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बुद्ध थे पहले कम्युनिस्ट, पर उदार व अहिंसक-Buddha was the first communist, but liberal and non-violent

बुद्ध थे पहले कम्युनिस्ट, पर उदार व अहिंसक
सिद्धार्थ के जन्म के थोड़े दिन बाद ही असित नाम का एक वृद्ध संन्यासी शुद्धोधन के दरबार में पहुंचा। नवजात शिशु को गोद में लेकर देखा; पहले तो खूब हंसा और फिर अगले ही पल रोने लगा। जब राजा ने इसका कारण पूछा तो उसने बहुत भावुक होकर कहा:“ मैं हंसा इसलिए, क्योंकि यह बच्चा बड़ा होकर सम्यक सम्बुद्ध होगा; और रोया इसलिए क्योंकि जब यह अपने उपदेश देगा तब मैं जीवित नहीं रहूँगा!” हमारा दुर्भाग्य यह है कि इस देश में बुद्ध हुए, अपनी बातें कहीं, और हम अब भी उन्हें सुन भी नहीं पा रहे। ज्यादा से ज्यादा अपने राजनीतिक चातुर्य और तथाकथित आध्यात्मिक प्रपंच में उन्हें लपेटे ले रहे हैं, या फिर कर्मकांडों में फंस कर उनकी देशना की वास्तविक सुरभि को कहीं खो दे रहे हैं।

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बुद्ध की तीसरी देशना का उल्लेख महान अंग्रेजी कवि टी. एस. एलियट अपनी अमर कृति ‘द वेस्ट लैंड’ में करते हैं। पाली भाषा में इस देशना को ‘आदित्त परियाय सुत्त’ और अंग्रेजी में ‘The Fire Sermon’ के नाम से जाना जाता है। बुद्ध इस देशना में समूची धरती के जलने की बात करते हैं। वह कहते हैं: “भिक्खुओं, सब कुछ जल रहा है। आँखें जल रही हैं, चेतना जल रही है; जिसका स्पर्श चेतना कर रही है, वह भी जल रहा है….और भिक्खुओ, यह सब कैसे जल रहा है? यह सब कुछ जल रहा है वासना की आग में, नफरत की आग में, भ्रम की अग्नि में…जन्म, मृत्यु, रोग और दुःख से, हताशा से जल रहा है…।“ आज अपने चारों ओर देखें तो हालात अभी भी वैसे ही तो हैं। बल्कि यह कहा जाए कि आग अब अधिक झुलसा रही है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। ऐसे में बुद्ध की देशनाएं, अन्तर्दृष्टियां और करुणामयी प्रज्ञा एक घनी शीतल छाँव का काम करती हैं। लगभग 2600 वर्ष पूर्व राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने जीवन का अर्थ ढूँढने के लिए एक चुनौतीपूर्ण यात्रा शुरू की थी। यात्रा समाप्त होने पर उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टियां किसी विशेष रूप से पीड़ित, दुःख ग्रस्त समाज के साथ ही साझा नहीं की, बल्कि पूरी मानवता को संबोधित किया।

उनके चार आर्य सत्य थे : दुःख है, दुःख का कारण है (दुःख समुदय), दुःख की समाप्ति है (दुःख निरोध) और दुःख की समाप्ति का मार्ग है ( दुःख निरोध प्रतिपदा)। ये शाश्वत सत्य हैं, और हर युग में उतने ही अर्थपूर्ण हैं जितने उस समय थे। इन्हें लोगों के समक्ष रखते समय बुद्ध को मानवता के दुःख और क्लेश का समूचा प्रश्न विचलित कर रहा था। हिंसा की समाप्ति और मानव चेतना में करुणा के संभावित आविर्भाव की बात करते समय भी उनके मन-मस्तिष्क में समूची मानवता की तस्वीर ही थी। ऐसे में यह प्रश्न अपने आप में ही बड़ा दुर्बल और अतार्किक लगता है कि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है या नहीं। प्रश्न तो बस यही है कि बुद्ध की शिक्षाओं को समझने और जीने में हम कैसी बाधाओं का सामना कर रहे हैं? यह भी कि अपने बुद्ध को भूलने की कितनी ज्यादा कीमत हम चुका रहे हैं?

