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त्यागी महात्मा घनवालों से दूर रहते हे

त्यागी महात्मा घनवालों से दूर रहते हे

ईश्वर चिन्तन नित करें, रहें भक्ति से चूर।
त्यागी साधू रहित हैं, धनवानों से दूर॥ 
एक समय की बात है कि एक शहर के बाहर नदी के किनारे दो महात्मा कुटिया बनाकर रहते थे। वे दोनों महात्मा भिक्षा हेतु कभी किसी सेठ साहूकार या राजा के द्वार पर नहीं जाते थे। वे केवल गरीब परिवारों के यहाँ से ही जो भिक्षा में मिल जाता था, उसी से सन्‍तोष कर लेते थे। आम जनता में उनके गुणों की चर्चा होने लगी कि वे बहुत बड़े त्यागी महात्मा हैं। उनके गुणों की चर्चा शहर के सबसे बड़े जमीदार के कानों में भी पहुँच गई  उनके दर्शनों के लिए वह जमींदार पालकी में बैठकर चल पड़ा। 
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दोनों महात्मा अभी-अभी भिक्षा माँगकर अपनी कुटिया पर आये थे और भोजन करने बैठे ही थे कि उनकी दृष्टि शहर के जमींदार पर पड़ी। उन्होंने मन में विचार किया कि इस जमींदार की श्रद्धा को अपने ऊपर से हटानी चाहिए। जमींदार के समीप आते ही उन दोनों महात्माओं ने आपस में एक रोटी के टुकड़े को हाथ में पकड़ कर झगड़ना प्रारम्भ कर दिया। एक महात्मा कहने लगे इस रोटी के टुकड़े को मैं खाऊँगा, दूसरे महात्मा कहने लगे, तुम नहीं इसे मैं खाऊंगा। जमींदार एक रोटी के टुकड़े के लिए दोनों महात्माओं को झगड़ता देखकर दूर से ही लौट गया। उसके दिमांग में यह बात भर गई कि ये त्यागी महात्मा नहीं हो सकते अपितु कंगले हैं। 
साथियों! पूर्ण त्यागी महात्मा किसी साहूकार, जमींदार  या राजा से अपना संबंध नहीं रखते और न उनका धन व अन्न ग्रहण करते हैं। आज के संसार में लम्पट, कामुक त्यागियों  की बहुत अधिक संख्या है। आजकल के महात्मा प्राय: राजा महाराजा और सेठ, साहूकारों के तलवे चाटते फिरा करते हैं।  ये लोग उनसे खूब धन बटोर कर कलयुग के त्यागियों का आदर्श स्थापित करते फिरते हैं। आजकल के सेठ साहूकार लोग भी नकली त्यागी साधुओं के चक्कर में पड़कर सत्यधर्म के प्राचीन सिद्धान्तों और मानमर्यादा को भारतवर्ष से हमेशा के लिए देर करने को तत्पर रहते हैं। जो सचमुच में त्यागी होगा वह कभी भी किसी सम्पत्तिशाली व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं रखता, बल्कि वह तो इनसे बचने का प्रयत्न करता है। यदि हम बुरे, भले की पहचान करना प्रारम्भ कर देंगे तब नकली त्याग मूर्तियों की स्वयं ही मृत्यु हो जायेगी। 
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