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कबीर भजन ११८

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कबीर भजन ११८
अब गढ़ फिर गई राम दुसाई। टेक
कहत मन्दोदरी सन पिया रावण,
को न कुमति भरमाई।
ओछी बुद्धि कर्म तुम कीनों,
तिरिया हरी पराई ।
कंचन कोटि देख मत भूलो,
और समुद्र अस खाई ।
पवन के पुत्र महा बलदाई,
छिन में लंका जराई ।
कहे रावण दश मस्तक,
मेरे कुम्भकर्ण बलदाई ।
सहस्र सुभट मेरे रखवाले,
क्या करे दोऊ भाई ।
जो रावण तुम हरि से मिलते,
देते अयोध्या पठाई |
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
लंका विभीषण पाई। 
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