स्पष्ट है कि हमारा वर्तमान सामाजिक ढांचा, आर्थिक, भौतिक समृद्धि पर हमारा अनावश्यक जोर, सफलता की अंधाधुंध उपासना हमें बुद्ध की शिक्षाओं की करुणा और विराटता के स्पर्श में आने से रोकते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति और संस्कार जाने अनजाने उन देशनाओं के विपरीत खड़े हो जाते हैं। ऐसे में बुद्ध हमारे लिए परम श्रद्धेय और पूजनीय तो रहते हैं, पर उनकी शिक्षाओं को जीने के लिए हम तैयार नहीं हो पाते। एक वजह यह भी है कि एक समाज और मानव प्रजाति के रूप में हम सतही चीज़ों में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं और जीवन के गंभीर प्रश्न पूछने से आम तौर पर कतराते हैं।

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यदि बुद्ध की शिक्षाओं को उनके सर्वोच्च अर्थ में देखा जाए तो वे सजगता एवं अवधान की शिक्षाएं हैं। बुद्ध के व्यक्तित्व और उनकी स्पष्टता से अचंभित एक ब्राह्मण युवक ने जब उनसे पूछा: “आप मनुष्य हैं या देवता?”, तो बुद्ध ने बड़ी सरलता से इसके उत्तर में कहा: ”मैं तो बस सजग हूँ”। जब उस युवक ने सजगता का अर्थ जानने की कोशिश की तो बुद्ध ने बताया: “मैं जब चलता हूँ, तो बस चलता हूँ; बैठता हूँ, तो बस बैठता हूँ; पर हिलता डुलता नहीं”। इससे आगे उन्होंने कहा:” जब मैं अपनी दाहिनी ओर देखता हूँ, तो पूरे होश में कि मैं अपनी दाहिनी ओर देख रहा हूँ; जब मैं अपनी बायीं ओर देखता हूँ, तो ­­­­­­­पूरे होश के साथ कि मैं अपनी बायीं ओर देख रहा हूँ”। विपश्यना, या विपश्चना की उत्पत्ति बुद्ध के इसी वक्तव्य में हुई बताई जाती है। इसका मूल अर्थ है गहराई से, गौर से, पूरे अवधान के साथ देखना। बुद्ध का अर्थ है बोधि प्राप्त व्यक्ति। जो बद्ध नहीं। बुद्ध ने निर्वाण शब्द की बड़ी सरल परिभाषा दी थी और कहा था: ‘निर्वाण का अर्थ है ‘दुःख-ध्वंस’। यानी जिस व्यक्ति ने दुःख का नाश कर दिया, उसे निर्वाणप्राप्त, या जीवनमुक्त व्यक्ति कहा जा सकता है। जिस जीवन का सबसे पहला आर्य सत्य दुःख हो, उसमे दुःख ध्वंस अपने आप में ही एक विराट चुनौती है और इसी चुनौती का सामना करने के लिए बुद्ध अपने महल से, एक बुर्जुआ और सामान्य जीवन छोड़ कर बाहर निकले थे। उस जीवन में धन था, पर समृद्धि नहीं थी, सत्ता थी पर शांति नहीं थी। मोह और लगाव था, पर प्रेम नहीं था। बौद्ध ग्रन्थ बताते हैं कि बुद्ध निर्वाण के पश्चात मौन में चले गये थे। लोगों के हठी आग्रह के बाद ही वह बोलने के लिए राजी हुए और उनका प्रारंभिक वक्तव्य ही बड़ा अद्भुत था। उन्होंने कहा: “मेरी सबसे आश्चर्यजनक खोज यह रही है कि हर इंसान निर्वाण को प्राप्त हो सकता है”। इसका तात्पर्य यही है कि बुद्ध ने खुद को आम इंसान से अलग किसी अनूठे और महान गुरु के रूप में स्थापित करने का प्रयास नहीं किया बल्कि यही कहा कि जो कुछ उन्होंने समझा है, वह हर इंसान की पहुँच के अन्दर ही है। दुःख का कारण ढूंढ कर उसे समाप्त करने वाले न ही वह पहले व्यक्ति हैं, और न ही अंतिम, इसे उन्होंने बार बार स्पष्ट किया। इस तरह बौद्ध धर्म ने कभी एक व्यक्ति की सत्ता को कभी स्थापित नहीं किया, और न ही उसकी पूजा और तरह तरह के कर्मकांडों की बात की। बुद्ध ने बार बार कहा: “ मैं जो कहता हूँ, उसे सिर्फ इसलिए स्वीकार न करें क्योंकि मैं ऐसा कह रहा हूँ। जिस तरह एक सुनार सोने की शुद्धता की जांच करता है, उसे घिसता है, उसे परखता है, उसे जांचता है, ठीक उसी तरह मेरी शिक्षाओं की जांच की जानी चाहिए और इसके बाद ही उन्हें अपनाना चाहिए”। बुद्ध ने तर्क और व्यक्ति के भीतर पहले से बसी प्रज्ञा को विकसित करने पर जोर दिया। स्थापित धर्मों की व्याख्याओं और उनकी रूढ़ियों पर उन्होंने कठोरता के साथ प्रश्न उठाये। उनके अंतिम शब्द ”अप्प दीपो भव” (अपना प्रकाश स्वयं बनो) इसी सत्य की ओर इशारा करते हैं कि हर इंसान को अपना मार्ग खुद ही ढूंढना है। अपने अनुयायियों को खुद के प्रभाव से मुक्त करने के लिए पूरी ईमानदारी से उन्होंने प्रयास किये। कहा जा सकता है कि हालाँकि बुद्ध के शिष्य थे, उनके विहार में लोग उनकी देशना के लिए एकत्र होते थे, पर उन्होंने अंधभक्ति को कभी बढ़ावा नहीं दिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनका यह वक्तव्य: ”मेरी बातें चाँद की तरफ इशारा करने वाली ऊँगली के समान है। तू चाँद को देखो; इस ऊँगली को चाँद न समझो ।“ धर्म के मामले में भक्त यही गलती करते आये हैं; अंधभक्ति, व्यक्ति पूजा, गुरु के प्रति मूढ़तापूर्ण श्रद्धा और गुरु द्वारा शिष्यों का शोषण इसका परिणाम हैं।

