प्राय, भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानियाँ व्रजगोपिकाओं के नाम से नाक-भौं सिकोडने लगतीं । इनके अहंकार को भङ्ग करने के लिये प्रभु ने एक बार एक लीला रची । नित्य निरामय भगवान् जी बीमारी का नाटक कर पड़ गये नारदजी आये वे भगवान् के मनोभाव को समझ गये। उन्होंने बताया कि इस रोग की तो है, पर उसका अनुपान प्रेमी भक्त की चरणरज ही हो सकती है। रुक्मिणी, सत्यभामा, समी से पूछा गया । पर पदरज कौन दे प्रभु को । भगवान् ने कहा-एक वार व्रज जाकर देखिये तो । “नारद जी श्यामसुन्दर के पास से आये हैं। यह सुनते ही श्री राधा जी के साथ सारी ब्रजाङ्गनाएँ बासी मुँह ही । दौड पड़ी । कुशल पूछने पर नारद जी ने श्री कृष्ण की वीमारी की बात सुनायी। गोपियों के तो प्राण ही सूख गये। उन्होंने तुरत पूछा-‘क्या वहाँ कोई वैद्य नहीं है ?
सभी के पास है ! क्या हम लोगों के पास भी है ? है क्यों नहीं, पर तुम भी दे न सकोगी । प्रियतम श्रीकृष्ण को न दे सके ऐसी हमारे पास कोई वस्तु ही नहीं रह सकती।
अच्छा तो क्या श्रीकृष्ण को अपने चरण की धूलि दे सकोगी ? यही है वह अनुपान जिसके साथ दवा देने से उनकी बीमारी दूर होगी ! यह कौन-सी बड़ी कठिन बात है, मुनि महाराज? लो हम पैर बढ़ाये देती हैं जितनी चाहिये चरण-धूलिं अमी ले जाओ।
अरी यह क्या करती हो ? नारद जी घबराये । क्या तुम यह नहीं जानतीं कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं ? भला, उन्हें खाने को अपने पैरों की धूल ? क्या तुम्हें नरक का भय नहीं है | नारदजी ! हमारे सुख-सम्पत्ति, भोग, मोक्ष-सब कुछ हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण ही हैं । अनन्त नर में जाकर भी हम श्रीकृष्ण को स्वस्थ कर सकें–उनको तनिक-सा भी सुख पहुँचा सकें तो हम ऐसे मनचाहे नरक का नित्य भजन करें । हमारे अघासुर ( अघ+असुर ), नरकासुर, (नरक+ असुर ) तो उन्होंने कभी के मार रक्खे हैं ।
नारदजी विह्वल हो गये । उन्होंने श्री राधारानी तथा उनकी कायज्यूह रूपा गोपियों की परम पावन चरणरज की। पोटली बॉधी अपने को भी उससे अभिषिक्त किया । लेकर नाचते हुए द्वारका पधारे । भगवान् ने दवा ली । पटरानियाँ यह सब सुनकर लज्जा से गड़-सी गयीं । उनका प्रेम का अहंकार समाप्त हो गया । वे समझ गयीं कि हम उन गोपियों के सामने सर्वथा नगण्य हैं। उन्होंने उन्हें मन-ही-मन निर्मल तथा श्रद्धापूर्त मन से नमस्कार किया ।