संसार में जब पाप का प्राबल्य हो जाता है अनेक बार हो जाता है किंतु अनेक बार ऐसा होता है कि पाप पुण्य के ही बल से अजेय हो जाता है। असुर तपस्या करते हैं, उनकी तयः शक्ति उन्हें अजेय बना देती हैं। पाप विनाशी हैं दुःखरूप है । शाश्वत, अजेय, सुख स्वरूप तो है। धर्म । किंतु धर्म या पुण्य करके जब कोई अजेय अदम्य सुखी होकर पापरत हो जाय–देवता भी विवश हो जाते हैं। किसी की तपःशक्ति, किसी का फल-दानोन्मुख पुण्य वे नष्ट नहीं कर सकते और अपने तप एवं पुण्य के द्वारा प्राप्त शक्ति तथा ऐश्वर्य से मदान्ध प्राणी उच्छृङ्खल होकर विश्व में त्रास, पीड़ा एवं उत्पीडन की सृष्टि करता है ।।
जगत् की नियन्त का शक्तियो–देवता भी जब असमर्थ हो जाते हैं, विश्व के परम संचालक की शरण ही एकमात्र उपाय रहता है। जब तक देवशक्ति नियन्त्रण करने में समर्थ हैं, उत्पीडन अपनी सीमा का अतिक्रमण करते ही स्वयं ध्वस्त हो जाता है। अहंकारी मनुष्य समझ नहीं पाती कि उसका विनाश उसके पीछे ही मुख फाड़े खड़ा है। पर ऐसा भी अवसर आता है जब देवशक्ति भी असमर्थ हो जाती है । उसकी शक्ति सीमा से असुर बाहर हो जाते हैं । महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, ज्वालामुखी कोई सिर नहीं उठा सकती। सव नियन्त्रित कर लिये जाते हैं । आसुर शक्ति के यथेच्छाचार से जगत् अर्त हो उठता है ।।
एक बार की नहीं, युग-युग की कथा है यह। दैवता, मुनिगण मिलकर उस परमतत्त्व की शरण लेते हैं, उस सर्व समर्थ का स्तवन करते हैं और उन्हें आश्वासन प्राप्त होता है । वै रमाकान्त, गरुडवाहन भगवान् नारायण आविर्भूत होते हैं। अभयदान करने ।
सृष्टि की—विश्व की ही नहीं, जीवन की भी यही कथा हैं । जब पाप प्रबल होता हैं, आसुर वृत्तियों अदम्य हो जाती हैं, यदि हम पराजय न स्वीकार कर लें, यदि हम उस आतॊ के आश्रय को पुकारें-पुकार भर लें, वे रमाकान्त, गरुडवाहन भगवान् नारायण आश्वासन देते ही है । उनकी परमपावन स्मृति ही आलोक प्रदान करती है। और आसुर-वृत्तियोंको ध्वस्त कर देती है ।