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चिन्तन की धारा बदल कर देखें – Change the stream of thinking

चिन्तन की धारा बदल कर देखें

वियना के मनः चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. विक्टर ई. फ्रेंक्ल ने अपने 50 वर्षों के चिकित्सा अनुभवों का सार बताते हुए लिखा है कि “ जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न रहेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिन्दगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। उस दबाव से इतनी थकान आती है कि कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। मानसिक पराधीनता व्यक्तित्व विकास के सभी द्वार बन्द कर देती है। विवेक को विकसित होने का अवसर न मिलने के कारण अवांछित स्थिति में रहने और उसी में दम तोड़ने को विवश होते प्रायः ऐसों को ही देखा जाता है।

वैज्ञानिकों ने जब जीवन से निराश व्यक्तियों का अध्ययन किया, जिनमें अधिकाँश विधुर एवं विधवाएँ थी, जो ज्ञात हुआ कि मृत्युजन्य गहरा आघात उनके प्रतिरक्षा प्रणाली को भी प्रभावित करता है। तीन महीने बाद तक एक ही मनःस्थिति बनी रहने के कारण शरीर प्रतिरक्षा तन्त्र के महत्वपूर्ण घटक ‘टी’ तथा ‘बी’ लिस्फोसाइट कोशिकाएँ संख्या में कम तथा सक्रियता में मन्द पड़ जाती हैं। यह भी पाया गया है कि प्रियजनों की मृत्यु के पश्चात् जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनके रक्त में कार्टिजोल नाम विषैले रसायन की अभिवृद्धि भी देखी जाती है। यह हारमोन इम्यून सिस्टम को तहस-नहस करके रख देता है।

stream of consciousness

वस्तुतः मन एवं शारीरिक फिजियोलॉजी परस्पर सम्बद्ध हैं। निराशा या निषेधात्मक भाव तरंगें रक्त, हार्मोन आदि कायिक रसायनों में उथल-पुथल मचा देती हैं तथा सभी प्रकार की अनैच्छिक क्रियाओं यथा चयापचय, हृदयगति, श्वास-प्रश्वास रक्तचाप आदि को भारी क्षति पहुँचाती है।

इन सभी तथ्यों के अध्ययन के पश्चात् नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विख्यात वैज्ञानिक वाल्टर हैस ने निष्कर्ष निकाला है कि जब निषेधात्मक एवं निराशावादी चिन्तन शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकते हैं, व्यक्तित्व को गया गुजरा स्तर का बना सकते हैं। तो कोई कारण नहीं कि आशा एवं उत्साहवर्धक विधेयात्मक चिन्तन अनुकूल परिणाम प्रस्तुत न कर सके। स्वास्थ्य संवर्द्धन के साथ व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय गति प्रदान न कर सके। इसकी पुष्टि के लिए वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के मूर्धन्य विज्ञानी निकोलस हाल ने ऑटोसजेशन का प्रयोग केंसरग्रस्त रोगियों पर किया। इसमें उन्हें आशाजनक सफलता प्राप्त हुई। देखा गया कि एन्ना जैसी मरणासन्न रोगी भी विधेयात्मक दिशा धारा अपना कर पूर्णतः स्वस्थ हो गई।

एन्ना कैंसर की अन्तिम अवस्था से गुजर रही थी, जिसे चिकित्सकों ने दुःसाध्य घोषित कर दिया था। उसके बाँये हाथ को लकवा मार गया था। सिर पर भी असह्य वेदना रहती थी। उसके लिए डॉक्टरों की सलाह थी कि जब वह अपने जीवन की चिन्ता छोड़ शेष बचे थोड़े समय में अपने बच्चों के निर्वाह की उपयुक्त व्यवस्था करे।

एन्ना लगभग निराश हो चुकी थी। कैंसर का जहर पूरे शरीर में फैलता जा रहा था कि इसी बीच उसकी मुलाकात डॉ. हाल से हुई। उन्होंने उसे विस्तार पूर्वक ऑटोसजेशन द्वारा विधेयात्मक चिन्तन से अपने को परिपूरित करने की कला से अवगत कराया और उसे पूर्ण स्वस्थ हो जाने का विश्वास दिलाया।

नियमित रूप से एन्ना उक्त क्रिया करने लगी। इससे उसे आश्चर्यजनक लाभ हुआ। एक वर्ष बाद जब चिकित्सकों ने उसका परीक्षण किया तो पूर्णतः स्वस्थ हो चुकी थी। कैंसर एवं पक्षाघात समूल नष्ट हो गये थे।

श्रुति कहती है-यो यच्छ्रद्धः स एव सः” अर्थात् मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता चला जाता है। चिकित्सा जगत में अब इसी सिद्धान्त का प्रयोग होने लगा है। ऐसी अनेकों बीमारियाँ है, जिनका उपयुक्त उपचार अभी तक खोजा नहीं जा सका है उनकी गिरफ्त में आने का अर्थ ही होता है, रोगी की मृत्यु। ऐसी स्थिति में अध्यात्म विज्ञान की यह पद्धति जिसे सेल्फ इमेजिंग ऑटोसजेशन अथवा विधेयात्मक चिन्तन आदि नाम से जाना जाता है, बहुत ही कारगर एवं प्रभावयुक्त सिद्ध हुई है।

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