श्रेष्ठ दान
महाराज युधिष्ठिर कौरवोंको युद्धमें पराजित करके समस्त भूमण्डलके एकच्छत्र सम्राट् हो गये थे। उन्होंने लगातार तीन अश्वमेध-यज्ञ किये। उन्होंने इतना दान किया कि उनकी दानशीलताकी ख्याति देश-देशान्तरमें फैल गयी। पाण्डवोंके भी मनमें यह भाव आ गया कि उनका दान सर्वश्रेष्ठ एवं अतुलनीय है। उसी समय जब कि तीसरा अश्वमेध-यज्ञ पूर्ण हुआ था और अवभृथ-सत्रान करके लोग यज्ञभूमिसे गये भी नहीं थे, वहाँ एक अद्भुत नेवला आया। उस नेवलेके नेत्र नीले थे और उसके शरीरका एक ओरका आधा भाग स्वर्णका था। यज्ञभूमिमें पहुँचकर नेवला वहाँ लोटपोट होने लगा। कुछ देर वहाँ इस प्रकार लोट-पोट होनेके बाद बड़े भयंकर शब्दमें गर्जना करके उसने सब पशु-पक्षियोंकों भयभीत कर दिया और फिर वह मनुष्यभाषामें बोला–‘ पाण्डवो ! तुम्हारा यह यज्ञ विधिपूर्वक हुआ, किंतु इसका पुण्यफल कुरुक्षेत्रके एक उज्छवृत्तिधारी ब्राह्मणके एक सेर सत्तुके दानके समान भी नहीं हुआ।’