतु युधिष्ठिरके पूछनेपर कि–‘तुम कौन हो ?’ वह यक्षके रूपमें एक वृक्षपर दिखायी पड़ा। शान्तचित्त धर्मात्मा युधिष्ठटिने कहा–‘यक्ष! मैं दूसरेके अधिकारकी वस्तु नहीं लेना चाहता। तुमने सरोवरके जलपर पहले ही अधिकार कर लिया है, तो वह जल तुम्हारा रहे। तुम जो प्रश्न पूछना चाहते हो, पूछो। मैं अपनी बुद्धिके अनुसार उनका उत्तर दैनेका प्रयत्न करूँगा।’ 

यक्षने अनेकों प्रश्न पूछे। युधिष्ठिरे सभी प्रश्नोंका उचित उत्तर दिया। उनके उत्तरोंसे संतुष्ट होकर यश्नने कहा–‘ राजन! तुमने मेरे प्रश्नोंके ठीक उत्तर दिये हैं; इसलिये अपने इन भाइयॉमेंसे जिस एककों चाहों, वह जीवित हो सकता है।’ 
युधिष्टिर बोले–‘आप मेरे छोटे भाई नकुलकों जीवित कर दें।’ यक्षने आश्चवर्यके स्वरमें कहा–“तुम राज्यहीन होकर वनमें भटक रहे हो, शत्रुओमे तुम्हें अन्तमें संग्राम करना है, ऐसी दशामें अपने परम पराक्रमी भाई भीमसेन अथवा शस्त्रज्नचूड़ामणि अर्जुनको छोड़कर नकुलके लिये क्‍यों व्यग्र हो?’ 
धर्मराज युधिष्ठटिरने कहा–‘यक्ष! राज्यका सुख या वनवासका दुःख तो भाग्यके अनुसार मिलता है; किंतु मनुष्यको धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। जो धर्मको रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है। इसलिये मैं धर्मको नहीं छोड़ेँंगा। कुन्ती और माद्री दोनों मेरी माता हैं। कुन्तीका पुत्र मैं जीवित हूँ। अत: मैं चाहता हूँ कि मेरी दूसरी माता माद्रीका वंश भी नष्ट न हो। उनका भी एक पुत्र जीवित रहे। तुम नकुलफो जीवित करके दोनोंको पुत्रवती कर दो।’ 
थक्षने कहा-तुम अर्थ और कामके घिषयोंमें परम उदार हो, अत; तुम्हारे चारों भाई जीवित हो जायें। मैं तुम्हारा पिता धर्म हूँ। तुम्हें देखने तथा तुम्हारी धर्मनिष्ठाकी परीक्षा लेने आया था।’ 
धर्मने अपना स्वरूप प्रकट कर दिया। चारों | मृतप्राय पाण्डब तत्काल उठ बैठे । 

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