सर्व रोगों की एक दवा..
तीर नहीं तो तुक्का ही सही
एक पंडितजी एक वर्ष काशी में रहकर अपने घर लौटे थे। उन्होंने वहां दवाई का कार्य किया था। जब वे अपने गाँव में आये तो ग्राम् वासियों ने पूछा – आप इतने दिनों से कहा थे? पंडितजी ने बताया कि हम काशी में थे।
सभी यह समझने लगे यह बड़े पंडित बनकर आये हैं। एक दिन एक धोबी का गधा खो गया । वह पंडित जी के पास आया और पूछने लगा – महाराज ! हमें कोई ऐसा उपाय बताइये – जिससे मेरा गधा मिल जाये।
पंडित जी ठहरे निरे मूर्ख। उन्होंने उसे एक दस्तावर चूर्ण की पुड़िया दे दी। धोबी ने वह पुड़िया खाली तो उसे दस्त आने शुरू हो गये। जब वह जंगल में पखाने के लिए गया तो उसका गधा चरता हुआ उसे मिल गया। अब तो धोबी ने आकर पंडितजी की योग्यता तथा उनकी दी गई पुड़िया की प्रशंसा के पुल बाँध दिये।
यह समाचार वहाँ के राजा के कानों में भी पहुँच गया। राजा के ऊपर उसके शत्रु ने चढ़ाई कर दी थी। राजा ने पंडित जी से उनकी पुड़िया के विषय में पूछा कि क्या आपके पास कोई ऐसी पुड़िया है जो युद्ध में मुझे विजय दिला सके।
पहले तो पंडितजी डर गये परन्तु राजा ने कहा कि तुम मेरे राज्य में रहते हो और एक पुड़िया भी नहीं दे सकते।
पंडित जी ने सोचा – राजा के सामने तो खैर नहीं है। उसने सोचा कि “तीर नहीं तो तुक्का ही सही।” यह सोचकर पंडित जी ने खूब सारा जमाल घोटा मँगाकर सारी फौज में बाँट दिया। सारी फौज को दस्त लग गये। फौज के सिपाही लोटा ले-लेकर बार-बार जंगल में पाखाने के लिए जा रहे थे।सुबह से शाम हाँ गई परन्तु पाखाने जाने वालों का तांता न टूटा।
पास में ही शत्रु की सेना के डेरे लगे थे। शत्रु ने देखा इस राजा के पास इतनी सेना है कि सुबह से शाम तक तो इनके पाखाने जाने का नम्बर ही नहीं आ पाता तो में क्या विजय प्राप्त कर सकता हूँ। बेचारा शत्रु डरकर भाग गया और भोंगा बसंत पंडित जी की पट में चित्त पड़ गई।