कहानी: अंगुलिमाल डाकू
बुद्ध के जमाने में कोशल राज्य में अंगुलिमाल नाम का एक डाकू रहता था, जिसके हाथ हमेशा खून से रंगे रहते थे। वह लोगों की हत्या कर उनकी अंगुली काट कर उसे अपनी माला में पिरो लिया करता था, इसलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा था। वह बहुत क्रूर था। जिधर उसका इलाका था, लोग उस तरफ जाने से भी डरते थे। राजा ने उसे पकड़ने के लिए कई बार अपनी सेना भेजी, अनेक-अनेक प्रयास किए, लेकिन सभी असफल रहे। बुद्ध ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह समझा कि अंगुलिमाल के मन भी कहीं दया व करुणा की भावना सोई हुई है, बस उसे जगाने की आवश्यकता है। यह सोच बुद्ध उस ओर चल दिए, जिस ओर अंगुलिमाल रहता था। लोगों ने बुद्ध को जाने से बहुत मना किया, लेकिन वे नहीं रुके।
अंगुलिमाल, बुद्ध को अपनी ओर आता देख अपनी तलवार लेकर दौड़ा, लेकिन बुद्ध अपनी स्वाभाविक गति से चलते रहे। उसने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘रुको श्रमण।’ बुद्ध रुक गए। जब अंगुलिमाल निकट आया, तो उन्होंने कहा, ‘मैं तो रुक गया, लेकिन तू कब रुकेगा? तू भी पाप कर्म करने से रुक। मैं इसलिए यहां आया हूं कि तू भी सत्य पथ का अनुगामी बन जाए। तेरे अंदर पुण्य मरा नहीं है। यदि तू इसे अवसर देगा, तो यह तेरी काया पलट देगा।
‘
बुद्ध की यह बात ओजपूर्ण थी, सुन कर अंगुलिमाल के रोंगटे खड़े हो गए। उस पर बुद्ध के वचनों का बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। वह शीतल था। भय, घृणा और प्रतिशोध की भावना से मुक्त था। पहली बार किसी ने उससे इतने मृदु भाव से बात की थी। अंगुलिमाल ने कहा, ‘आखिर मुनि ने मुझे जीत ही लिया। आपकी दिव्य वाणी मुझे हमेशा के लिए पाप-विरत होने को कह रही है। मैं इस अनुशासन को स्वीकार करने को तैयार हूं।’ उसने अंगुलियों की माला उतार कर दूर फेंक दी और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। वह उसी समय भिक्षु हो गया और कुछ समय के बाद उसे अर्हत पद भी प्राप्त हो गया।
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