जीता हुआ मन ही हमारा सच्चा मित्र मन किस प्रकार अपना ही मित्र एवं शत्रु हो सकता है, यह बात सहज ही एक शंका के रूप में हमारे सामने आती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण छठे श्लोक में इस बात को विस्तार से कहते हैं—
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ ६/६
इसका शब्दार्थ देखें—
जिस (येन) विवेकयुक्त बुद्धि द्वारा (आत्मना) मन ही (आत्मा एव) जीत लिया है—वशीभूत कर लिया गया है (जितः), मन (आत्मा)उसके (तस्य) जीवात्मा का (आत्मनः) मित्र है (बन्धुः, किंतु (तु) अवशीभूत व्यक्ति का (अनात्मनः) मन (आत्मा) शत्रु की तरह (शत्रुवत्) शत्रुता का आचरण करने में (शत्रुत्वे) प्रवृत्त हो जाता है (वर्तते)।
अर्थात् जिसने अपने आत्मा द्वारा अपने मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, उसके लिए यह आत्मा मित्र है; किंतु जिसने अपने आत्मा को जीता नहीं है, उसका आत्मा ही उसका विरोधी हो जाता है और उसके प्रति बाह्य शत्रु की तरह व्यवहार करता है। जीव को वह हर प्रकार की हानि पहुँचाता है। (श्लोक ६, अध्याय ६)
कितनी सुंदर उत्तरार्द्धपरक चर्चा इस श्लोक में आई है। जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसके लिए उसका बौद्धिक व्यक्तित्व मित्र है (बन्धुरात्मात्मनस्तस्य) और यदि हम किसी कारणवश अपने मन, इन्द्रियों, बुद्धि वाले पक्ष पर नियंत्रण नहीं कर पाए तो, यह अविजित बुद्धि ही हमारे विरुद्ध एक भयावह अजेय शत्रु की तरह काम करती है। यहाँ वह अवधारणा स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य का अपना आपा कब मित्र हो जाता है, कब शत्रु। जिसने अपने को जीत लिया, अपनी इंद्रियों पर अपना स्वयं का नियंत्रण स्थापित कर लिया, उसका मन उसका मित्र है। संसार की आसक्तियों से स्वयं को हटाते चलना एवं भगवान् में मन लगाते चलना, सच्चिदानंदघन परमात्मा में स्वयं को सम्यक् रूप में स्थित करना ही एकमात्र बंधनमुक्ति का उपाय है।
मित्र- शत्रु हमारे अपने ही अंदर
हम स्वभाव से बहिर्मुखी हैं। अपने मित्र एवं शत्रु हम बाहर ही ढूँढ़ते रहते हैं। वस्तुतः बाहर—बहिरंग जगत् में न तो हमारा कोई मित्र है और न कोई शत्रु ही है। ये सभी हमारे भीतर अंतरंग में विद्यमान हैं। हमारा अपना अहं जो अनुशासनों के पालन की बात आने पर बाधक बनने लगता है तथा हमारे अपने बौद्धिक व्यक्तित्व- परिष्कृत आत्मतत्त्व के मार्गदर्शन में चलने से इनकार कर देता है तो यह हमारी अभीप्साओं का, आध्यात्मिक आकांक्षाओं का आंतरिक शत्रु बन जाता है। इसके विपरीत सोचें—हमारा अहंकेंद्रित व्यक्तित्व हमारे मन- मस्तिष्क के, हमारे हित के लिए निर्धारित निर्देशों और सहज प्रभुकृपावश मिले मार्गदर्शन का अनुकरण करने लगता है तो यह हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक, हमारी भरपूर सहायता करने वाला हमारा मित्र बन जाता है। इसीलिए आत्मनिरीक्षण- ध्यान द्वारा अपने चित्त- मन का पर्यवेक्षण—परिशोधन अत्यंत अनिवार्य है। योगेश्वर इन दो श्लोकों (पाँचवें एवं छठे)द्वारा ध्यान की पृष्ठभूमि बना रहे हैं।
ध्यान की ही महिमा है कि विश्वविद्यालय में पढ़ रहा एक साधारण- सा, किंतु तार्किक नवयुवक जो बंगभूमि में जन्मा था, नरेंद्र जिसका नाम था, स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रसिद्धि पा सका। इसी ध्यान ने कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ को, जो विषय- विलास भरे जीवन में जी रहे थे, आत्मबोध पाने को विवश किया। वे गौतम बुद्ध बनकर शांति और दया की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अपने आपे का बोध, अपने अंतर्जगत् में प्रवेश कर किया गया ध्यान मनुष्य के अव्यवस्थित व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित बना देता है, उसके जीवन को प्रज्वलित कर उसे बल- उत्साह और विधेयात्मक उल्लास से भर देता है—उसे अपने भाग्य का निर्माता बना देता है। ‘‘विश्वास नित्य प्रबल बनाओ कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो, अपने भाग्य के विधाता हो।’’ यह वाक्य सदियों से ढेर सारे मनुष्यों को महामानव बनाने की प्रेरणा देता रहा है। इस वाक्य को परमपूज्य गुरुदेव ने सर्वाधिक महत्त्व दिया। स्वयं अपने जीवन में उनने ध्यान को स्थान देकर ‘मैं क्या हूँ’ (ह्वाट एम आई) पुस्तक लिखी, एक लंबी पुरश्चरण साधना (नित्य आठ हजार बार गायत्री जप, लगातार चौबीस वर्ष तक) संपन्न की एवं एक विराट् संगठन के निर्माण के निमित्त बने, जिसने इक्कीसवीं सदी- उज्ज्वल भविष्य का नारा दिया। सतत आशावादी चिंतन, अपने आपे को अधिकाधिक प्रबल- शक्तिपुंज बनाना, यह आचार्यश्री के जीवन में ही नहीं, उनकी प्रेरणाओं, लेखन व ओजस्वी वाणी में स्थान- स्थान पर दिखाई देता है।
आत्म निर्माण से युग निर्माण
युग निर्माण योजना का मूलमंत्र है—आत्मनिर्माण। हो सकता है कि दूसरे हमारा कहना नहीं मानें, पर हमारा अपना आपा तो हम जीत सकते हैं। ‘अपना सुधार ही संसार की सर्वश्रेष्ठ सेवा है’ वाक्य जन- जन को देने वाले परमपूज्य गुरुदेव ने बार- बार कहा कि हम यदि बदलेंगे, मजबूत बनेंगे, आत्मिक निर्माण की ओर चलेंगे, तो युग स्वतः बदलेगा। आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न- विकसित देवमानवों का समुदाय खड़ा होने लगेगा। व्यक्ति- निर्माण से ही शुरुआत होती है, फिर परिवार- समाज इस क्रम से सारा विश्व नए विधान के अनुरूप खड़ा होने लगता है। परमपूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक ‘उद्धरेत्आत्मनाऽत्मानं’ में लिखते हैं, ‘‘अध्यात्म विद्या का प्रथम सूत्र यह है कि प्रत्येक भली- बुरी परिस्थिति का उत्तरदायी हम अपने आप को मानें। बाह्य समस्याओं का बीज अपने में ढूँढ़ें और जिस प्रकार का सुधार बाहरी घटनाओं- व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में चाहते हैं, उसी के अनुरूप अपने गुण, कर्म, स्वभाव में हेर- फेर प्रारंभ कर दें।’’ (पृष्ठ ३)
परमपूज्य गुरुदेव आगे लिखते हैं, ‘‘कहावत है कि अपनी अक्ल और दूसरों की संपत्ति चतुर को चौगुनी और मूर्ख को सौगुनी दिखाई पड़ती है। संसार में व्याप्त इस भ्रम को महामाया का मोहक जाल ही कहना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष एवं पूर्ण बुद्धिमान मानता है। न तो उसे अपनी त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं और न अपनी समझ में कोई दोष दिखाई देता है। इस एक ही दुर्बलता ने मानव जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुँचाई है, जितनी संसार की समस्त अड़चनों ने मिलकर भी नहीं पहुँचाई होगी।’’ (पृष्ठ ७)
पूज्यवर के इस चिंतन के साथ इस छठे श्लोक का मर्म यदि समझ लिया जाए, तो जीवन एक कलाकार की तरह जिया जा सकता है। जैसा हम सोचते हैं, विधेयात्मक या निषेधात्मक, हमारा आभामंडल वैसा ही बनता चला जाता है। जिसका मन जीता हुआ है, इंद्रियों पर, विषय- वासनाओं पर जिसका नियंत्रण है, वह निश्चित मानिए कि अपने आकर्षक आभामंडल से अगणित लोगों को प्रभावित कर उन्हें भी उसी दिशा में गतिशील कर देगा। जिसका मन इंद्रियों का गुलाम है, वह क्या तो किसी को प्रभावित करेगा, खुद ही उस प्रवाह में बहता रहेगा, अपने जीवनदेवता की दुर्गति करता दिखाई देगा। इस छठे अध्याय में ध्यान जैसे विषय पर आने से पूर्व आत्मसंयमयोग नामक इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण बार- बार व्यक्ति को अंतर्मुखी बन अपनी अंतर्जगत् की यात्रा करने हेतु सम्यक् मार्गदर्शन कर रहे हैं। उद्देश्य उनका एक ही है कि उसकी चित्तवृत्तियाँ गड़बड़ाने न पाएँ, वह वैचारिक प्रदूषण से भरे इस समाज में कम- से अपने चिंतन को ऊर्जावान बनाए रखे। दिव्यकर्मी के लिए यह अत्यंत अनिवार्य है।