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। गजल । ४८
निश्चय धन तुम्हरो दरबार ।
जहां तनिक न न्याय विचार। टेक
रग महल में बसे मसखड़े,
पास.
मे रे
प धन साधु विरजे,
वेश्या ओढ़े
पतिव्रता
पाखण्डी.
सांच कहे जग
भय जा भवनिधि
खासा मलमल,
अज्ञानी
कहै कबीर फकीर पुकारी,
गल मोतियन की हार ।
को मिले न,
साड़ी सूखा निरख अहार।
का जग में,
आदर सन्त को कह लबार ।
परल,
को
बिबेकी ज्ञान को मूढ़ गवार !
व्यवहार ।
उल्टा
मारन धावै,
झूठन
सब
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लाना।
सरदार।
को
पार ।
इतवार । 
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