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बुद्ध करुणा का पर्याय रहे हैं। बचपन में ही एक घायल हंस को लेकर सिद्धार्थ शुद्धोधन के दरबार में पहुंचे थे और करुणा को जीवन का सबसे आवश्यक गुण बताया था। अंगुलिमाल जैसे क्रूर अपराधी का ह्रदय परिवर्तन कर उन्होंने फिर से हिंसा की तुलना में करुणा और प्रेम के महत्व को स्थापित किया। बुद्ध होने के बाद उन्होंने जिस ‘धम्म’ का प्रचार किया, करुणा उसका विशिष्ट उपादान थी। बुद्ध संसार के पहले साम्यवादी भी थे। उनकी दृष्टि बस इंसानी समाज की विसंगतियों तक सीमित नहीं थी। पूरी कायनात पर, पशु-पक्षियों और पर्यावरण की रक्षा की भी गहरी फिक्र थी उन्हें। बगैर तानाशाही के, पूरे लोकतान्त्रिक तरीकों के साथ, ‘मैं-तुमसे-अधिक-जानता-हूँ’ के भाव से मुक्त, बुद्ध का अहिंसक, करुणावान साम्यवाद सही अर्थ में इंसानी समाज की रुग्णता का इलाज है।

बुद्ध किसी काल्पनिक स्वर्ग और मृत्यु के बाद जीवन की चर्चा नहीं करते थे। मृत्यु के उपरान्त जीवन की सम्भावना, आत्मा की अनश्वरता, ईश्वर के अस्तित्व वगैरह से संबधित सोलह प्रश्नों के उत्तर में बुद्ध मौन रहे थे। इन प्रश्नों के सम्बन्ध में उन्होंने यही कहा था कि उनका सम्बन्ध केवल दुःख, उसके कारण का पता लगाने और उसकी समाप्ति का उपाय ढूढने से है। उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टियां साझा करने के लिए तर्क का सहारा लिया, न कि आस्था का। बुद्ध ने अपने समय की सामाजिक रूढ़ियों और सामंतवादी सवर्ण-समर्थक सोच के खिलाफ बहुत गहरी बगावत की थी। पर इस बगावत के पीछे कोई अराजकतावादी स्वार्थपरायणता नहीं थी, बल्कि एक कृत्रिम जीवन के आवरण के पीछे छिपे वास्तविक जीवन के मूलभूत सिद्धांतों को ढूंढ निकलने का आग्रह था। अपने व्यक्तिगत दुःख से पलायन करने के उद्देश्य से उन्होंने गृहत्याग नहीं किया था। दुःख, दुश्चिंता, अनित्य की अराजकता, जरा और मृत्यु की सर्वव्यापकता से त्रस्त मानवीय अवस्था के समाधान के लिए बुद्ध ने यह असाधारण कदम उठाया था। अपने समय और सामाजिक स्थितियों से परे हट कर बुद्ध ने समूची मानवता को संबोधित किया; उनकी प्रत्येक देशना धर्म, जाति एवं राष्ट्रीयता से हटकर हर पीड़ित, कराहते, भ्रम के शिकंजे में फंसे मानव के लिए है। जब तक दुःख है, हिंसा है, करुणा का अभाव है, बुद्ध की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ती जायेगी।

हाँ, एक प्रश्न इन सब के बीच जरूर उठता है। क्या सम्बोधि एक निपट व्यक्तिगत मामला है? क्या किसी एक व्यक्ति के निर्वाण तक पहुँचने से, उसके तथागत होने से बाकी मानव जाति पर कोई असर पड़ता है? और यदि नहीं, तो एक बुद्ध की सम्बोधि का क्या कोई योगदान है सामाजिक और व्यक्तिगत पीड़ा को कम करने में? इसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘ना’ में देना आसान नहीं। और चूँकि रहस्यवाद का बुद्ध की शिक्षाओं में स्थान नहीं, इसका कोई रहस्यवादी, शास्त्र-सम्मत उत्तर देना एक महान मूर्ति-भंजक चिन्तक की शिक्षाओं का अपमान ही होगा। 

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