Kabir ke Shabd
चरखा परे हटा माई, मैं कातूँ सूत गगन में।।
ऐसा चरखा दिया धनी ने, डांडी नाम जँचाई।
नेम टेम से घाल के बैठो, यो मन कातन में लाई।।
सत्त संगत की करो पांखडी, जतनी जोत जलाई।
शब्द का बेलन माल सांस की, हथली हिया कहाई।।
सूरत निरत की खूंटी गाडूं, चरमख चाव लगाई।
सुमरण सूत तलवा का तागा, यो तार ध्यान बन जाई।।
अनहद बाजे सुनै बाजते, सखियां मंगल गाई।
ज्ञान कुकड़ी त्यार हुवै जब, रोम रोम रंग छाई।।
कंवर साहब सद्गुरु मिले पूरे, कातन खूब सिखाई।
सत्त फेर कातले इस चरखे नै, जन्म मरण मिट जाइ।।