रमण महृषि – Raman Rishi Biography in Hindi
शशिरंजन वर्मा। महर्षि रमण का जन्म सन् 1879 में तमिलनाडु के मदुरै से 30 मील दूर एक छोटे से गांव तिरूचल्ली में हुआ था। उनके बचपन का नाम वेंकटरमण था। उनके पिता का नाम सुंदरम अय्यर व मां का नाम अलगम्माल था। दोनों एक आदर्श दम्पति और भगवान के बड़े भक्त थे।
बचपन में आलसी थे रमण वेंकटरमण अपने तीन भाइयों में दूसरे नंबर पर थे। उनका जन्म गांव में लगनेवाला प्रसिद्ध मेला जत्रा के दिन हुआ था। वेंकटरमण के प्रारंभिक जीवन की कोई घटना उल्लेखनीय नहीं है। वह अन्य बच्चों के समान ही थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गांव में ही हुई थी। जब वे 12 वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु के बाद उनकी मां अलगम्माल गांव छोड़ने को विवश हो गई और बच्चों को लेकर वे मदुरै चली गईं, जहां उनके देवर सुब्बाराव अक्षयर रहते थे। उन्होंने वेंकटरमण को मदुरै के मिशन उच्च विद्यालय में नामांकन करवा दिया, जहां वह पढ़ाई करने जाने लगे, पंरतु उनका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था।
बचपन में वे बड़े आलसी थे। बालक वेंकटरमण का शरीर तगड़ा तथा चमकता हुआ ओजस्वी चेहरा और पूर्ण रूपेण स्वस्थ थे। उनके सहपाठी रमण के डील-डौल शरीर से डरे रहते थे। वेंकटरमण की गहरी नींद सब लोगों के लिए कौतुहल और आश्चर्य की बात थी। उसकी नींद इतनी गहरी होती थी कि उन्हें जगाने की सारी कोशिशें बेकार जाती थी, चाहे कोई उसे पीटे, एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर ले जाय या फिर कहीं जमीन में लिटा दे, पर उनकी नींद नहीं खुलती। इसलिए उनके सहपाठी उन्हे ‘कुंभकर्ण” कहकर चिढ़ाते थे।
लेकिन, तब शायद किसी को यह नहीं मालूम था कि यही आलसी बालक आगे चलकर एक दिन संन्यासी बन जाएगा। हालांकि, उनके जीवन में कई महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटी जो संयोग ही था। यह संयोग उनके जीवन में कैसे आए, उसकी भी चर्चाएं रोचक है।
ज्ञान का बोध
सन् 1896, जब वेंकटरमण केवल 17 वर्ष के थे और एक दिन अपने चाचा के घर की पहली मंजिल के एक कमरे में गहरे विचारों में डूबे हुए थे, तभी एकाएक उनके हृदय में मृत्यु भय का विचार आया और वे बेसुध हो गए, उन्हें लगा कि वे मर गए। मृत्यु के विचार उन्हें दुर्बल न कर दे यह सोचकर इन विचारों को रोकने के लिए उन्होने आत्मचिंतन प्रारंभ किया। उन्होंने मन ही मन कहा ”मुझे क्या करना चाहिए। अब मृत्यु समीप आ रही है । मैं मर रहा हूं। मृत्यु क्या है ? क्या यह शरीर नष्ट हो जाएगा?” ऐसा सोच कर तब उन्होंने पूर्णरूप से अपनी आंखों को बंद कर लिया। मुर्दे के समान जमीन पर लेट गए और चिंतन-मनन आरंभ कर दिया।
वेंकटरमण के ये विचार बचकानी कल्पनाएं लगती है। पर, यह याद रखना चाहिए कि ईश्वर की अनुभूति वर्षों की तपस्या से ही प्राप्त होती है। तपस्या काल में भूख और नींद का परित्याग करना पड़ता है। शरीर को यातना देनी पड़ती है। परंतु, वेंकटरमण को बिना कष्ट सहे ही ऊंचा ज्ञान प्राप्त हो गया। वे मृत्यु भय से मुक्त हो गए और वेंकटरमण से ‘महर्षि रमण’ हो गए।
घर छोड़ने का निर्णय
दूसरे दिन, बहुत तड़के वे विलुपुरम स्टेशन पहुंचे। पैसे न होने के कारण वहां से उन्होंने तिरूवन्न्मलाई तक पैदल जाने का संकल्प किया। उनके पास इतने कम पैसे थे कि रेल द्वारा केवल मांम्बलपट्टु तक ही जा सकते थे इसलिए विवश होकर उन्होंने मांम्बलपट्टु तक का टिकट खरीदा और वहां तक रेल यात्रा की। मांम्बलपट्टु पहुंचकर वे रेल से उतर गए।
अब उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी। भूखे-प्यासे पैदल चलते रहे और शाम तक दस मील की यात्रा तय कर ली। लम्बी यात्रा के कारण वेंकटरमण थककर चूर हो गए। शाम तक किसी तरह वे अरायिणीनल्लूर नामक गांव तक पहुंचे। उस गांव में एक शिव मंदिर था। वे उस शिव मंदिर में गए और वहां ध्यान में डूब गए। वहां उन्हें एक अलौकिक ज्ञान प्रभा के दर्शन हुए।
समाधि में लीन
पुजारी ने बताया कि उसे यहां से तीन मील दूर दूसरे मंदिर में जाना है, इसलिए दरवाजे बंद करने हैं वेंकटरमण भी पुजारी के साथ हो लिए और उसके साथ किलूर के एक मंदिर में पहुंच गये और वह उस मदिर में भी ध्यानस्थ हो गये। पूजा पाठ समाप्त करने के बाद, पुजारी ने फिर उनकी समाधि भंग की। पुजारी ने उन्हें गांव के शास्त्री जी के घर पहुंचा दिया ताकि बालक को मंदिर में रात न बितानी पड़े।
वेंकटरमण जैसे ही शास्त्री जी के घर पहुंचे, बेहोश होकर गिर पड़े। कुछ मिनटों के बाद उन्हें होश आया। आस-पास के लोग उन्हें कौतुहल और विस्मय से देख रहे थे। उन्होंने एक-दो घूंट पानी पीया। पानी पीने से उन्हें कुछ शक्ति मिली। शास्त्री जी ने बड़े प्यार से उन्हें भोजन कराया। भोजन करने के पश्चात वेंकटरमण सो गये।
वेंकटरमण को अपनी यात्रा आगे जारी रखनी थी। सो, अपने कान की सोने की बालियों को उतारकर उन्होंने शास्त्री भागवतरण को दे दिया और उनसे चार रुपये देने के लिए निवेदन किया। भागवतरण ने उन बालियों का ध्यान से परीक्षण किया और अनुमान लगाया कि उनका मूल्य बीस रुपये से कम न होगा। उसने वेंकटरमण को चार रुपये दे दिए तथा एक कागज पर अपना पता भी लिखकर दिया। उसने वेंकटरमण से कहा तुम किसी भी समय आकर अपनी बालियां ले जा सकते हो।
अपने गुरु को इस रुग्णावस्था में देखकर शोकाकुल और वेदना में डूबे शिक्ष्यों को वह सांत्वना देते और कहते कि संसार में जो पैदा हुआ है, उसे मरना ही है। यह शरीर नश्वर है और आत्मा स्वाश्वत अमर है। इसलिए इस नश्वर शरीर के लिए दुखी नहीं होना चाहिए। और इस प्रकार महर्षि रमण अपनी जीवन लीला को समेटते हुए 24 अप्रैल 1950 अंतिम सांस लेकर महासमाधिक को उपलब्ध हो गये।