पाँचों पाण्डवोंने भगवान् व्यासकी अनुमतिसे यह नियम कर लिया था कि एक नियमित समयतक द्रौपदीके साथ एक भाई एकान्तमें रहेगा। उस समय दूसरा भाई वहाँ नहीं जायगा। यदि कोई द्रौपदीके एकान्तवासको देख लेगा तो वह बारह वर्षके लिये राज्यसे बाहर निर्वासित होकर रहेगा। एक बारकी बात है। लुटेरोंने ब्राह्मणकी गायें लूट लीं। उन्होंने पुकार मचायी। अर्जुनने ब्राह्णफो आश्वासन दिया। पर यह अड़चन थी कि जिस घरमें अर्जुनके अस्त्र-शस्त्र थे, उसीमें द्रौपदीजीके यास राजा युधिष्ठिर थे। अर्जुनने ब्राह्मणके गोधनकी तथा युधिष्टिरके राज्यधर्मकी रक्षाके लिये घरमें जाकर अस्त्र लानेका निश्चय किया और वे घरमें जाकर धनुष आदि ले आये और ब्राह्मणकी गौ छुड़ा लाये।
प्रात:काल युधिष्ठटिरके पास जाकर अर्जुनने कहा-“महाराज! मैंने एकान्त घरमें जाकर नियम भड़ किया है, अत: बारह वर्षके निर्वासनकी मुझे आज्ञा दीजिये।’ युधिष्ठटिरने व्याकूुल होकर कहा–‘ भाई ! तुमने तो मेरा राज्य-धर्म बचाया है, ब्राह्मणकी रक्षा की है, अपने धर्मका पालन किया है। मुझे इससे तनिक भी दुःख नहीं हुआ। फिर बड़ा भाई यदि अपनी पत्नीके पास बैठा हो तो वहाँ छोटे भाईका जाना अपराध नहीं है। हाँ, बड़े भाईको छोटे भाईके एकान्तमें नहीं जाना चाहिये। इससे न तो तुम्हारे धर्मका लोप हुआ है, न मेरा अपमान। अतएव तुम यह विचार छोड़ दो।’ अर्जुनने कहा –‘महाराज! आपकी ही तो यह सम्मति है कि धर्मके पालनमें कोई भी बहानेबाजी नहीं करनी चाहिये। फिर मैं किसी बहानेका सहारा लेकर धर्म क्यों छोड़ं। किसी भी युक्तिसे मैं अपनी सत्य-प्रतिज्ञाको नहीं तोड़ सकता।’ युधिष्टिरने मूक सम्मति दी। अर्जुन चले गये।