ब्रह्मचर्य एक तप है।
अपने अन्दर की शक्ति को बढ़ाना तथा उसे ऐसे कामों में लगाना जिनमें व्यक्ति को या मनुष्य जाति को लाभ पहुँचे—इसके लिए सबसे पहली और सबसे आवश्यक शर्त है, ब्रह्मचर्य पालन। समस्त मानवीय शक्ति का एक स्थूल आधार है। यूरोपीय जड़वाद में दोष यह है कि वह आधार को ही सब कुछ मानता है और इसे ही उद्गम समझने की भूल करता है। जीवन और शक्ति का उद्गम प्राकृतिक नहीं आध्यात्मिक है, किंतु जिस आधार या नींव पर स्थित होकर जीवन और शक्ति कर्म करती है वह भौतिक है। हिन्दुओं ने उद्गम और आधार के कारण और प्रतिष्ठा के, सत्ता के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के इस भेद को स्पष्ट रूप में अनुभव किया था। पृथ्वी या स्थल जड़ तत्व है प्रतिष्ठा, ब्रह्म या आत्मा है। कारण, भौतिक को आध्यात्मिक तक ऊँचा ले जाना ही ब्रह्मचर्य है, कारण, जो शक्ति एक से प्रारंभ करके दूसरे को पैदा करती है वह इन दोनों के मिलन से ही बढ़ती और परिपूर्ण बनती है।
यह दार्शनिक सिद्धाँत है। इसे कार्यान्वित करने के लिये शक्ति के मानवीय आधार की शारीरिक तथा मानसिक गठन का ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक है। मूल भौतिक इकाई है रेतस, जिसमें तेज अर्थात् मनुष्य का भीतरी ताप, प्रकाश विद्युत अंतर्लीन और गुप्त है। समस्त शक्ति रेतस् में अन्तर्निहित है। इस शक्ति को हम चाहें तो स्थूल रूप में व्यय कर सकते हैं या हम इसे सुरक्षित रख सकते हैं। समस्त विषय-विकार, वासना, कामना शक्ति को स्थूल रूप में या उदात्तीकृत सूक्ष्मतर रूप में शरीर से बाहर उड़ेलकर नष्ट कर देती है। दुराचार इसे स्थूल रूप में बाहर फेंकता है, दुर्विचार सूक्ष्म रूप में दोनों ही अवस्थाओं में अपव्यय होता है, और मन-वाणी तथा शरीर सभी अपवित्र होते हैं। दूसरी ओर, सब प्रकार का आत्म-संयम रेतस् की शक्ति को सुरक्षित रखता है और संरक्षण से सदा ही शक्ति की वृद्धि होती है। परन्तु स्थूल शरीर की आवश्यकताएं परिमित हैं, अतएव इस प्रचुर शक्ति में से कुछ फालतू बच रहती है जिसे स्थूल से भिन्न किसी और काम में लगाना आवश्यक है। प्राचीन सिद्धाँत के अनुसार रेतस् हैं जल जो प्रकाश, ताप और विद्युत से, एक शब्द में, तेज से पूर्ण है। रेतस् की अतिरिक्त मात्रा पहले ताप या तपस् में बदलती है जो संपूर्ण देह में शक्ति संचारित करता है,
और इसी कारण आत्म-संयम और कठोर जीवन-चर्या के सभी रूपों को तप या तपस्या कहा जाता है क्योंकि उनसे ताप या उत्तेजना पैदा होती है जो प्रबल कर्मण्यता और सफलता का मूल स्रोत है, दूसरे, यह परिणत होती है वास्तविक तेज में, प्रकाश और बल में जो ज्ञानमात्र उद्गम है, तीसरे, यह विद्युत के रूप में परिवर्तित होती है जो बौद्धिक या शारीरिक सभी शक्तिशाली कर्मों के मूल में विद्यमान है। और फिर विद्युत में निलीन है ओज या प्राणशक्ति, अर्थात् आकाश से उद्भूत होने वाली आद्या शक्ति। रेतस् तेज और विद्युत में तथा विद्युत् से ओज के रूप में परिष्कृत होता हुआ शरीर को भौतिक शक्ति, स्फूर्ति और बुद्धि से भर देता है और अपने ओज-आत्मक अन्तिम रूप में मस्तिष्क में आरोहण कर उसे आद्या शक्ति से अनुप्राणित करता है। यह आद्या शक्ति जड़ तत्त्व का अत्यन्त परिशुद्ध रूप है और आत्मा के निकटतम है। यह ओज है; यह आध्यात्मिक शक्ति या वीर्य उत्पन्न करता है। इसी से मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान, आध्यात्मिक प्रेम एवं श्रद्धा और आध्यात्मिक बल प्राप्त करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जितना ही हम ब्रह्मचर्य से तप, तेज, विद्युत् और ओज का भण्डार बढ़ा सकेंगे उतना ही हम अपने को, देह, अन्तःकरण, मन और आत्मा के कर्मों के लिए, पूर्ण सामर्थ्य से परिप्लुत कर सकेंगे।