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भजन १४१
मेरे सैंया निकल गयो मैं न लड़ी। टेक
ना मैं बोली ना मैं चाली,
ओढ़
दस दरवाजे,
पाछे ।
काछे ।
खबोरी।
दासी ।
पटवारी ।
तिवारी।
चुनरिया
रही।
कौन-सी खिड़की खुली रही।
सात सहेली,
न जाने कछु उनसे कही।
कहै कबीर सुनो भाई सन्तों,
ऐसे व्याहता से मैं कुंवारी भली।
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