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सुख-दुःख का साथी Partner of joy and sorrow.

सुख-दुःख का साथी

व्याध ने जहर से बुझाया हुआ बाण हरिनों पर चलाया। निशाना चूक कर बाण एक बड़े वृक्ष में धंस गया। जहर पुरे वृक्ष में फैल गया। पत्ते झड़ गये और वृक्ष सूखने लगा। उस पेड़ के खोखले में बहुत दिनों से एक तोता रहता था। उसका पेड़ में बड़ा प्रेम था। अतः पेड़ सूखने पर भी वह उसे छोड़कर नहीं गया था। उसने बाहर निकलना छोड़ दिया और चुगा-पानी न मिलने से वह भी सूखकर काँटा हो गया। वह धर्मात्मा तोता अपने साथी वृक्ष के साथ ही अपने प्राण देने को तैयार हो गया। उसकी इस उदारता, धीरज, सुख-दु:ख में समता और त्याग वृत्ति का वातावरण पर बड़ा असर हुआ। देवराज इन्द्र का उसके प्रति आकर्षण हआ। इन्द्र आये तोते ने इन्द्र को पहचान लिया। तब इन्द्र ने कहा – प्यारे शुक! इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न कोई फल। अब कोई पक्षी भी इस पर नहीं रहता। इतना बड़ा जंगल पड़ा है

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जिसमें हजारों सुन्दर फल-फूलों से लदे हरे-भरे वृक्ष हैं और उनमें पत्तों से ढके हुए रहने के लायक बहुत खोखले भी हैं। यह वृक्ष तो अब मरने वाला ही है। इसके बचने की कोई आशा नहीं है। यह अब फल-फूल नहीं सकता। इन बातों पर विचार करके तुम इस ढूँठे पेड़ को छोड़कर किसी हरे-भरे वृक्ष पर क्यों नहीं चले जाते? धर्मात्मा तोते ने सहानुभूति की लंबी साँस छोड़ते हुए दीन वचन कहे-‘देवराज! मैं इसी पर जन्मा था,इसी पर पला और इसी पर अच्छे -अच्छे गुण भी सीखे। इसने सदा बच्चे के समान मेरी देख-रेख की, मुझे मीठे फल दिये और वैरियों के आक्रमण से बचाया। आज इसकी बुरी अवस्था में मैं इसे छोड़कर अपने सुख के लिये कहाँ चला जाऊँ?
जिसके साथ सुख भोगे,उसी के साथ दुःख भी भोगूंगा। मुझे इसमें बड़ा आनन्द है। आप देवताओं के राजा होकर मुझे यह बुरी सलाह क्यों दे रहे हैं? जब इसमें शक्ति थी, यह सम्पन्न था, तब तो मैंने इसका आश्रय लेकर जीवन धारण किया आज जब यह शक्तिहीन और दीन हो गया,तब मैं इसे छोड़कर चल दूं? यह कैसे हो सकता है। तोते की मधुर मनोहर प्रेम भरी वाणी सुनकर इन्द्र को बड़ा सुख मिला। उन्हें दया आ गयी। वे बोले – शुक! तुम मुझसे कोई वर मांगो। तोते ने कहा – आप वर देते हैं तो यही दीजिये कि यह मेरा प्यारा पेड़ पूर्ववत् हरा-भरा हो जाय। इन्द्र ने अमृत बरसा कर पेड़ को सींच दिया। उसमें फिर से नयी-नयी शाखाएँ, पत्ते और फल लग गये। वह पूर्ववत् श्री सम्पन्न हो गया और वह तोता भी अपने इस आदर्श व्यवहार के कारण आयु पूरी होने पर देवलोक को प्राप्त हुआ। (महाभारत)
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