कबीर दास
धीरे धीरे मोड़ तुं इस मन को।
धीरे धीरे मोड़ तुं इस मन को।
इस मन को रे तुं इस मन को।।
मन मोड़ा किसी का डर नहीं।
तो दूर पृभु का घर नहीं।।
मन लोभी मन कपटी मन है चोर,
रहता है पलपल में ये और।
नादान तुं, बेइमान तुं,
हम लगते इसके सिर नहीं।।
जप तप तीर्थ सब है बेकार,
जब तक मन मे रहते घने विकार।
कुछ जान ले, पहचान ले,
कुछ भी जा मुश्किल नहीं।।
जीत लिया तो फिर क्यूं कर रहा जोर,
जानबूझ के क्यूं बनता रे मगरूर।।
हम जानते, पहचानते,
कुछ भी है दुष्कर नहीं।।