मौन साधें, अंतः को निखारें भाग -2
प्रायः लोग सुख-शान्ति की तलाश करते हुए जंगलों, पर्वतों, एकान्त स्थलों, तीर्थस्थानों, मन्दिरों आदि में भ्रमण किया करते है। इतने पर भी आत्मा की प्यास नहीं बुझाती और वह स्थायी शान्तिपूर्ण स्थिति प्राप्त करने के लिए सदा तरसती रहती है। उक्त स्थानों में जब तक निवास है, तब तक उसके वातावरण के अनुरूप स्थूल और क्षणिक शाँति की झाँकी भले ही हो जाय, पर पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती। कारण यह है कि संसार का प्रत्येक परमाणु गतिशील, परिवर्तनशील और चंचल है। स्थूल जगत का कोई भी पदार्थ या अणु-परमाणु स्थिर नहीं, शान्त नहीं और जो वस्तु स्वयं ही शान्त नहीं वह दूसरों को शान्ति कहाँ दे सकेगी? स्थिर वस्तु एक ही है और वह है आत्मा। इसलिए आत्मा में ही शान्ति है। जब हम आत्मपरायण होते है, अपने अन्तराल में झाँकते और वहीं रमण करते हैं तो स्थिर शान्ति के दर्शन करते है, जिनसे अनन्त विश्राम उपलब्ध होता है। मौन व्रत की साधना ही वह उपाय-उपचार है, जिसके द्वारा हम अन्तराल की गहराई में प्रविष्ट कर सकते है और स्थायी सुख-शाँति का स्रोत प्राप्त कर सकते है।
साँसारिक दृष्टि से भी और आत्मिक दृष्टि से भी मौन एक महत्वपूर्ण साधन है। यह वह साधना है, जो चित्तवृत्तियों को बिखरने से बचाती है। चुप रहने से वाणी के साथ व्यय होने वाली मस्तिष्कीय शक्तियों की क्षति होने से बचत होती है। यह बचत आत्मचिंतन में लगा दी जाय तो शान्ति के उस स्रोत तक पहुँच हो सकती है, जो हमारी अशान्तियों को हटाकर सुखद, शीतल और स्निग्ध शान्ति का आश्वासन देती है। इस प्रकार के विश्वास के उपरान्त नवीन चैतन्यता, स्फूर्ति और जीवनीशक्ति प्राप्त होती है, जो कार्यक्षमता, सूक्ष्मदर्शिता और प्रतिभा को कई गुना बढ़ा देती है।
जिस प्रकार शोरगुल वाले कोलाहलपूर्ण वातावरण में हम पास के शब्द भी नहीं सुन पाते, किन्तु निस्तब्ध वातावरण में दूर-दूर की ध्वनियाँ भी आसानी से सुनी जा सकती है, उसी प्रकार अशान्त, उद्विग्न मन अन्तरात्मा की आवाज नहीं सुन पाता। दिव्यलोकों से हमारे लिए जो दिव्य आध्यात्मिक संदेश आते है, उन्हें सुनने के लिए मौन होने की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा के प्रति परमात्मा की जो सन्देश-ध्वनियाँ है, उन्हें मन और वाणी से मौन होकर ही सुना जा सकता है। यह एक दैवी रेडियो है। चुप रहकर अन्तर्मुखी होकर ही साधक परमात्मा के प्रकाश को ग्रहण कर सकता है। साँसारिक कोलाहलों में मन को हटाकर जब हम अन्तरात्मा की सुई परमात्मा के केन्द्र पर सटा देते है तो ईश्वरीय वाणी सुनाई पड़ने लगती है। जो कुछ सुनने लायक है, वह मौन के दैवी रेडियो के माध्यम द्वारा जाना और सुना जा सकता है। जो व्यक्ति हर घड़ी लपलप जीभ चलाता रहता है, दुनिया भर की अगड़म-बगड़म बकता रहता है,उसके लिए अन्तर्मुखी होने और मौन के दैवी लाभ को प्राप्त करना कठिन है।
कितने ही व्यक्तियों की ऐसी आदत होती है। कि उनसे चुप नहीं रहा जाता। हर वक्त उनकी जीभ कतरनी की तरह चलती रहती है। कोई कहने योग्य आवश्यक बात हो या न हो, उन्हें कुछ न कुछ कहे बिना चैन नहीं पड़ता। ऐसे लोग यह नहीं समझते कि शब्द साथ हमारी कितनी विद्युतशक्ति, जीवनीशक्ति एवं प्राणशक्ति मिली रहती है। वाणी के साथ-साथ हमारी संचित शक्तियों का भी क्षरण होता है। यह एक तथ्य है कि वाणी के द्वारा शत्रुओं को मित्र और मित्रों को शत्रु बनाया जा सकता है। किसी के शब्दों में रस बरसता है, अमृत झरता है, तो किसी की जीभ चलती है तो द्वेष, कलह, घृणा-विग्रह ही उत्पन्न करती है। इससे प्रकट है कि हमारे भीतरी तत्व वाणी के साथ सम्मिश्रित होते है। वाणी जब निकलती है तो अपने साथ हमारी प्राणशक्ति को भी लपेट लाती है। उसे यदि अकारण, अनुपयुक्तता में खर्च किया जाय तो न केवल हमारी प्राणशक्ति नष्ट होगी, वरन् बकवास की एक दूषित आदत भी हमारे पीछे पड़ जाएगी।
