आँख बिना अंधेरा
एक बार एक दवाखाने में चार व्यक्ति बैठ हुए थे। वे चारों आँखों के मोतिया बिन्द के मरीज थे। इस दवाखाने के डॉक्टर की ख्याति सुनकर ही यहाँ पर आये थे। एक मरीज ने दवाखाने के शीशे पर हाथ रखकर कहा – यह शीशा लाल है। यह बात मेरे काका कहा करते हैं।
दूसरा मरीज बोला – यह शीशा लाल नहीं नीला है। यह बात मेरे मामा ने बताई है। वे यहाँ पर कम्पाउण्डर हैं। उनकी बात कभी असत्य नहीं हो सकती।
तीसरा मरीज बोला – काँच न लाल है, न नीला है अपितु बादल के रंग का है। ऐसा मेरे बड़े भाई ने बताया है। मेरे भाई जितना रंगों का ज्ञाता कोई दूसरा नहीं हो सकता क्योंकि वह रंग विद्या की परीक्षा एक बहुत बड़े स्कूल से उत्तीर्ण है
अब चौथे से चुप न रहा गया। वह बोला – यह शीशा काले रंग का है। ऐसे मेरे पुत्र का कहना है। वह इस समय
परदेश में विज्ञान का प्रोफेसर है। इस कारण उसका कहना आप लोगों को मान लेना चाहिए।
बातों ही बातों में झगड़ा बढ़ता ही गया। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अपनी बात पर डटा हुआ था। इसी समय उनके पास एक चौथा मनुष्य आ पहुँचा जिसके नेत्र सामान्य थे। वह बोला व्यर्थ में क्यों लड़ रहे हो? तुम सबने जो-जो रंग बताये हैं, उन सभी रंगों के शीशे यहाँ पर मौजूद हैं।
तुम लोग कुछ देख तो रहे नहीं हो । बेवजह लड़ रहे हो।
कहा भी गया है-
। हाथी देखन अन्ध में, देखा एक-एक अंग ।
| अंग बराबर गज भयो, कियो परस्पर जंग॥