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अर्जुनकी शरणागतवत्सलता और भ्रीकृष्णके साथ युद्ध

           ( नारदजीकी युद्ध दर्शनोत्सुकता ) 
एक बार महर्षि गालव जब प्रात: सूर्या्ध्य प्रदान २ कर रहे थे, उनकी अज्जलिमें आकाशमार्गसे जाते हुए ‘ चित्रसेन गन्धर्वकी थूकी हुई पीक गिर पड़ी। मुनिको * इससे बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देना ही चाहते थे * कि उन्हें अपने तपोनाशका ध्यान आ गया और रुक गये। उन्होंने जाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णससे फरियाद की। ‘ श्यामसुन्दर तो ब्रह्मण्यदेव ठहरे ही, झट प्रतिज्ञा कर ‘ ली–चौबीस घंटेके भीतर चित्रसेनको वध कर देनेकी। ‘ ऋषिको पूर्ण संतुष्ट करनेके लिये उन्होंने माता देवकी ‘ तथा महर्षिके चरणोंकी शपथ भी ले ली। ह 
गालवजी अभी लौटे ही थे कि देवर्षि नारद वीणा झनकारते पहुँच गये। भगवान्‌ने उनका स्वागत-आतिथ्य ‘ किया। शान्त होनेपर नारदजीने कहा–‘प्रभो! आप तो ‘ परमानन्दकन्द कहे जाते हैं, आपके दर्शनसे लोग ‘ विषादमुक्त हो जाते हैं; पर पता नहीं क्यों आज आपके ‘ मुख-कमलपर विषादकी रेखा दीख रही है।! इसपर ‘ श्यामसुन्दरने गालवजीके सारे प्रसड़को सुनाकर अपनी ‘ प्रतिज्ञा सुनायी। अब नारदजीको कैसा चैन ? आनन्द आ ‘ गया। झटपट चले और पहुँचे चित्रसेनके पास। चित्रसेन भी उनके चरणोंमें गिरकर अपनी कुण्डली आदि लाकर ग्रहदशा पूछने लगा। नारदजीने कहा–‘ अरे तुम अब यह सब क्‍या पूछ रहे हो? तुम्हारा अन्तकाल निकट आ पहुँचा है। अपना कल्याण चाहते हो तो बस, कुछ दान-पुण्य कर लो। चौबीस घंटोंमें श्रीकृष्णने तुम्हें मार डालनेकी प्रतिज्ञा कर ली है।’ 
अब तो बेचारा गन्धर्व घबराया। वह लगा दौड़ने इधर-उधर। ब्रह्मधाम, शिवपुरी, इन्द्र-यम-वरुण सभीके लोकोंमें दौड़ता फिरा; पर किसीने उसे अपने यहाँ ठहरनेतक न दिया। श्रीकृष्णसे शत्रुता कौन उधार ले। अब बेचारा गन्धर्वराज अपनी रोती-पीटती स्त्रियोंके साथ नारदजीकी ही शरणमें आया। नारदजी दयालु तो ठहरे ही; “बोले, अच्छा चलो यमुना-तटपर।’ वहाँ जाकर एक स्थानको दिखलाकर कहा “आज आधी रातको यहाँ एक स्त्री आयेगी। उस समय तुम ऊँचे स्वरसे विलाप करते रहना। वह स्त्री तुम्हें बचा लेगी। पर ध्यान रखना-जबतक वह तुम्हारे कष्ट दूर कर देनेकी प्रतिज्ञा न कर ले, तबतक तुम अपने कटष्टका कारण भूलकर भी मत बताना।! नारदजी भी विचित्र ठहरे। एक ओर तो चित्रसेनको यह समझाया, दूसरी ओर पहुँच गये अर्जुनके महलनमें सुभद्राके पास। उससे बोले–‘सुभद्रे! आजका पर्व बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। आज आधी रातको यमुनास्नान करने तथा किसी दीनकी रक्षा करनेसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होगी।’ आधी रातका अवसर हुआ। सुभद्रा दो-एक सखियोंके साथ यमुना-स््नानको पहुँचीं। वहाँ उन्हें रोनेका करुण-स्वर सुनायी पड़ा। नारदजीने दीनोद्धारका माहात्म्य बतला ही रखा था। सुभद्राने सोचा, ‘चलो, अक्षय पुण्य लूट ही लूँ। वे तुरंत उधर गयीं तो चित्रसेन रोता मिला। उन्होंने लाख पूछा, पर वह बिना प्रतिज्ञाके बतलाये ही नहीं । अन्तमें इनके प्रतिज्ञाबद्ध होनेपर उसने स्थिति स्पष्ट की। अब तो यह सुनकर सुभद्रा बड़े धर्मसंकट और असमंजसमें पड़ गयीं। एक ओर श्रीकृष्णकी प्रतिज्ञावह भी ब्राह्मणके हितके लिये, दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा। अन्तमें शरणागतत्राणका निश्चय करके वे उसे अपने साथ ले आयीं। घर आकर उन्होंने सारी परिस्थिति अर्जुनके सामने रखी। (अर्जुनका चित्रसेन मित्र भी था।) अर्जुनने सुभद्राको सान्त्वना दी और कहा कि तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी।’ नारदजीने इधर जब यह सब ठीक कर लिया, तब द्वारका पहुँचे और श्रीकृष्णचन्द्से कह दिया कि “महाराज! अर्जुनने चित्रसेनको आश्रय दे रखा है, इसलिये आप सोच-विचारकर ही युद्धके लिये चलें।’ भगवानने कहा–‘ नारदजी! एक बार आप मेरी ओरसे अर्जुनको समझाकर लौटानेकी चेष्टा तो कर देखिये।’ अब देवर्षि पुन: दौड़े हुए द्वारकासे इन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अर्जुनने सब सुनकर साफ कह दिया–‘ यद्यपि मैं सब प्रकारसे श्रीकृष्णजी ही शरण हूँ और मेरे पास केवल उन्हीका बल है, तथापि अब तो उनके टिये हुए उपदेश-क्षात्र-धर्मसे कभी विमुख न होतेकी आतपर ही दृढ़ हूँ। मैं उनके बलपर ही अपनी प्रतिज्ञाकी रश्ा करूँगा। प्रतिज्ञा छोडनेमें तो वे ही समर्थ हैं।’ दौड़कर देवर्षि अब ट्वारका आये और ज्यॉ-का-त्यों अर्जुनका वृत्तात्त कह सुनाया। अब क्या हो? युद्धकी तैयारी हुई। सभी यादव और पाण्डव रणक्षेत्रमें पूरी सेनाके साथ उपस्थित हुए। तुमुल युद्ध छिड़ गया। बड़ी घमासान लड़ाई हुई। पर कोई जीत नहीं सका। अन्तमें श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्र छोड़ा। अर्जुनने पाशुपतास्त्र छोड़ दिया। प्रलयके लक्षण देखकर अर्जुनने भगवान्‌ शंकरको स्मरण किया। उन्होंने दोनों शस्त्रोंको मनाया। फिर वे भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास पहुँचे और कहने लगे—‘ प्रभो! ‘राम सदा सेवक रुचि राखी। लेद पुरान लोक. शल साखी॥’–भक्तोंकी बातके आगे अपनी प्रतिज्ञाको भूल जाना तो आपका सहज स्वभाव है। इसकी तो असंख्य आवृत्तियाँ हुई होंगी। अब तो इस लीलाको यहीं समाप्त कीजिये।! बाण समाप्त हो गये। प्रभु युद्धसे विरत हो गये। अर्जुनको गले लगाकर उन्होंने युद्धश्रमसे मुक्त किया, चित्रसेनको अभय किया। सब लोग धन्य-धन्य कर उठे। पर गालवको यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा, ‘यह तो अच्छा मजाक रहा ।’ स्वच्छ हृदयके ऋषि बोल उठे–‘लो, मैं अपनी शक्ति प्रकट करता हूँ। मैं कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रासमेत चित्रसेनकों जला डालता हूँ।” पर बेचारे साधुने ज्यों ही जल हाथमें लिया, सुभद्रा बोल उठीं–‘मैं यदि कृष्णकी भक्त होऊँ और अर्जुनके प्रति मेरा पातिब्रत्य पूर्ण हो तो यह जल ऋषिके हाथसे पृथ्वीपर न गिरे।” ऐसा ही हुआ। गालव बड़े लज्जित हुए। उन्होंने प्रभुकों नमस्कार किया और वे अपने स्थानको लौट गये। तदनन्तर सभी अपने-अपने स्थानको पधारे । 
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