शास्त्रों में जिह्वा को इन्द्रियों की गणना में एक नहीं दो माना गया है। वही वाक् शक्ति भी है और वही स्वादेन्द्रिय रसना भी। इसका शासन समूचे व्यक्तित्व एवं सम्पर्क परिकर पर छाया रहता है। लौकिक एवं आध्यात्मिक साधनाओं की सफलता-असफलता का बहुत कुछ आधार इसकी सुसंस्कारिता पर निर्भर करता है। इसे सुसंस्कृत बनाना जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ समझा जा सकता है। यदि यह बन पड़े तो जन नेतृत्व से लेकर शासन-सत्ता पर अधिकार करने, परायों को अपना बना लेने में सफलता मिलती है। यह कार्य कठिन भी है और सरल भी। कठिन इसलिए कि आदत और अभ्यास कई बार उसे अनगढ़ बना देते हैं, तब उसे काबू में लाना कठिन पड़ता है चटोरापन सवार हो तो समझना चाहिए कि स्वास्थ्य चौपट हुआ। कटुवचन बोलने, निन्दा-चुगली करने, बहकाने बरगलाने, डींग हाँकने जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ यदि जिह्वा में रम चलें तो समझना चाहिए कि मित्र परिकर समाप्त हुआ।
जिह्वा का कार्यक्षेत्र लौकिक भी है और पारलौकिक भी। लोकव्यवहार में यह सबसे बड़ी क्षमता है। अध्यात्म में सत्संग, विचार विनिमय, जीभ से ही सम्पन्न होते है। इन्हें मनन, चिंतन का प्रतीक मानना चाहिए। ईश्वर-प्रार्थना भजन-कीर्तन प्रवचन, मंत्रजप आदि जीभ से ही होते है। यदि जीभ का परिशोधन हो चुका है, तो उपर्युक्त सभी कार्य ठीक प्रकार बने पड़ेंगे और अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करेंगे। यदि जिह्वा कुधान्य खाने और कुसंस्कारिता के दुर्गुणों की अभ्यस्त है, तो फिर समझना चाहिए कि साधना-प्रयोजन के लिए जिह्वा के माध्यम से जो कुछ किया गया है, वह सभी निरर्थक चला जाएगा।
अध्यात्म क्षेत्र में वाक्–सिद्धि का प्रयोजन भी मौनव्रत का अभ्यास करने से ही बन पड़ता है। निरन्तर बोलते रहने से वाणी की प्रभाव क्षमता क्षीण होती है।इसलिए विज्ञजन सोच-समझकर सीमित और अर्थपूर्ण शब्द कहते है। उनका थोड़ा-सा कथन भी घंटों बकवास करने की तुलना में कहीं अधिक कारगर सिद्ध होता है। महात्मा गाँधी अपना अधिक समय मौन में बिताते थे। उनके पास समय का बड़ा अभाव रहता था, तो भी वे सप्ताह में एक दिन मौनव्रत के लिए अवश्य निकाल लेते थे। महत्वपूर्ण राजनैतिक वार्ताओं में भी वे उतना ही बोलते थे, जितना बोले बिना काम नहीं चलता था। उनका कहना था, कि मौन से मुझे बड़ा विश्राम मिलता है ओर कार्य करने के लिए नयी ताजगी का अनुभव होता है। उनके अनुसार, मौन एक ईश्वरीय अनुकंपा है, मौन के समय मुझे आन्तरिक आनन्द मिलता है।
एक बार ऋषि भाष्कलि ने अपने आचार्य से प्रश्न किया कि भगवन् ब्रह्म को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? आचार्य ने कोई उत्तर न दिया। भाष्कलि ने सात बार यह प्रश्न पूछा, पर आचार्य सातों बार चुप रहे। अंत में उनने कहा- भद्र! मैं बार बार उत्तर दे रहा हूँ, पर तू समझता ही नहीं। उस ब्रह्म को वाणी से कहा-सुना नहीं जा सकता, उसे तो मौन होकर ही समझा, और प्राप्त किया जा सकता है।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मौनव्रत की साधना के साथ यदि मनोवृत्तियों को आत्मचिन्तन में लगा दिया जाय तो आध्यात्मिक आनन्द का एक निर्झर झरने लगता है, जिसके रसास्वादन की अनुभूति भुक्तभोगी ही जानते है। अरुणाचल के महान संत महर्षि रमण के बारे में विख्यात है कि वे सदैव मौन रहते थे और मौन रहते हुए भी निकट आने वालों की शंकाओं का समाधान करते थे। उनकी सिद्धावस्था असंदिग्ध एवं अद्वितीय थी। उनके अनुसार भाषण से व्यक्तियों का बिना उनका सुधार किये कुछ घंटे मनोरंजन हो सकता है, जबकि मौन स्थायी वस्तु है तथा मानवता के लिए कल्याणकारी है। मौन एक तरह का अनन्त भाषण हैं प्राचीनकाल के ऋषि अपने शिष्यों को मौन द्वारा ही उपदेश किया करते थे। इस अकेली मौन साधना से वे सब सिद्धियाँ मिल सकती है, जो अन्य कठिन योग-साधनाओं से मिल सकती है।
