जब सात दिन चुप रहे गौतम बुद्ध…
बुद्ध के मौन रहने की कहानी।
कहते हैं बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो वह सात दिन चुप रह गए। चुप्पी इतनी मधुर थी। ऐसी रसपूर्ण थी, ऐसी रोआं-रोआं उसमें नहाया, सराबोर था, बोलने की इच्छा ही न जागी। बोलने का भाव ही पैदा न हुआ। कहते हैं, देवलोक थरथराने लगा। कहानी बड़ी मधुर है।
अगर कहीं देवलोक होगा तो जरूर थर-थराया होगा।
कहते हैं ब्रह्मा स्वयं घबरा गए, क्योंकि कल्प बीत जाते हैं, हजारों-हजारों वर्ष बीतते हैं, तब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। ऐसे शिखर से अगर बुलावा न दे तो जो नीचे अंधेरी घाटियों में भटकते लोग हैं, उन्हें तो शिखर की खबर भी न मिलेगी। वे तो आंख उठाकर देख भी न सकेंगे; उनकी गरदनें तो बड़ी बोझिल हैं। वस्तुतः वे चलते नहीं, सरकते हैं, रेंगते हैं।
आवाज बुद्ध को देनी ही पड़ेगी। बुद्ध को राजी करना ही पड़ेगा। जो भी मौन का मालिक हो गया। उसे बोलने के लिए मजबूर करना ही पड़ेगा।
कहते हैं, ब्रह्मा सभी देवताओं के साथ बुद्ध के सामने मौजूद हुए। वे उसके चरणों में झुके। हमने देवत्व से भी ऊपर रखा है बुद्धत्व को। सारे संसार में ऐसा नहीं हुआ। हमने बुद्धत्व को देवत्व के ऊपर रखा है। कारण है देवता भी तरसते हैं बुद्ध होने को।
देवता सुखी होंगे, स्वर्ग में होंगे। अभी मुक्त नहीं हैं, अभी मोक्ष से बड़े दूर हैं। अभी उनकी लालसा समाप्त नहीं हुई है। अभी तृष्णा नहीं मिटी है। अभी प्यास नहीं बुझी है। उन्होंने और अच्छा संसार पा लिया है और सुंदर स्त्रियां पा ली हैं।
कहते हैं स्वर्ग में कंकड़-पत्थर नहीं है, हीरे जवाहरात हैं। कहते हैं स्वर्ग में जो पहाड़ हैं, वे शुद्ध स्फटिक माणिक के हैं। कहते हैं, स्वर्ग में जो फूल लगते हैं वे मुरझाते नहीं। परम सुख है।
लेकिन स्वर्ग से भी गिरना होता है। क्योंकि सुख से भी दुख में लौटना होता है। सुख और दुख एक ही सिक्के के पहलू हैं। कोई नरक में पड़ा है। कोई स्वर्ग में पड़ा है। जो नरक में पड़ा है वह नरक से बचना चाहता है। जो स्वर्ग में पड़ा है वह स्वर्ग से बचना चाहता है। दोनों चिंतातुर हैं। दोनों पीड़ित और परेशान हैं। जो स्वर्ग में पड़ा है, वह भी किसी लाभ के कारण वहां पहुंचा है। एक ने अपने लोभ के कारण पाप किया होगा। एक ने लोभ के कारण पुण्य किए हैं। लोभ में फर्क नहीं है।
बुद्धत्व के चरणों में ब्रह्मा झुके और कहा- आप बोलें! आप न बोलेंगे तो महा दुर्घटना हो जाएगी। और एक बार यह सिलसिला हो गया, तो आप परंपरा बिगाड़ देंगे। बुद्ध सदा बोलते रहे हैं। उन्हें बोलना ही चाहिए। जो न बोलने की क्षमता को पा गए हैं, उनके बोलने में कुछ अंधों को मिल सकता है, अंधेरे में भटकतों को मिल सकता है। आप चुप न हों, आप बोलें।
किसी तरह बमुश्किल राजी किया। कहानी का अर्थ इतना ही है कि जब तुम मौन हो जाते हो तो अस्तित्व भी प्रार्थना करते है कि बोलो, करुणा को जगाते हैं। उन्हें रास्ते का कोई भी पता नहीं। उन्हें मार्ग का कोई भी पता नहीं है। अंधेरे में टटोलते हैं। उन पर करुणा करो। पीछे लौटकर देखो।
साधारण आदमी वासना से बोलता है, बुद्ध पुरुष करुणा से बोलते हैं। साधारण आदमी इसलिए बोलता है कि बोलने से शायद कुछ मिल जाए, बुद्ध पुरुष इसलिए बोलते हैं कि शायद बोलने से कुछ बंट जाए। बुद्ध इसलिए बोलते हैं कि तुम भी साझीदार हो जाओ उनके परम अनुभव में। पर पहले शर्त पूरी करना पड़ती है। मौन हो जाने की, शून्य हो जाने की।
जब ध्यान खिलता है, जब ध्यान की वीणा पर संगीत उठता है, जब मौन मुखर होता है, तब शास्त्र निर्मित होते हैं, जिनको हमने शास्त्र कहा है, वह ऐसे लोगों की वाणी है, जो वाणी के पार चले गये थे। और जब भी कभी कोई वाणी के पार चला गया, उसकी वाणी शस्त्र हो जाती है। आप्त हो जाती है। उससे वेदों का पुनः जन्म होने लगता है।
पहले तो मौन को साधो, मौन में उतरो; फिर जल्दी ही वह घड़ी भी आएगी। वह मुकाम भी आएगा। जहां तुम्हारे शून्य से वाणी उठेगी। तब उसमें प्रामाणिकता होगी सत्य होगा। क्योंकि तब तुम दूसरे के भय के कारण न बोलोगे।
तुम दूसरों से कुछ मांगने के लिए न बोलोगे। तब तुम देने के लिए बोलते हो, भय कैसा। कोई ले तो ठीक, कोई न ले तो ठीक। ले-ले तो उसका सौभाग्य, न ले तो उसका दुर्भाग्य तुम्हारा क्या है? तुमने बांट दिया। जो तुमने पाया तुम बांटते गए। तुम पर यह लांछन न रहेगा कि तुम कृपण थे। जब पाया तो छिपाकर बैठ गए।