परम सत्ता अनुभव का विषय है.
बिन अनुभव के ना मिले, परमेश्वर करतार।
अनुभव कीजिए स्वयं ही, होगा बेड़ा पार॥
एक बार की बात है कि एक वैद्य जी अपने पुत्र को बता रहे थे कि नस के किसी भी जोड़ पर चोट लग जाने से बड़ी पीड़ा होती है। पुत्र ने पूछा – पिता श्री! कितनी बड़ी पीड़ा होती है – हाथी जितनी बड़ी या क्षितिज जितनी । वैद्य जी ने पुत्र की बात सुनकर बताया कि यह पीड़ा असहनीय होती है। इस पर पुत्र ने कहा – जब उस पीड़ा को आप असहनीय बता रहे हैं तो उसे मनुष्य कैसे सहन कर लेता है। वैद्य ने पुत्र को समझाया कि उस पीड़ा को तो वही समझ सकता है, जिसे पीड़ा सहन करनी पड़ती है।
पुत्र बोला – फिर भी मुझे भी तो समझाइये। पुत्र की बात सुनकर वैद्य जी ने एक मोटा सोटा लेकर उसे पुत्र की टाँग पर जोर से मारा और कहा अब अच्छी तरह से समझ ले। बेटा मार खाकर चारो खाने चित्त हो गया और आहें भरने लगा। पिताश्री ! बताई नहीं जा सकती वैद्य जी ने पूछा – बेटा पीड़ा सहनीय है या असहनीय है। बेटे ने उत्तर दिया – पीड़ा तो असहनीय है। वैद्य जी ने फिर पूछा – क्या उसका कुछ रंग रूप हमको बता सकते हो ? बेटा बोला- पिता श्री! केवल कहने सुनने से आप नहीं समझेंगे। मैं इस सोटे द्वारा अभी आपको समझाता हूँ। इतना कहकर बेटे ने भी वैद्यजी की , जांघों पर पूरी शक्ति से सोटे को दे मारा और बोला – यह उस पीड़ा का रंग रूप है।
कहने का अर्थ यह है कि निरीश्वरवादी धर्म-कर्म से बचने हेतु सड़ियल दलीलों को देकर इधर-उधर हुल्लड़ किया करते हैं कि ईश्वर को किसी ने आज तक न देखा है और न उसकी कोई सत्ता ही है, उनका यह खण्डन है। संसार के प्रत्येक वस्तु साक्षात एवं प्रत्यक्ष दर्शन की चीज नहीं है, बल्कि चित्त और मन की एकाग्रता से सम्बन्धित है। सारांश यह है कि ईश्वर की सत्ता, चित्त, श्रवण तथा समझने की वस्तु नहीं है अपितु ईश्वर को मन से अनुभव करना चाहिए।