योगशास्त्रों में वाणी चार तरह की बतायी गयी है-परा पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी वाणी। इनमें से परावाणी नाभि में, पश्यन्ति वाणी हृदय में, मध्यमा वाणी कंठ में ओर बैखरी वाणी मुँह में निवास करती है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होता है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती है, परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुँह में स्थित बैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है। इनमें से परा और पश्यन्ति वाणियाँ सूक्ष्म तथा मध्यमा और बैखरी स्थूल है। मन में जो संकल्प उठते है, जो सोच-विचार ऊहा-पोह तर्क-वितर्क आयोजन-वियोजन होते है, उनमें सूक्ष्म वाणी का प्रयोग होते है, उनमें सूक्ष्म वाणी का प्रयोग होता है। फुसफुसाहट युक्त अस्पष्ट वाणी कंठ से तथा स्पष्ट ध्वनि वाली वाणी जिह्वा से उत्पन्न होती है। इन चारों ही वाणियों का हमें संयम एवं सदुपयोग करना चाहिए।
जिह्वा खोलने से पहले, शब्दोच्चार करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि जो बात हम कहने जा रहे हैं, वह किसी के लाभ के लिए कही जा रहे हैं, चह किसी के लाभ के लिए कहीं जा रही है या नहीं? कितने विस्तार से कहानी चाहिए? इन दोनों प्रश्नों को सामने रखकर जो वार्तालाप किया जाता है, वह भी मौन की श्रेणी में ही गिना जाता है। लोकहित की, परमार्थ की दृष्टि से जो कुछ कहा जाता है, वह मौन ही है।
मन और शरीर दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण मौन बनता है। जो एकांगी हो, वह अधूरा है। जबान से चुप रहना, मन में विचार-तरंगों का तूफान चलाते प्रकट करना आदि तो अधूरा मौन ही कहा जाएगा। मौन व्रत-धारियों का ही दूसरा नाम मुनि है। मुनि से जीवनीशक्ति दूर नहीं होती। उनके भीतर दिव्य शक्तियों का निवास होता है। कहा भी गया है-” मुनिमौन परोभवेत्” अर्थात्-मौनव्रत में ही मुनि की प्रतिष्ठा है।
मौनव्रत दो प्रकार का होता है। पहला-वाणी से और दूसरा मन से। इन्हें ही क्रमशः बहिर्मौन एवं अन्तर्मौन कहते है। वाणी को वश में रखना, कम बोलना, नहीं बोलना, जरूरत के अनुसार शब्दोच्चार करना आदि वाणी के मौन कहे जाते है। मन को स्थिर रखना, मन में बुरे विचार नहीं लाना, अनात्म विचारों को हटाकर आत्मतत्त्व का, अध्यात्म-विचार करना, बाह्य सुख की इच्छा से मुक्त होकर अंतर्गुहा में स्थित आत्मा में रमण करना, आन्तरिक सुख में मस्त रहना और मत को, इन्द्रियों को आत्मा के वश में रखना मन का मौनव्रत या आन्तरिक मौन कहलाता है। शक्ति के साधकों को मौन होना चाहिए। संसार में जितने भी संत-महात्मा ऋषि-मनीषी हुए है, वे प्रायः सभी मितभाषी थे। मितभाषण को शास्त्रकारों ने मौन कहा है। जो भाषण किसी के लाभ, हित या कल्याण के उद्देश्य से किया जाता है, वह मौन है। उतना ही बोलना चाहिए, जितना बोलना आवश्यक है। शेष समय में चुप रहना चाहिए।
आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने के लिए, अशान्ति-उद्विग्नता से पिण्ड छुड़ाकर स्थायी सुख-शान्ति पाने के लिए हर साधक को मौन साधना की ओर बढ़ना चाहिए। मौनव्रत के विश्राम काल में साधक को इतना अवसर मिल जाता है। कि वह अपने पिछले अनगढ़ विचारों को आदतों को सुधार सके और भावी कार्यकाल में उसे योजनाबद्ध तरीके से नियोजित कर सके।